बहुत पुरानी बात नही है ये …… 1960 तक भारत मे गेहूं का आटा जिससे पूड़ियाँ बनती थीं , साल में बमुश्किल एकाध बार जब कभी कोई शादी बियाह य्या काज प्रयोजन होता तो पूड़ियाँ बनती थीं ……. अंग्रेजों के मानसिक गुलाम ही गेहूं की रोटी खाते थे ……. शेष भारत , आम जन सब जौ , चना , मक्का , मटर , बाजरा ज्वार खाते थे ……..

1960 से पहले हमारे पूर्वज सब यही मोटे अनाज खाते थे । वो तो 1965 में  जो हरित क्रांति के नाम पर देश पर गेंहू थोपा गया ।

पुरातन काल मे हमारे पूर्वज टामुन , मड़ुआ , सांवा , कोदो , कंगनी , तिन्ना , करहनी , जैसे सात्विक अन्न खाया करते थे जो अब लगभग लुप्तप्राय हैं ।
बहुत सा ऐसा भोजन था जिसे अन्न माना ही नही जाता था । जैसे कुट्टू और सिंघाड़ा …… इनकी गिनती अनाज में नही बल्कि फलों में होती थी और इनकी रोटी को फलाहार माना जाता था ……
आज भी व्रत त्योहारों में इनका सेवन फलाहार के रूप में होता है ……..

पिछले दो वर्षों से मैं देश भर के दूरदराज के गांवों में हमारा ये जो भूला बिसरा पुराना पुरातन वैदिक अन्न है इसके उत्पादन के विषय मे जानकारी जुटा रहा हूँ ।
अपनी इस खोज में मैंने ये पाया कि जहां जहां भी पूंजीवादी एक फ़सली अवैज्ञानिक  कृषि है वहां से ये अनाज पूरी तरह लुप्त हो चुके हैं । और जहां अभी भी इंटेलिजेंट इलाके हैं वहां इनकी खेती अब भी हो रही है …….. जैसे ये कोदो , मड़ुआ , रागी , कंगनी , टामुन जैसे अन्न अभी भी उत्तराखंड के ऊपरी इलाकों , झारखंड , छत्तीसगढ़ के जंगलों और बुंदेलखंड के सूखे असिंचित खेतों में अब भी मिल जाते हैं ……
एक दिन मैंने कुछ महिलाओं को नहर किनारे की दलदली जमीन में झाड़ियों में घुस के एक  प्राकृतिक / जंगली अनाज तिन्ना बटोरते देखा ।
ये वनवासी औरतें दिन भर तिन्ना झाड़ती तो दो तीन किलो अन्न मिलता ।
फिर एक दिन उन्हीं में से एक महिला मुझे पाव भर तिन्ना दे गई …….. उसकी खीर बनी ……. पूर्णतया प्राकृतिक ऑर्गेनिक अन्न …….जो अपने आप वर्षा ऋतु में दलदल में उग आता है ……. क्या दिव्य स्वाद था उसका …….
फिर उसी तरह एक दिन गांव में सांवा का चावल खाया , सांवा की खीर खाई ……. वाह …… क्या दिव्य भोजन था वो ……
जब Diabetese हो गयी तो डॉक्टर ने कहा गेहूं छोड़ दो और जौ बाजरे का आटा खाओ …… जौ तो इतना आसान न था पर बाजरा ला के घर मे ही पीसने लगे …….

फिर जब इस विषय मे अध्ययन किया तो पाया कि आज life Style जनित जो भी स्वास्थ्य समस्याएं हैं उनकी जड़ में ये 3 चीज़ें हैं ……..
गेहूं का आटा / मैदा यानी White आटा
White Sugar
White Salt
अगर आप अपने भोजन में ये 3 चीज़ छोड़ के मोटे अनाज जौ बाजरा चना कोदो सावां टामुन मड़ुआ रागी कनगी इत्यादि शामिल कर लें और White Sugar की जगह गुड़ , शक्कर , राब
और सफेद नमक की जगह सेंधा नमक और Rock Salt  काला नमक शामिल कर लें तो बहुत सी स्वास्थ्य समस्याएं तो यूँ ही हल हो जाएंगी ।

रोटी तो पहचानते हैं ना हुज़ूर ?

