सन् १९७६ में दिल्ली में महर्षि दयानन्द सरस्वती प्रणीत ‘सत्यार्थप्रकाश’ ग्रन्थ की शताब्दी मनाई गई । उसमें पधारने वाले वक्ताओं में देश के जाने-माने नेता अटलबिहारी वाजपेयी का नाम भी था । आर्यसमाज के मूर्धन्य संन्यासी स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी (पूर्वाश्रम में प्रिन्सिपल लक्ष्मीदत्त दीक्षित जी) ने उन्हें एक पत्र लिखा और याद दिलाया कि यह शताब्दी और किसी की नहीं अपितु स्वामी दयानन्द जी द्वारा लिखित ‘सत्यार्थप्रकाश’ की है जिसे उन्होंने आज से सौ वर्ष पहले (१८७५ ई० में) लिखा था । उन्होंने अपने पत्र में लिखा –
“जब आप इस अवसर पर बोलने के लिए खड़े होंगे तो निश्चय ही ‘जिसका ब्याह उसके गीत’ के अनुसार सत्यार्थप्रकाश के गीत गाएंगे । उसका एक पूरा समुल्लास (प्रकरण) खान-पान के सम्बन्ध में है । मैंने सुना है कि आप मांस-मदिरा का खूब सेवन करते हैं । इसलिए या तो आप उत्सव में आएं नहीं, आएं तो इन व्यसनों का परित्याग करके आएं । अथवा खड़े होते ही यह घोषणा करें कि आज तक मेरे अन्दर ये दोष थे, आज इस पवित्र अवसर पर मैं इसका परित्याग करता हूं । और यदि जो कुछ मैंने सुना है, वह असत्य है तो मैं आपसे पहले ही क्षमा मांग लेता हूं ।”
श्री वाजपेयी उस उत्सव में नहीं आए । हां, उनका एक पत्र स्वामी जी को अवश्य मिला । लिखा था –
“आपका कृपा पत्र मिला । बहुत-बहुत धन्यवाद ।”
आज ऐसे कितने लोग हैं, जिनकी धमनियों में इतनी स्पष्टवादिता और सत्य का रक्त प्रवाहित है !
[सन्दर्भ ग्रन्थ : स्वामी विद्यानन्द सरस्वती अभिनंदन ग्रन्थ, पृष्ठ १०-११, सम्पादक : डॉ० रघुवीर वेदालंकार, १९९५ संस्करण, प्रस्तुति : भावेश मेरजा]