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भारत का वास्तविक राष्ट्रपिता कौन ? श्रीराम या ……. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा श्रीराम, अध्याय – 4 दिए गए वचन को पूरा करो


दिए गए वचन को पूरा करो

रामचंद्र जी के बारे में हरिओम पवार जी की कविता की ये पंक्तियां बड़ी सार्थक हैं :-
“राम हमारे गौरव के प्रतिमान हैं,
राम हमारे भारत की पहचान हैं,
राम हमारे घट-घट के भगवान हैं,
राम हमारी पूजा हैं अरमान हैं,
राम हमारे अंतरमन के प्राण हैं,
मंदिर-मस्जिद पूजा के सामान हैं,

राम दवा हैं रोग नहीं हैं सुन लेना,
राम त्याग हैं भोग नहीं हैं सुन लेना,
राम दया हैं क्रोध नहीं हैं जग वालों,
राम सत्य हैं शोध नहीं हैं जग वालों,
राम हुआ है नाम लोकहितकारी का
रावण से लड़ने वाली खुद्दारी का।”

जब सीता जी ने रामचंद्र जी को धनुष बाण इसलिए धारण करने का उपदेश दिया कि किसी दुखिया का आर्त्तनाद सुनाई ना दे। उन्होंने निरपराध जीवों की हिंसा न करने और वन में शस्त्र द्वारा राक्षसों के वध का विचार त्याग देने का दोहरा या द्विअर्थी उपदेश भी दिया तो सीता जी के उस उपदेश को सुनकर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम ने बड़े विनम्र शब्दों में कहा कि :-” सीते ! तुम स्वयं धर्म के मर्म को जानने वाली हो । तुमने मेरे लिए जो भी बातें कहीं हैं वह सभी तुम्हारे कहने योग्य हैं।” रामचंद्र जी ने सीता जी के लिए यह नहीं कहा कि तुमने जो कुछ कहा है वह सब धर्मानुकूल है या मेरे द्वारा मानने योग्य भी है। उन्होंने नारी के सहज स्वभाव का सम्मान करते हुए और यह भी जानते हुए कि सीता जी पति – प्रेमवश उन्हें अपने धर्म से इतर कार्य करने के लिए प्रेरित कर रही हैं , ऐसा कहा कि जो कुछ तुमने कहा है वह तुम्हारे कहने योग्य है। रामचंद्र जी ने सीता जी के भाव और शब्दों दोनों का सम्मान किया, परंतु उन्हें यह वचन नहीं दिया कि जो कुछ तुमने कहा है उसे मैं भी स्वीकार कर लूंगा और वन में रहते हुए कभी किसी राक्षस का वध नहीं करूंगा।
रामचंद्र जी ने कहा कि मैं तुम्हारे इन शब्दों को सुन चुका हूं कि क्षत्रिय लोग धनुष बाण इसलिए धारण करते हैं जिससे किसी दुखिया का आर्त्तनाद सुनाई ना पड़े। तुम्हें यह भी स्मरण होगा कि जंगल में किस प्रकार अनेकों तपस्वियों ने आकर मुझसे अपनी प्राण रक्षा करने की अपील की थी। इतना ही नहीं, उन्होंने राक्षसों के द्वारा अब तक मारे गए अनेकों तपस्वियों के कंकाल भी मुझे दिखाए थे। इन लोगों ने मुझसे कहा था कि इस जंगल में आप ही हमारे रक्षक हैं, इसलिए हम सबकी रक्षा कीजिए। इन सभी तपस्वियों ने मुझसे अपनी वार्ता के आरंभ में ही स्पष्ट कर दिया था कि हम सभी शरणागत होकर याचना करने के लिए आपके पास आए हैं। उनके इन शब्दों से यह स्पष्ट था कि मुझे शरणागत आए तपस्वी ऋषियों की बात को न केवल सुनना था अपितु उनके प्रति पूर्ण सहानुभूति रखते हुए उनकी समस्या और कष्ट का समाधान भी करना था।
रामचंद्र जी ने अपने वार्तालाप में सीता जी को बताया कि किस प्रकार क्षत्रिय लोग ब्राह्मण वर्ण सहित समाज के सभी लोगों की रक्षा करने का दायित्व संभालते हैं ? यदि क्षत्रिय लोग अपने इस धर्म के पालन में किसी प्रकार का प्रमाद या आलस्य या असावधानी बरतते हैं तो उन्हें इसका पाप लगता है। क्षत्रियों के लिए यह उचित है कि यदि उनके लिए कोई चुनौती सामने खड़ी हो तो वह उससे पीठ फेरकर नहीं जा सकते। क्योंकि क्षत्रिय धर्म की मर्यादा यही है कि उपस्थित चुनौती का सामना वीरता के साथ किया जाए। इसलिए मैंने भी उन सभी ऋषियों के जीवन की रक्षा करने का संकल्प लिया। शरणागत की रक्षा करना हमारी खानदानी परंपरा है । जिसे मुझे निर्वाह करना ही चाहिए। हर स्थिति में मेरा धर्म है कि मैं अपने पूर्वजों की परंपरा का यथासंभव निर्वाह करता रहूं। तुम्हारे वचन मेरे लिए अनुकूल होते हुए भी इसलिए मननीय नहीं हैं कि उनसे रघुकुल की परंपरा को ठेस लगना संभावित है।
