Categories
कृषि जगत

कीमतें एमएसपी से गिरेंगी भी और मुक्त बाजार भी आएगा ही

परिवर्तन प्रकृति का अनिवार्य नियम है। उदाहरण के तौर पर बिहार में “एल्युमीनियम का कटोरा थमा देना” का मजाक चलता है। हमेशा से ऐसा नहीं था। जब 1807 में सर हम्फ्री डेवी ने एल्युमीनियम की वैज्ञानिक नियमों के आधार पर परिकल्पना की तब तक एलेक्ट्रोलायसिस नाम की विधि का किसी को पता ही नहीं था। वो नेपोलियन तृतीय का काल था। जब पहली बार इस धातु को अलग करके निकाला गया और नेपोलियन तृतीय द्वारा ही आयोजित एक प्रदर्शनी में दिखाया गया तो इलाके के रईस बड़े अचंभित हुए। वजन में कम होने के कारण ये धातु जेवर बनाने के लिए बड़ी उपयुक्त थी।

फिर क्या था? कोट के बटन से लेकर महिलाओं के जेवरों में, हर जगह ये दिखने लगा। नेपोलियन तृतीय ने सोचा कि धातु है तो सिपाहियों के कवच, हेलमेट इत्यादि बनाने में भी ये काम आएगा। उस दौर में इसे अलग करना, शोधित करना इतना महंगा था कि नेपोलियन का ये इरादा सफल नहीं हुआ। अंततः उसने एल्युमीनियम पिघलाकर उसके बर्तन बनवा लिए और उनमें खाना खाने लगा! आज एल्युमीनियम के बर्तनों में खाना भले आपको गरीबी की निशानी लगे लेकिन ऐसा माना जाता है कि नेपोलियन तृतीय खुद एल्युमीनियम के बर्तनों में खा रहा होता था, जबकि बाकी उसके साथ खाने बैठे लोगों को सोने के बर्तनों में परोसा जाता था।

जो एल्युमीनियम 1810 के दशक में ढूंढ लिया गया था, उसे बॉक्साइट से आसानी से एल्युमीनियम ऑक्साइड बनाया जा सकता है, ये पता चलते-चलते 1890 का दशक आ गया था। इसके बाद तो खोज की प्रक्रिया और भी तेज हो गयी। जो एल्युमीनियम 1850 के जमाने में 1200 डॉलर प्रति किलो से ऊपर बिकता था, वो 1900 की शुरुआत में 1 डॉलर प्रति किलो पर आ गया था।

अब सोचिये कि अगर कोई चीज़ सोने से भी महंगी बिकती होगी, तो क्या वो सरकारी नियंत्रण में होगी? जरूर, होती ही होगी। जैसे सोने के आयात-निर्यात पर प्रतिबन्ध, सरकारी नियंत्रण होते हैं, वैसे ही कभी एल्युमीनियम के लिए भी बनाए गए होंगे। ये करीब-करीब वैसा ही है जैसे बंगाल का अकाल झेलकर आजाद हुए भारत की खाद्यानों के मामले में स्थिति थी। खाद्यान्नों की स्थिति सत्तर-अस्सी के दशक तक भारत में ऐसी थी कि अमेरिका गेहूं में घास के बीज मिलाकर भारत को दे देता था। “घास की रोटी” कोई महाराणा प्रताप के लिए कही जाने वाली मिथकीय कहावत नहीं, भारत की कुछ पीढ़ियों ने तो सचमुच ये हाल ही में ये किया ही है। इस घास का नाम तो आज भी “कांग्रेस घास” होता है।

जैसे जैसे भारत खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर होने लगा, वैसे-वैसे खाद्यान्नों से सम्बंधित कानून भी बदलने लगे। पहले जहाँ ये सख्ती से सरकारी नियंत्रण में होता था, अब हरित क्रांति वगैरह के बाद खाद्यान्नों को, उनकी उपज, उनके बाजार को उतना नियंत्रित रखना जरूरी नहीं होता। जैसा बाकी बदलावों में होता है, वैसे ही इस बदलाव को झेलना भी खाद्यान्नों की उपज, खरीद-बिक्री से जुड़े लोगों के लिए मुश्किल तो होगा। इसके वाबजूद ये समझना होगा कि “सीजर्स वाइफ” बनकर तो काम चलने वाला नहीं। हमेशा के लिए सवालों से परे नहीं हुआ जा सकता।

जब उपज बढ़ेगी तो केवल सरकारी मंडियों में सीमित खरीद-बिक्री की मजबूरी नहीं रहती। अच्छा लगे या बुरा, कीमतें एमएसपी से गिरेंगी भी और मुक्त बाजार भी आएगा ही। बाकी दुनियां के चाँद पर पहुँचने के दौर में जिन्हें ऐसा नहीं हुआ होगा मानकर बैठे रहना है, उनका कुछ हो भी नहीं सकता!
✍🏻आनन्द कुमार

Comment:Cancel reply

Exit mobile version