एस. निहाल सिंह
तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्डोगन ने हाल ही में आईएसआईएस से लडऩे के लिए अपने देश की नीति में बदलाव करके बहुत बड़ा दांव खेला है। अमेरिका के नेतृत्व में गठबंधन सेनाओं द्वारा आईएस के खिलाफ किए जाने वाले हवाई हमलों में भाग लेने से अब तक तुर्की खुद को शामिल होने से बचाता आया था और इन आतंकियों पर किए जा रहे सैन्य अभियान के लिए इंकीरलिक स्थित अपने हवाई अड्डे का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दे रहा था।
राष्ट्रपति एर्डोगन का जोर इस ओर लगा हुआ था कि सीरिया के वायुक्षेत्र में एक सुरक्षित जोन’ बनाया जाए ताकि सीरियाई शरणार्थियों को वहीं रोका जा सके। इसके अतिरिक्त उनका ध्यान सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद को उखाड़ फेंकने वाले कामों की ओर भी केंद्रित था। एर्डोगन की इन दोनों मांगों पर अमेरिका को हिचकिचाहट थी क्योंकि वह मध्य-पूर्व के मामलों में खुद को फिर से गहरे तक लिप्त करना नहीं चाह रहा था, इसीलिए उसने तुर्की को साफ कर दिया था कि फिलहाल आईएस से निपटना ज्यादा महत्वपूर्ण है। अब अचानक तुर्की ने आईएस के खिलाफ हो रहे हवाई हमलों में भाग लेने का मन बनाया है और अपने इंकीरलिक हवाई अड्डे का इस्तेमाल किए जाने की इजाजत इस शर्त पर दी है कि बमवर्षा उन कुर्द पृथकतावादियों (पीकेके) पर भी की जाएगी, जो पिछले तीन दशकों से तुर्की के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए थे। वे लगभग तीन साल पहले हुई शांति संधि के बाद इन दिनों इराक के उत्तरी इलाकों में रह रहे हैं।
राष्ट्रपति एर्डोगन की इस अचानक पलटी से सकपकाए अमेरिकी प्रशासन ने पहले पहल इस पर अपनी प्रतिक्रिया यह कहकर दी थी कि आईएस के खिलाफ संगठित अभियान में तुर्की के शामिल होने का निर्णय और इराक में रह रहे कुर्दों पर बमबारी के बीच कोई संबंध नहीं है। हां, सेफ फ्लाइंग जोन’ बनाने की मांग पर यह जरूर लगता है कि अमेरिका ने इस पर अंदरखाते अपनी सहमति जता दी है। तुर्की के रवैये में बदलाव की वजह 20 जुलाई को तुर्की-सीरिया सीमा पर स्थित सुरुक शहर पर हुई बमबारी है, जिसमें 32 कुर्द मारे गए और मरने वालों में अधिकांश युवा थे। यह हमला आईएस से प्रेरित तुर्कों द्वारा किया गया था। इसके बाद सीमापार से आईएसआईएस द्वारा किए गए हमले में तुर्की के दो सैनिक भी हताहत हुए थे। इसके अलावा पीकेके के हाथों भी 3 तुर्की सैनिक मारे गए थे। लेकिन एर्डोगन प्रशासन के रवैये में इस नाटकीय बदलाव के पीछे असली कारण तुर्की में हाल में हुए आम चुनाव में निहित है, जिसमें देश में अपनी सरदारी कायम करने के बाद से एर्डोगन की पार्टी एकेपी को पहली बार बहुमत से हाथ धोना पड़ा है। वास्तव में उन्होंने कभी यह नहीं छुपाया कि वे देश के संविधान में बदलाव करके इसे संसदीय प्रणाली से बदलकर राष्ट्रपति शासन वाला बनाना चाहते हैं और इसीलिए उन्होंने पिछली बार प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देकर राष्ट्रपति चुनाव लड़ा था और इसमें सफलता भी हासिल कर ली थी। सत्ता की राजनीति में कुर्दों के प्रति सहानुभूति रखने वाली एचडीपी पार्टी एक बड़ी भूमिका में उभरकर आई है, जिसके उम्मीदवार 10 फीसदी से ज्यादा मत प्राप्त करके संसद