दंडकारण्य में रहने वाले सभी ऋषियों के जीवन की रक्षा करने का व्रत मैंने धारण कर लिया है और अब मैं अपने वचन से लौट नहीं सकता। क्योंकि मैंने सभी ऋषियों को सार्वजनिक रूप से यह वचन दिया है कि आपकी रक्षा करना मेरा धर्म होगा । आप निश्चिंत होकर अपने पवित्र कार्यों को करते रहें। जिससे सृष्टि का कल्याण होता रहे और वैदिक धर्म की परंपरा यथासंभव स्थापित रहे। रामचंद्र जी के लिए ऐसा करना इसलिए भी आवश्यक था कि वह संसार में मर्यादा पथ को स्थापित करना चाहते थे। मर्यादाओं को तोड़ने वाले लोगों को उन्होंने स्वाभाविक रूप से अपना शत्रु माना। अतः सीता जी का उपदेश उन्हें स्वीकार हो ही नहीं सकता था। उन्होंने सीता जी से यह स्पष्ट कर दिया कि मैंने ऋषियों के समक्ष जो प्रतिज्ञा की है या उन्हें जो वचन दिया है, उससे मैं अब अन्यथा नहीं जा सकता। क्योंकि सत्य मुझे सदा प्रिय रहा है । रघुकुल की परंपरा है कि दिए हुए वचन से लौटना नहीं चाहिए । चाहे प्राण भी चले जाएं तो भी अपने वचन की रक्षा करनी चाहिए। मैं प्राण त्याग कर सकता हूं ,लक्ष्मण सहित तुम्हें छोड़ सकता हूं, परंतु अपने दिए गए वचन को या ली गई प्रतिज्ञा को और विशेषकर उस प्रतिज्ञा को जो ब्राह्मणों के समक्ष की है ,मैं कभी भी छोड़ नहीं सकता।
रामचंद्र जी जैसे दिव्य पुरुषों के द्वारा मर्यादा पथ का पालन किया गया। इन जैसे आप्त पुरुषों का अनुकरण करके देश के आम आदमी ने भारतीय संस्कृति और संस्कारों का निर्माण किया अर्थात उन्हें अपने जीवन में उतारा। यही कारण रहा कि मुसलमानों और यूरोपियन जातियों के भारत पर आक्रमण करने के समय तक भी भारत में अधिकांश लोग वचन के पक्के हुआ करते थे। वह कभी भी अपने जीवन व्यवहार में असत्य का सहारा नहीं लिया करते थे। एक दूसरे की चुगली करना या एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए झूठ बोलना उन्हें कतई स्वीकार नहीं था। यहां तक कि आजादी के बाद भी ऐसी पीढ़ी देर तक जीवित रही जो दिए गए वचन का पालन करना अपना धर्म मानती थी । विदेशी विद्वानों ने भारत की इन अच्छी परंपराओं का मुक्त कंठ से गुणगान किया है।
लाखों वर्ष पहले हुए रामचंद्र जी के पुण्य प्रताप का ही यह परिणाम था कि देश के लोगों ने उन्हें अपना आदर्श स्वीकार कर उनके चरित्र की पूजा की । जब लोगों ने चित्र की पूजा करनी आरंभ कर दी और उनके चरित्र को विस्मरण कर दिया तो स्थिति विपरीत हो गई। वास्तव में किसी महान पुरुष के चरित्र के गुणों को अंगीकार कर लेना ही उसकी पूजा है । भारत ने इसी प्रकार की पूजा को अपनाया।
रामचंद्र जी ने जहां सीता जी से यह स्पष्ट कह दिया कि चाहे मुझे तुम्हें छोड़ना पड़ जाए, चाहे लक्ष्मण को भी छोड़ना पड़ जाए तो भी मैं वचन हार नहीं होने दूंगा, वहीं यह भी कह दिया कि ऋषियों की पवित्रता को स्थापित किए रखने के लिए तो मुझे उनके कहे बिना भी उनके जीवन की रक्षा करने का संकल्प लेना चाहिए। स्पष्ट है कि ऐसा रामचंद्र जी ने केवल इसलिए कहा कि ऋषि लोगों की रक्षा करने से ही वैदिक संस्कृति की रक्षा होना संभव है। यदि सुसंस्कृत और तपस्वी लोग समाज में या राष्ट्र में नहीं रहेंगे तो समाज व राष्ट्र दुर्गति को प्राप्त हो जाएंगे। रामचंद्र जी के कहने का अर्थ है कि मैं तो ऋषियों की जीवन रक्षा उनके बिना कहे भी करने को तैयार हूं ,परंतु यहां तो स्थिति दूसरी है , तपस्वियों ने स्वयं आकर मेरे समक्ष यह याचना की है कि मैं उनके जीवन की रक्षा करूं। उनकी याचना को स्वीकार करते हुए मैंने ऐसा करने की प्रतिज्ञा भी ले ली है तो तुम्हारे उपदेशों को मैं भला कैसे स्वीकार कर सकता हूं ?