ये इसलिए पुछा क्योंकि रोटी से जुड़ा कुछ पूछना था | रात में या सुबह के नाश्ते में जब रोटी आप खाते हैं तो वो कैसरोल में रखा होता है | नाम अंग्रेजी का है, Casserole तो जाहिर है ये भारत का कोई परंपरागत बर्तन तो है नहीं | आया कहाँ से ? जिन्हें भारत में टीवी का शुरुआती दौर याद होगा उन्हें एक प्रसिद्ध पारिवारिक सीरियल भी याद होगा | उसका नाम था ‘बुनियाद’ | रात में जिस वक्त आता था वो टाइम उस दौर में खाना खाने का समय होता था |

उसी सीरियल के बीच में कैसरोल का प्रचार आया करता था | लोग जब खाना खा रहे होते थे रोटी उसी वक्त बनाई जाती थी | अब घर की महिलाएं अगर रोटियां सेक रहीं हों, और पुरुष भी चौके में खाना खा रहे हों, तो टीवी पर ‘बुनियाद’ कैसे देखेंगे ? उसी दौर में कैसरोल का प्रचार आना शुरू हुआ जिसमें कहा जाता था कि रोटियां पहले ही बना के कैसरोल में रख लीजिये | वो गर्म ही रहेंगी तो आप आराम से बैठ कर टीवी देख सकती है | अब कई महिलाएं तो पड़ोसियों के घर टीवी देख रही होती थी, कई जो अपने घर में देख रही होती थीं, उन्हें भी ये आईडिया सही लगा |

इस तरह धीरे से भारत के हर घर में कैसरोल आ गया, और रोटियां पहले से बना के रखी जाने लगी | यकीन ना हो तो मम्मी से पूछिए, नानी के पास था क्या कैसरोल ? अभी कन्फर्म हो जाएगा | खैर तो कैसरोल से जो समस्या आई वो ये थी कि रखी हुई रोटियां थोड़ी काली सी पड़ जाती थी | इसके लिए दूसरा तरीका इस्तेमाल होने लगा | मिल वाले आटे को पहले छलनी से छान कर जो चोकर निकाला जाता था वो परथन में इस्तेमाल होता था | अब मैदे जैसा बारीक आटा मिल से ही छनवा कर इस्तेमाल किया जाने लगा | मक्का, जौ जैसी चीज़ें जो गेहूं के साथ ही मिला कर पिसवाई जाती थी वो भी बंद हो गया | इस तरह दिखने में खूबसूरत लगने वाले आटे का फैशन आया | अस्सी के दशक के सीरियल और प्रचार के असर से पिछले करीब बीस साल लोगों ने लाइफस्टाइल डिजीज को आमंत्रण दिया |

फिर धीरे लोगों को समझ आने लगा कि ये कम उम्र में डायबिटीज, हार्ट की प्रॉब्लम और ब्लड प्रेशर की समस्याएँ है क्या ! ऐसी कई बिमारियों को मिला कर फिर लाइफस्टाइल डिजीज कहा जाने लगा | लोग अब फिर से पंचरत्न आटे और ये मिक्स आटा तो वो मिक्स आटा खरीदने लगे हैं | वो भी आम आटे से कहीं महंगे दामों पर ! आटे का चोकर भी अब उतनी घटिया चीज़ नहीं नहीं होती | देर रात तक ना खाने के बदले, शाम में जल्दी खा लेना भी अब स्टेटस सिंबल है | धीरे धीरे लोगों को समझ आने लगा है कि भारत की सांस्कृतिक परम्पराएँ बेहतर थी | कांग्रेसी युग में कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अपने कम्युनिस्ट चाटुकारों के जरिये जो फैलाया था वो मोह माया ही थी |

भारत का बहुसंख्यक समाज अपनी परम्पराओं में ही इकोसिस्टम को शामिल रखता है | असली मूर्ख वो थे जो परम्पराओं का वैज्ञानिक कारण ढूँढने के बदले उन्हें पोंगापंथ घोषित कर रहे थे | उन्होंने कोई वैज्ञानिक जांच किये बिना ही जिन चीज़ों को सिरे से खारिज़ कर दिया था, उनके बंद होते ही पर्यावरण और शरीर पर उनका असर भी दिखने लगा | तथाकथित प्रगतिशील जमात को अब दिवाली पर वायु-प्रदुषण और होली पर पानी की बर्बादी का रोना रोने के बदले वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत करने चाहिए | गाड़ियों से, फैक्ट्री से, ए.सी. से, फ्रिज से प्रदुषण कितना ? पटाखों-दिए से कितना ? दिए से कीड़े ना मरे तो इकोसिस्टम पर क्या असर होगा ? होली के समय भी बता दीजियेगा | कार धोने से कितना पानी बर्बाद होगा, होली खेलने में कितना ? शेव करने में कितना बहा दिया जाता ? अगर पानी ना छिड़का तो धूल उड़ने से होने वाले प्रदुषण का क्या होगा ?

बाकी अधूरी तो कई साल हम सुन चुके हैं, और माफ़ी तो आप कैराना, डॉ. नारंग, वेमुल्ला जैसे संवेदनशील मामलों में भी नहीं मांगते ! इसमें भी आधा ही बताया होगा, सिर्फ अश्वत्थामा मर गया तक, मनुष्य कि हाथी भी बताते ना ?

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