में बड़ी संख्या में जीतकर आए हैं, लिहाजा एकेपी पूर्ण बहुमत से महरूम होकर रह गई है। यह माना जाता है कि एर्डोगन की अधिनायकवादी प्रवृत्तियों की वजह से बड़ी संख्या में तुर्की के लोगों का उनसे मोहभंग हुआ है और इसके अलावा जातीय अल्पसंख्यक भी एकेपी से दूर छिटक गए हैं। इसीलिए एकेपी को यह ज्यादा मुफीद बैठता है कि ऐसे मौके पर वह अपना राष्ट्रवादी राग अलापे। पीकेके पार्टी के नेता अब्दुल्ला ओकालन अभी भी जेल में हैं, हालांकि उन्होंने तुर्की की सरकार के साथ शांति स्थापना पर सहमति जताई है। कहते हैं कि मौजूदा हालात में शांति की बात करना असंभव है।
एर्डोगन का विश्वास हमेशा अपने हितों को बचाने की खातिर बाजी में दुगुना दांव लगाने में रहा है, इसीलिए उन्होंने नाटो संगठन के सदस्य देशों से कहा है कि वे तुर्की की सुरक्षा को दरपेश खतरों पर एक विशेष अधिवेशन बुलाएं। संगठन ने इस पर अपनी सहमति जता दी है। अमेरिका की सबसे बड़ी मौजूदा चिंता तुर्की द्वारा सीरिया के कुर्द संगठन वाईपीजी पर संभावित बमबारी के नतीजे से है क्योंकि ये कुर्द ही आईएस से लडऩे में सबसे ज्यादा प्रभावशाली लड़ाके सिद्ध हुए हैं और इस लड़ाई में अमेरिका और इसके सहयोगियों के पाले में हैं। दूसरी तरफ तुर्की को यह डर सता रहा है कि अगर सीरिया में वाईपीजी को बड़ी सफलता मिलती है तो ऐसा न हो कि इससे उत्साहित होकर वह तुर्की की सीमा के सटे इलाकों में अपने लिए एक अलग देश बनाने की ओर लालायित होने लगें। जब से चार साल पहले सीरिया का गृहयुद्ध शुरू हुआ है, तब से तुर्की ने आईएस के संदर्भ में संदिग्ध भूमिका अख्यितार की है। यह सर्वमान्य था कि सीरिया के साथ लगती इसकी सीमा से होकर भांति-भांति के जिहादी और अन्य तत्व आईएस के साथ मिलकर लडऩे के लिए पहुंचते हैं। उस वक्त भी तुर्की मूकदर्शक बना रहा जब इसकी सीमा से सटे कोबाने शहर को आईएस से बचाने की बदहवास कोशिश में कुर्द जी-जान से जुटे हुए थे और बाद में भारी कीमत देकर आखिरकार वे जीत पाए थे।
एक तो यह है कि नई तुर्की सरकार का यह खेल एर्डोगन की एकेपी पार्टी के वास्ते ज्यादा से ज्यादा बहुमत जुटाने के मंतव्य से रचा गया है। प्रतीत होता है कि पूर्ण-बहुमत वाली सरकार बनाने की खातिर अगले कुछ महीनों में फिर से चुनाव करवाने की नौबत आ जाएगी। दूसरा यह कि, यह स्थिति इस इलाके के मुल्कों के अस्तित्व को आईएस नामक अजीबोगरीब माजरे से दरपेश खतरे से लडऩे की अमेरिकी भू-रणनीतिक अभियान में पलीता लगाकर रख देगी। नाटो संगठन के देशों में तुर्की के पास दूसरी सबसे प्रभावशाली सेना है। उसके द्वारा सुन्नी अतिवादियों के साथ मधुर संबंध रखना और आईएस के खिलाफ लड़ाई में सक्रिय हिस्सा लेने में आनाकानी करना इस गठबंधन के दीगर सदस्यों में बेचैनी पैदा करता आया है। मध्य-पूर्व को लेकर बनाई गई अमेरिका की मशहूर एशिया की धुरी नामक नीति जो इस इलाके के देशों को भरोसा देने के लिए बनाई गई थी, वह कभी भी सफल नहीं हो पाई। अमेरिका की यह कोशिश होगी कि जहां वह हाल में तुर्की द्वारा इंकीरलिक हवाई अड्डे का इस्तेमाल करने की इजाजत का लाभ उठाकर सीरिया और इराक के इलाकों में बने आईएस के ठिकानों पर बमबारी की सिलसिला जारी रख सके वहीं गठबंधन सेना के साथ वाईपीजी के लड़ाकों के सहयोग को बचा पाए।