रामचंद्र जी ने कहा कि मैं यह भली प्रकार जानता हूं कि तुमने जो भी उपदेश मुझे दिया है वह अपनी पवित्र आत्मा से दिया है और मेरे भले में दिया है। क्योंकि अप्रिय लोगों को कभी कोई व्यक्ति उपदेश नहीं किया करता। तुमने मेरे प्रति अपने प्रेम और वंश की मर्यादा के अनुकूल ही मुझसे कहा है अर्थात मुझे उचित उपदेश दिया है। मैं भी तुम्हें यह बताता हूं कि तुम मेरी सहधर्मिणी होने के नाते मुझे अत्यंत प्रिय हो, ऐसी स्थिति में तुम्हें मुझे उपदेश देने का अधिकार भी है। यद्यपि इस अधिकार की अपनी सीमाएं हैं।
इसके बाद श्री राम सीता जी और लक्ष्मण सहित धनुष लेकर उस रमणीय तपोवन में आगे चले गए। कुछ दूर जाने के बाद उन्होंने एक आश्रम देखा। जिसमें कुशा और चीर फैले हुए थे। जिससे स्पष्ट हो रहा था कि वह ब्राह्मण लोगों का निवास था । जो कि अलौकिक शोभा से परिपूर्ण था। श्री राम जी ने लक्ष्मण और सीता सहित वह रात्रि उसी आश्रम में व्यतीत की। सभी आश्रमवासी मुनियों ने श्री राम जी का आत्मीय सत्कार किया।
इसके बाद श्री राम अनेकों मुनियों के आश्रमों में रहे । कहीं उन्होंने 10 मास निवास किया तो कहीं वर्षभर तक टिके रहे। इस प्रकार के प्रवास से जहां मुनिजनों को सुरक्षा की अनुभूति होती थी वही राक्षसों के लिए भी यह संदेश जाता था कि उनका संहार करने वाले श्री राम किसी भी आश्रम में हो सकते हैं। इसलिए वे किसी मुनि के आश्रम पर हमला करने से पहले 10 बार सोचते थे। कुल मिलाकर इस प्रकार के प्रवास भी रामचंद्र जी के उसी संकल्प की ओर संकेत करते हैं जो उन्होंने तपस्वी लोगों की प्राण रक्षा के लिए लिया था। वह चुनौती को स्वीकार तो कर ही चुके थे, अब तो वह चुनौती से खेलने के लिए मैदान में भी उतर चुके थे। उनके जीवन के इस चिंतन और चरित्र को समझने की आवश्यकता है।
प्रवासियों के उस काल में रामचंद्र जी ने एक बार फिर सुतीक्ष्ण जी के आश्रम के लिए प्रस्थान किया और वहां पर कुछ समय तक निवास किया।
एक दिन उन्होंने महर्षि अगस्त्य के विषय में सुतीक्ष्ण जी से पूछा कि उनका आश्रम कहां है तो सुतीक्ष्ण जी ने उन्हें महर्षि अगस्त्य के आश्रम का ठिकाना बता दिया।
अगस्त्य शब्द के अर्थ के बारे में विद्वानों का कहना है कि यह अगस अर्थात दोषों को नष्ट करने वाला, लोगों की आधि – व्याधियों को दूर करने वाला होता है।
रामचंद्र जी ने मार्ग में ही लक्ष्मण को यह स्पष्ट कर दिया कि अब हम अपना शेष समय महर्षि अगस्त्य के आश्रम में ही व्यतीत करेंगे।
महर्षि अगस्त्य के आश्रम में पहुंचने के उपरांत भी श्रीराम, लक्ष्मण और सीता का वैसा ही भव्य स्वागत सत्कार किया गया जैसा अभी तक के अन्य ऋषियों के आश्रमों में होता आ रहा था । महर्षि अगस्त्य ने भी रामचंद्र जी से स्पष्ट शब्दों में कहा कि “आप तो भूमंडल के राजा ,धर्मशील और महारथी हैं तथा विशिष्ट और प्रिय अतिथि के रूप में मेरे यहां आए हैं।”
महर्षि अगस्त्य के इस कथन से भी यह सिद्ध होता है कि रामचंद्र जी के वनवासी होने के उपरांत भी ऋषि मंडल ने वनवासी सन्यासी की संज्ञा नहीं दी थी। वे उन्हें राजा ही मानते रहे और स्वयं रामचंद्र जी भी स्वयं को राजा ही कहलवाते रहे।
