कलाम से प्रेम याकूब से घृणा – भारत के दो रूप

प्रवीण गुगनानी

गत सप्ताह की दो घटनाओं से भारत के दो सशक्त रूप देखनें को मिले। एक घटना घृणा, विद्रूपता के रूप में आई तो दूसरी में सम्पूर्ण भारत सृजन, निष्ठा और प्रेम को वंदन करता दिखा। इन दो घटनाओं को संयोग कतई नहीं कहा जा सकता, क्योंकि एक घटना में भारत के प्रिय पुत्र, पूर्व राष्ट्रपति, भारत रत्न अब्दुल कलाम स्वर्ग सिधार गए और दूजी में दुर्योग से भारत में जन्मे याकूब मेमन को अंतत: फांसी पर टांग दिया गया। भारत के मुस्लिम समाज के इन दोनों चेहरों की तुलना का दुस्साहस कोई भी नहीं कर सकता क्योंकि एक ओर महान सपूत, रक्षा वैज्ञानिक किन्तु मानवतावादी कलाम साहब का नाम है तो दूजी ओर शैतानी प्रवृत्ति, दुष्ट बुद्धि, याकूब मेमन का नाम आता है। दोनों नामों को एक साथ लेना भी कलाम साहब के प्रति धृष्टता है, किन्तु क्षमा पूर्वक इस धृष्टता को इसलिए करना पड़ रहा क्योंकि ये घटना दुर्घटना भारत के प्रति प्रकृति का रचा कोई संकेतक या देवयोग जैसा लगता है। पूरे देश के चप्पे चप्पे में और प्रत्येक आयु, वर्ग, समाज द्वारा कलाम साहब को दी गई अश्रुपूरित विदाई एक इतिहास बना गई!! इसके विपरीत याकूब से और उसके साथ खड़े तथाकथित सेकुलरों और बुद्धिजीवियों को जिस प्रकार राष्ट्रीय आलोचना का सामना करना पड़ा वह भी नूतन अनुभव था! पिछले कुछ दशकों में भारत राष्ट्र में जिस प्रकार हिन्दू व मुस्लिम समाज में भेद बढ़ा है और मत भिन्नता प्रकट, प्रदर्शित हुई है वह चिंतनीय है। यह मत भिन्नता कई अवसरों पर मुस्लिम समाज द्वारा दंगे, फसाद, आगजनी, बम विस्फोटो, सामूहिक हत्याकांड, आतंकवादी घटनाओं, यात्रियों से भरे रेल डिब्बों को बर्बरता से जला देने आदि-आदि के रूप में प्रकट होती रही है।

समाज और साहित्य में सदैव कुछ शब्द समय-काल-परिस्थिति के अनुसार अपनें अर्थों को बदलते रहते हैं। परिस्थितियों का यथार्थ आकलन करें तो दुखपूर्वक यह कहनें का दुस्साहस करना पड़ेगा कि आतंकवाद नामक शब्द, मुस्लिम समाज से स्वभावत: जुड़ा और जनित हुआ शब्द लगनें लगा है। मुस्लिम समाज के प्रति चिंता का भाव इस राष्ट्र का सदैव रहा है। भारत की जनता मुस्लिमों को साथ चलनें और समाज में समरस हो जानें के पर्याप्त अवसर बहुधा उपलब्ध कराती रहती है। मुस्लिम समाज का बड़ा तबका हिन्दू समाज के इन प्रयासों का प्रशंसक भी रहा है और अनुगामी भी हुआ है। आज भी देश का अधिकाँश मुस्लिम इन आतंकवादी, अतिवादी, अलगाववादी मुस्लिमों के प्रति घृणा, क्रोध और पराये होनें का ही भाव रखता है। यह तथ्य ही आज का सर्वाधिक बड़ा चिंतनीय तथ्य है कि मुस्लिम समाज के एक बड़े वर्ग के शांतिपूर्वक रहनें और विकास करनें की चिंता को और इस देश द्वारा उन्हें सतत विकास हेतु दिए जा रहे अवसरों को ये चंद अलगाव वादी और आतंकवादी मुसलमान तत्व समाप्त किये दे रहे हैं, इससे वे देश समाज में मुस्लिम की स्थिति एक अलग विलग टापू की भांति बना रहे है। भारतीय समाज में शनै: शनै: फ़ैल गए परस्पर घृणा, क्रोध और विद्वेष के भाव इन जैसे याकूबों की ही देन है। अब इन याकूबों की पहचान और इनका उन्मूलन यदि मुस्लिम समाज स्वयं भी करता चले तो निश्चित ही समयानूकूल प्रयास भी होगा और इसका शेष राष्ट्र द्वारा स्वागत भी होगा। यह आवश्यक है कि मुस्लिम समाज का बड़ा हिस्सा इन आतंकवादी तत्वों की मुखर आलोचना, भत्र्सना और बहिष्कार करे ताकि आतंकवाद शब्द के साथ जुड़ गया मुस्लिम शब्द कम से कम भारत में अलग हो सके।

