मनुष्य काम घृणा के और बातें प्रेम की करता है, नफ रत के बीज बोकर प्रेम की फ सल काटने के सपने संजोता है, अपनी चिंतन शक्ति की बड़ी उर्जा को नकारात्मक बातों में व्यय करता है और बातें अपनी उर्जा को सकारात्मक चिंतन के व्यापार-विस्तार में लगाने की करता है। यह द्वन्द्व है। एक लड़ाई है। बुराई और भलाई के बीच चलने वाला युद्घ है। देवता और राक्षसों के मध्य चलने वाला सनातन युद्घ है। सकारात्मक चिंतन में लगे सभी लोग दुनिया में देवता होते हैं। ये लोग प्रकृति के अनुसार, उसके नियमों के अनुसार चलते हैं, और दुनिया को इसी प्रकार चलने की सीख देते हैं जबकि नकारात्मक चिंतन में लगे लोगों की सृजनशील शक्ति विनाश की बातें सोचती है। इसलिए वह राक्षस कहलाते हैं। इनकी राक्षसवृत्ति का देवताओं की देवतावृत्ति से सदा छत्तीस का आंकड़ा रहा है। मनुष्य के अंत:करण पर जन्म जन्मांतरों के संस्कार अंकित होते हैं। इन संस्कारों में सद्वृत्तियों एवम् दुष्टप्रवृत्तियों दोनों का संयोग होता है। इसलिए हमारे भीतर कभी बड़े उंचे और सुंदर भाव उठते हैं। ऐसे सुंदर कि उनकी भीनी-भीनी बरसात में मन का मोर नाच उठता है, घृणा की गरमी से तपता हमारा हृदय प्रेम की हरी भरी फ सल से लहलहा उठता है तो कभी इसी अंत:करण पर व्याप्त कुसंस्कारों के कारण हमारे भीतर ऐसे घृणित भाव उठते हैं कि हम स्वयं पर भी लज्जा अनुभव करने लगते हैं। …आपके घृणित व्यवहार से आपका तप भंग हुआ। …आपके किसी अपने का दिल टूट गया। …आपके समाज में अंक कम हो गये। आपको इन बातों की अनुभूति हुई तो आपने अपने ही व्यवहार को कोसा। आप अपने व्यवहार में अपने चेहरे को देखकर ही छटपटा गये। प्रायश्चित करने लगे। इसीलिए किसी विद्वान ने कहा है कि व्रफोध् सदा मूर्खता से प्रारंभ होता है और प्रायश्चित करने पर समाप्त होता है। प्रायश्चित करते आपके हृदय ने आपको बता दिया कि मैंने अपने द्वारा अपने शुद्घ पवित्र व्यवहार और साधना से जो भवन बनाया था वह मैंने ही ढहा दिया है। आपको पता चल गया कि चाणक्य के इस कथन का क्या अर्थ है कि जिसके पास क्रोध हो उससे शत्रुता करने की आवश्यकता नहीं है अपितु जिसके पास क्रोध हो उससे शत्रुता करने की आवश्यकता नहीं है अपितु जिसके पास क्रोध हो उससे शत्रुता करने की आवश्यकता नहीं है अपितु उसके लिए उसका क्रोध ही काफी है। उसको वही डस लेगा। क्रोध के इस शत्रु से बचने के लिए हमें देखना चाहिए कि हमारे चित्त पर किसी के प्रति घृणा के भाव तो नहीं है। अनावश्यक उसकी निष्ठा पर संदेह करने की हमारी आदत तो नहीं है। हम उसके नकारात्मक बिंदुओं का ही चयन करने में तो नहीं लगे हैं। सामान्यत: मनुष्य गलती यही करता है कि वह किसी के प्रति इन तीनों बातों पर विचार