महर्षि अगस्त्य भली-भांति यह जानते थे कि रामचंद्र जी वन में आ तो गए हैं परंतु यहां पर उन्हें जिस प्रकार राक्षस संहार करना है उसके लिए उन्हें अनेकों दिव्य अस्त्रों की आवश्यकता है। यही कारण था कि उन्होंने श्री राम को अनेकों दिव्य अस्त्र प्रदान किए।
महर्षि ने दिव्य अस्त्र प्रदान करते हुए श्री रामचंद्र जी से कहा कि विश्वकर्मा द्वारा निर्मित स्वर्ण और रत्नों से विभूषित यह दिव्य तथा विशाल वैष्णव नामक धनुष्य है।
उन्होंने सूर्य के समान देदीप्यमान और अमोघ (जो कभी खाली न जाए ) बाण भी श्री रामचंद्र जी को दिया । जो कि ऋषि अगस्त को ब्रह्मा जी ने दिया था। ऋषि ने श्रीराम को बताया कि यह बाण इंद्र द्वारा प्रदत्त है। जिनके बाण कभी समाप्त नहीं होते । इन तरकशों में अग्नि के समान ज्वाला वमन करने वाले तीव्र बाण भरे हुए रहते हैं। यह स्वर्ण से विभूषित तलवार है। जिसका म्यान भी सोने का बना हुआ है। हे सम्मान योग्य राम ! इस धनुष , तरकश, बाण तथा तलवार को संग्राम में अपनी विजय के लिए ऐसे ही धारण करो जैसे इंद्र ने वज्र को धारण किया था।”
महर्षि अगस्त के इस प्रकार के वचनों से स्पष्ट होता है कि वह श्रीराम में एक ऐसा व्यक्तित्व देख रहे थे जो राक्षसों का संहार करने में सक्षम है। इस प्रकार की परिस्थितियों और उनसे जन्मे साक्ष्य यह स्पष्ट करते हैं कि संपूर्ण भूमंडल को राक्षस मुक्त करने का संकल्प श्रीराम और उनके समकालीन ऋषि लोग ले रहे थे। सबका लक्ष्य एक था कि एक ऐसी विशाल क्रांति हो जो सारी व्यवस्था को परिवर्तित कर दे। उन सबका एक सांझा सपना था कि यह क्रांति संसार में राक्षसी शक्तियों की प्रबलता को समाप्त कर सज्जन शक्ति के हाथों में शासन सत्ता का सूत्र प्रदान कर दे।
वास्तव में श्री रामचंद्र जी भी अपने आपको उस क्रांति के एक महानायक के रूप में स्थापित करते जा रहे थे। उन्हें परलोक सुधारने या मुक्ति प्राप्त करने की इच्छा ना होकर संसार में रह रहे लोगों की मुक्ति में कहीं अधिक आनंद अनुभव हो रहा था । उसके लिए वह अपने सभी सुखों को त्यागने के लिए तैयार थे। ऋषियों ने भी उनके अंदर क्रांति के एक महानायक के दर्शन कर लिए थे। यही कारण था कि वे उन्हें हथियारों की ऐसी ऐसी गुप्त विद्या प्रदान कर रहे थे जो राक्षस संहार में विशेष रूप से काम आने वाली थी।
रामचंद्र जी के विषय में हमें यह समझना चाहिए कि वह आत्म कल्याण के लिए किन्हीं कन्दराओं की खोज नहीं कर रहे थे। इसके विपरीत वे चुने हुए उन ऋषियों से मिल रहे थे जो भावी क्रांति में उनके किसी न किसी प्रकार से सहयोगी बन सकते थे। उन्होंने अपनी प्रजा के कल्याण को और उस समय प्रत्येक जीवधारी के कल्याण को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया । वह चाहते तो उन 14 वर्षों को वन में कहीं छुप कर भी गुजार सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। उस समय ऋषियों ने भी समय को पहचान कर श्रीराम को दिव्य अस्त्र प्रदान करने में तनिक भी देर नहीं लगाई। ऋषियों के द्वारा दिए जा रहे ऐसे अस्त्र शस्त्रों के पीछे के भाव को भी समझना चाहिए। इसका भाव न केवल राक्षस लोगों का संहार करवाना ही था बल्कि एक से बढ़कर एक उत्तम अस्त्र शस्त्र के देने का अभिप्राय यह था कि ऋषि लोग यह भली प्रकार जानते थे कि भविष्य में सजने वाले युद्ध क्षेत्र में श्रीराम का सामना रावण जैसे राक्षस से होगा, जो अत्यंत घातक अस्त्र-शस्त्र अपने पास रखता है। वन में रहते हुए श्री राम ने मानो संसार को यह संकेत और संदेश बड़े स्पष्ट शब्दों में दे दिया था :-

