देश में ‘चुनावी लहर’ बनाकर आंधी के आम इकट्ठे करने की परंपरा ‘नेहरू काल’ में ही आरंभ हो गयी थी। इंदिरा गांधी के शासन काल में यह परंपरा और भी अधिक बढ़ी। इन ‘आंधी के आमों’ का अपना कोई अस्तित्व न होने के कारण ये देश के विधानमंडलों में या देश की संसद में ‘भीगी बिल्ली’ की भांति बैठने लगे। नेहरू काल में तो फिर भी इनका कुछ सम्मान था, इंदिरा गांधी के काल में आंधी के सारे आम नीलामी हेतु एक ही टोकरी में रखे जाने लगे। ये केवल प्रदर्शनी के लिए रखे जाते थे। इनका काम यह कर दिया गया कि तुम्हारी हमें जब आवश्यकता होगी तो हम तुम्हें संकेत (व्हिप) दे देंगे, तब तुम हमारे लिए शोर मचाना, और वह सारे काम करना जिन्हें ‘असंसदीय या अलोकतांत्रिक’ कहा जा सके।
यह बीमारी कांग्रेस की ही हो ऐसा भी नही है, उसने तो इस बीमारी को देश में फैलाया। पर इसे देश के हर राजनीतिक दल ने अपना लिया। न्यूनाधिक सभी दलों की स्थिति लगभग एक जैसी ही हो गयी। परिणामस्वरूप ‘आंधी के आमों’ का मूल्य और भी गिर गया।
इस स्थिति का परिणाम आया देश के विधानमंडलों और संसद के प्रति जनप्रतिनिधियों में अरूचि का भाव उत्पन्न हुआ। उनकी गैर जिम्मेदारी की भावना बढ़ी। जिससे विधानमंडलों में और संसद में ‘आंधी के आमों’ ने जाना ही बंद कर दिया। वह समझ गये या उन्हें समझा दिया गया कि जब तुम्हारी आवश्यकता होगी तब तुम्हें बुला लिया जाएगा, इतने तक यदि आप नही भी आएंगे तो भी चलेगा। यही कारण है कि संसद जैसे लोकतंत्र के मंदिर में भी कोरम का संकट अक्सर खड़ा हो जाता है।
पिछले लोकसभा चुनाव (2014) में भी बहुत से ‘आंधी के आम’ संसद में पहुंच गये थे। तब ‘मोदी लहर’ की आंधी में मतदाताओं के आम के पेड़ को हिलाकर मोदी ने बहुत से आम झटक लिये थे। ‘मोदी कृपा’ से संसद में पहुंची इन ‘भीगी बिल्लियों’ का साहस मोदी से बात करना तो दूर नजरें मिलाने का भी नही होता। मोदी भी हर अपने पूर्ववर्ती की भांति इन सारे आमों को अपनी जेब में लिए घूम रहे हैं। वास्तव में यह स्थित दुखद है। लहर से कोई पार्टी सत्ता में आ सकती है परंतु लहर से अच्छे जनप्रतिनिधि भी देश को मिलेंगे यह आवश्यक नही है। लहर के नशे में चूर पार्टी के सर्वेसर्वा लोग ऐसी स्थिति में अच्छे जनप्रतिनिधि सिद्घ हो चुके लोगों का तो टिकट काट देते हैं, और वे उस समय ऐसे लोगों का ही चयन करते हैं, जो केवल उनके लिए हाथ उठाने वाला ही सिद्घ हो सके।
लोकतंत्र के लिए आवश्यक है योग्य प्रतिनिधियों का संसद में प्रवेश सुनिश्चित कराना। पर लहर इस लोकतांत्रिक मूल्य का अपहरण करके इसका सर्वनाश कर डालती है।
कांग्रेस ने लहरों के सहारे कई बार देश की संसद में भारी बहुमत लिया। पर वह ‘आंधी के आमों’ को नेता नही बना पायी। वे बेचारे हाथ उठाने वाले ही बनकर रह गये। जमीरों को बेचकर संसद पहुंचे और भीतर जाकर रथी बनकर बैठे रहे। इससे देश की इस पुरानी राजनीतिक पार्टी में नेताओं का अकाल पड़ गया। आज यह पार्टी लोकसभा में अपने 44 सांसदों के साथ नेता विहीन है। जो इनके नेता हैं-मि. राहुल गांधी उनके पास ना तो वाणी की साधना है और ना ही कोई तथ्यों की ऐसी अकाट्य कड़ी जो कि सत्तापक्ष की बोलती बंद कर दे। जब देश में नेहरू की तूती बोलती थी तब उनकी बोलती बंद करने के लिए उस समय अटल बिहारी वाजपेयी जैसे युवा नेता उभर रहे थे, जिनके पास वाणी की साधना थी। फलस्वरूप नेहरू को कई बार संसद में उन जैसे प्रखर वक्ताओं ने निरूत्तर किया था।
समय का फेर देखिए कभी सत्ता और बहुमत के नशे में चूर कांग्रेस के नेताओं की बोलती बंद करने के लिए विपक्ष के मुट्ठी भर लोग मर्यादित आचरण करते हुए भी देश के पीएम को घेर लिया करते थे, और आज विपक्ष के रूप में बैठी कांग्रेस के पास ही संसद में नेता नही हैं। बचकानी बातें देश की संसद में हो रही हैं, लोगों का मन अब लोकसभा या राज्यसभा की कार्यवाही देखने तक को भी करता है। लोगों को अपने जनप्रतिनिधियों का आचरण देखकर दुख होता है। देश में अधिकतर लोग ऐसे हैं जिन्होंने लोकसभा की स्पीकर द्वारा कांग्रेस के 25 सांसदों के निलंबन संबंधी आदेश को उचित माना है। देश के लोगों ने इन ‘आंधी के आमों’ को देश के विधायी काम में ‘बाधा’ डालने के लिए नही भेजा था, अपितु आयी हुई बाधाओं को दूर करने के लिए भेजा था। कैसा दुर्भाग्य है देश का कि अब इन जनप्रतिनिधियों को ही ‘बाधा’ मानकर हटा दिया गया है। देश की नैया सचमुच भगवान भरोसे है।
मुख्य संपादक, उगता भारत