ही नहीं करता है। यह सच है कि जिसके प्रति हमारे भीतर घृणा का तनिक-सा भी अंश होगा उसके प्रति समझ लो कि आपके चित्त रूपी चाँद पर काला दाग लगा हुआ है जो आपके व्यक्तित्व की शोभा को आभाहीन कर रहा है। आपके विचारों का पतन कर रहा है। क्योंकि यह घृणा का भाव आपमें अहंकार की उत्पत्ति करता है जिससे आप स्वयं को ‘बड़ा’ और ‘बढिय़ा’ मानने लगते हो। इसी चिंतन के कारण चलता है दूसरों के भीतर नकारात्मक बिन्दुओं को खोजने का सिलसिला। जिससे हम स्वयं की बड़ाई और दूसरों के दोष ढूँढऩे लगते हैं। फ लस्वरूप अच्छे लोग हमसे किनारा करने लगते हैं। इसलिए हमको चाहिए कि हम दूसरों में अच्छे गुणों को देखने और खोजने की प्रवृत्ति विकसित करें इससे दूसरों की आलोचना या निंदा करने का या दूसरों के प्रति जहर उगलने की बातों को करने का समय ही हमारे पास नहीं होगा। इससे संसार सुंदर बनेगा। हमारे शत्रु कम होंगे और जो होंगे वह भी हमारे प्रति ‘हिसंक’ भाव नहीं रखेंगे। महर्षि विश्वामित्र बड़े ही क्रोधी स्वभाव के ऋषि थे। जबकि महर्षि वशिष्ठ उतने ही सौम्य और विनम्र स्वभाव के थे। महर्षि विश्वामित्र को तत्कालीन ऋषि-समाज ने राजर्षि की उपाध् प्रदान की थी तो गुरू वशिष्ठ को ब्रह्मर्षि की। इस बात पर विश्वामित्र बड़े दु:खी रहते थे। एक दिन ‘घृणा’ का इतना तेज बुखार चढ़ा कि वह उन्हें हिंसाभाव से प्रेरित कर ऋषि वशिष्ठ जी के आश्रम में ले आयी जहाँ वह अपने विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान किया करते थे। जिस पेड़ के नीचे वह अपने शिष्यों को पढ़ाया करते थे ऋषि विश्वामित्र उस पेड़ पर चढक़र हाथ में कुल्हाड़ी लेकर बैठ गये, संयोग से उस दिन पूर्णिमा थी। पूर्णिमा के चंद्रमा को देखकर शिष्य प्रसन्न हो रहे थे और चंद्रमा की प्रशंसा कर रहे थे कि इस जैसा सुंदर संसार में कोई व्यक्ति नहीं है। शिष्य-संवाद को सुनकर ऋषि वशिष्ठ बोलेद्ब्रचंद्रमा जैसा सुंदर व्यक्तित्व ऋषि विश्वामित्र का है। यह सुनकर शिष्य चौक पड़े। आश्चर्य से बोले गुरूदेव!… ऋषि विश्वामित्र तो आपसे घृणा करते हैं, आपकी निंदा करते हैं और आप पर क्रोध करते हैं। यह सुनकर ऋषि वशिष्ठ बोले कि चाँद में काला ध्ब्बा तुम देख रहे हो ना। बस इतना सा एक दाग क्रोध का ऋषि विश्वामित्र के जीवन में है। यदि वह निकल गया तो वह चाँद से भी खूबसूरत हो जायेंगे। अपने कल्याण की ऐसी मंगल कामना से अभिभूत ऋषि वशिष्ठ को देखकर ऋषि विश्वामित्र पेड़ से नीचे उतरे और कुल्हाड़ी दूर फेंककर ऋषि के चरणों में गिर पड़े। ऋषि ने उन्हें गले लगाया। सारा माजरा समझकर उनसे स्नेह से कहा कि अब तुम ब्रह्मर्षि हो गये हो क्योंकि क्रोध का शत्रु तुमने जीत लिया है और घृणा को परे हटा दिया है।