“संदेश यहां मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।”

यह कितनी बड़ी बात है कि श्रीराम ने 14 वर्ष के अपने उस वनवासी काल को दिव्य शक्तियों का आशीर्वाद लेने और उनके दिव्य अस्त्र ग्रहण करने में लगाया । उन्होंने एक मिनट भी व्यर्थ खोना उचित नहीं माना। वास्तव में उनका यह वनवासी काल क्रांति की तैयारी करने के लिए ही संभवत: उन्हें मिला था। यही कारण था कि उन्हें जब महर्षि अगस्त्य ने अपने दिव्य अस्त्र प्रदान किए तो श्रीराम ने उन हथियारों को लेने में तनिक भी संकोच नहीं किया, अपितु बड़ी सहृदयता से उन्हें ग्रहण किया और ऋषि के प्रति अनुग्रहित हृदय से धन्यवाद भी ज्ञापित किया। संपूर्ण आर्यावर्त राष्ट्र को राक्षस मुक्त करने के लिए श्रीराम को ऋषि अगस्त्य द्वारा प्रदान किए गए इन दिव्यास्त्रों से बहुत बड़ी शक्ति प्राप्त हो गई।
श्री राम राक्षस जाति के लिए एक वनवासी मात्र थे। रामचंद्र जी वनवासी सन्यासी के जिन कपड़ों में रह रहे थे उससे किसी को भी यह संदेह नहीं हो पाया कि श्री राम जी भविष्य की कितनी बड़ी क्रांति की भूमिका तैयार कर रहे हैं ? यह कितना बड़ा और कौतूहल भरा संयोग है कि श्री रामचंद्र जी के इसी आदर्श जीवन का अनुकरण करते हुए कालांतर में महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, सुभाष चंद्र बोस, सावरकर और उन जैसे अन्य अनेक वीर क्रांतिकारियों ने क्रांति के लिए ऐसी ही विपदाएं झेलीं जैसी श्री रामचंद्र जी ने अपने समय में झेली थीं। जैसे राष्ट्र उस समय शस्त्र और शास्त्र से संरक्षित हो पाया था वैसे ही कालांतर में अंग्रेजों से भी शस्त्र और शास्त्र के इसी समन्वय ने भारत को आजाद कराया।
इससे हमें पता चलता है कि भारत की सांस्कृतिक चेतना के मूल में श्री रामचंद्र जी के 14 वर्ष के वनवास काल की तपस्या बड़ी गहराई से बैठी हुई है। किसी भी राष्ट्र की संस्कृति और संस्कार उसके महान पूर्वजों के बलिदान तप, त्याग और तपस्या से ही बना करते हैं।
जब हम यह कहते हैं कि भारत की संस्कृति ऋषि और कृषि की संस्कृति है तो इसका अभिप्राय है कि भारत की संस्कृति के मूल संस्कारों में ऋषि पूर्वजों की तप, त्याग, साधना और उनके द्वारा बनाई गई जीवनशैली प्रमुखता से बनी हुई है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का जीवन भी किसी ऋषि से कम नहीं था। जिन्होंने इस ऋषि संस्कृति की रक्षा की और उसके लिए कठोर तप, त्याग और साधना की। उनके लिए कवि के ये शब्द बड़े सार्थक हैं :-

मैं मनुष्यता को सुरत्व की जननी भी कह सकता हूं।

किंतु पतित को पशु कहना भी कभी नहीं सह सकता हूं।।

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

  • डॉ राकेश कुमार आर्य
    संपादक : उगता भारत एवं
    राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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