दो उदाहरण ध्यान में आतें हैं जो एक ही प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं और इसकी चिंता, मनन और उन्मूलन का आग्रह मुस्लिम समाज से है। उदा।1।याकूब – मुंबई जैसे साधन संपन्न, सुसंस्कृत और वैश्विक चरित्र वाले नगर में एक मध्यम परिवार में जन्मा। धार्मिक विषयों में यह नगर सौहादर््और सभी को सम्मान के भाव, को मुखर रूप से उद्घोषित करता रहा है। मुंबई में जन्मे याकूब को केवल रोटी, कपड़ा और मकान ही नहीं अपितु सम्मान पूर्वक शिक्षा, रोजगार आदि के सभी मौलिक अधिकार सम्मान पूर्वक मिले। याकूब चार्टर्ड एकाउंटेंट जैसे अति सम्मानजनक और समृद्ध पेशे में आया और उसनें इस पेशे से धन, साधन, प्रतिष्ठा सभी कुछ अर्जित किया, किन्तु इन सब का राष्ट्र हित हेतु क्या प्रयोग हुआ? यह प्रश्न ज्वलंत है कि एक चार्टर्ड एकाउंटेंट के मानस में अपनें मुस्लिम समाज में सुधार लानें, उसे अपलिफ्ट करनें या राष्ट्र हित में कोई सामाजिक प्रयोग करनें के स्थान पर एक बहुत बड़ी आतंकवादी घटना करनें का विचार क्यों आया ? यह सामाजिक प्रश्न और यह विश्लेषण आज समय की आवश्यकता है। बहुधा यह कहा जाता है कि मुस्लिम समाज अशिक्षा और निर्धनता के कारण ही आतंकवादी घटनाओं में संलिप्त होता है; बहुत से उदाहरणों से, अब यह विचार खारिज हो गया है। याकूब सहित बहुत से ऐसे अन्य शिक्षित और साधन संपन्न मुस्स्लिम आतंकवादियों का नाम सामनें आना यह सिद्ध करता हैं कि पहले विभिन्न आतंकी संगठनों का और अब आई एस का चलन शिक्षित और धनी मुस्लिमों में ही कट्टरता भरनें का काम प्रमुखता से कर रहा है।

दूसरी घटना है – दिल्ली के शाही इमाम द्वारा अपनें पुत्र की दस्तारबंदी (उत्तराधिकारी घोषित करनें) के कार्यक्रम में सार्वजनिक तौर पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित किया जाना किंतु अपनें ही देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री को आमंत्रित नहीं करना और इसका सगर्व उल्लेख भी करना! निस्संदेह शाही इमाम का यह दुष्कृत्य बहुसंख्यक समाज को चिढ़ाने और खीझ उत्पन्न करनें का प्रयास ही था। सभी को स्मरण होगा कि देश में तीस वर्षों पश्चात कोई प्रधानमंत्री स्पष्ट बहुमत वाले दल से चुन कर आया है, यह स्मरण मुस्लिम समाज के तथाकथित पैरोकार, नेता और प्रतिनिधित्व का दावा करनें वाले शाही इमाम को भी होना चाहिए था!! आशय यह कि कट्टरता और अलगाववादी मुस्लिम नेताओं द्वारा अनेक तथ्यों को दुराशय पूर्वक और जानबूझकर अनदेखा कर भूलनें की आदत का खामियाजा सामान्य मुस्लिम वर्ग को भुगतना पड़ता है। मुस्लिम समाज स्वयं को समर्पण, समानता, परस्पर प्रेम और संतोष जैसे गुणों का धनी समाज मानता है। मुस्लिम धर्मग्रंथों में मादरे वतन से मोहब्बत के लिए कई कई नजीरें दी गई हैं, किन्तु ऐसी विध्वंसक प्रतिनिधि घटनाओं के कारण वातावरण इससे सर्वथा भिन्न दिखाई दे रहा है।

इस्लाम के नाम पर भारत सहित पुरे विश्व में जिस प्रकार की बर्बर हत्याएं हो रही हैं उससे मध्य युगीन पाशविकता का ध्यान आता है। आतंकवाद, क़त्ल, बम विस्फोट, वहशी-बर्बर-राक्षसी प्रकार का खून खराबा और उसकी वीडियो यु ट्यूब पर अपलोड करना जैसे गौरवशाली शगल बन गया है।

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