सोशल मीडिया पर देश तोड़ने की बढ़ती साजिश
ललित गर्ग
आजकल फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब जैसे सोशल मंचों पर ऐसी सामग्री परोसी जा रही है, जो अशिष्ट, अभद्र, हिंसक, भ्रामक एवं राष्ट्र-विरोधी होती है, जिसका उद्देश्य राष्ट्र को जोड़ना नहीं, तोड़ना है। इन सोशल मंचों पर ऐसे लोग सक्रिय हैं, जो तोड़-फोड़ की नीति में विश्वास करते हैं, वे चरित्र-हनन और गाली-गलौच जैसी औछी हरकतें करने के लिये उद्यत रहते हैं तथा उच्छृंखल एवं विध्वंसात्मक नीति अपनाते हुए अराजक माहौल बनाते हैं। एक प्रगतिशील, सभ्य एवं शालीन समाज में इस तरह की हिंसा, नफरत और भ्रामक सूचनाओं की कोई जगह नहीं होनी चाहिए, लेकिन विडम्बना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कानून के चलते सरकार इन अराजक स्थितियों पर काबू नहीं कर पा रही है।
फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब पर पांव पसार रही है देश को तोड़ने की साजिशें एवं जनता के दिलों में दरारें डालने की उच्छृंखलताएं। इन राष्ट्र-विरोधी विध्वंसात्मक उपक्रमों, नफरत फैलाने वाले भाषणों, तोड़मोड़ कर प्रस्तुत करते घटनाक्रमों, हिंसा एवं साम्प्रदायिकता पर जश्न मनाने और भ्रामक सूचनाएं परोसने की जैसे होड़-सी लग गई है। यह तथ्य खुद फेसबुक और कुछ अमेरिकी मीडिया संस्थानों ने अपने अध्ययन के बाद प्रकट किए हैं। अध्ययनकर्ताओं ने दो साल पहले फेसबुक पर खाते खोले और लगातार नजर बनाए रखी कि इस मंच पर भारत में कैसी सामग्री परोसी जा रही है। वे देख कर हैरान हो गए कि उनमें भ्रामक सूचनाओं और नफरत फैलाने वाले विचारों का अंबार लगा हुआ है। हालांकि फेसबुक का दावा है कि वह किसी आपत्तिजनक सामग्री को प्रकाशित नहीं करता, ऐसा करने वालों को तुरंत चेतावनी भेजता और सामग्री को रोक देता है। प्रश्न है कि फेसबुक की यह व्यवस्था यहां क्यों फैल हो गयी? कहीं खुद फेसबुक ऐसी नफरत की आंधी को सर्वव्यापी बनाने के लिये जिम्मेदार तो नहीं है?
कहने को ट्विटर, यू-ट्यूब, फेसबुक सामाजिक मेल-जोल के मंच कहे जाते हैं, लेकिन इन मंचों पर जितनी राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक नफरत एवं द्वेष फैलाया जा रहा है, वह चिन्ताजनक हैं। फेसबुक के आंतरिक दस्तावेज़ों के मुताबिक़ फेसबुक भारत में भ्रामक सूचना, नफ़रत वाले भाषण और हिंसा को लेकर जश्न मनाने वाले कंटेंट को रोक नहीं पा रहा है, पर बड़ा सवाल है कि वह क्यों नहीं रोक पा रहा है? क्या यह भारत के खिलाफ एक षडयंत्र का संकेत है? प्रश्न यह भी है कि इस प्रकार की भ्रामक, उच्छृंखल, विध्वंसात्मक एवं नफरत-द्वेष फैलाने की नीति से किसका हित सध रहा है? विचित्र है कि भारत में ऐसी प्रवृत्तियां तेजी से बढ़ी हैं। सच्चाई यह है कि भारत की कुल बाईस भाषाओं में से केवल पांच में फेसबुक ने कृत्रिम बुद्धिमत्ता के जरिए ऐसी सामग्री की जांच एवं विश्लेषण किया जाता है। यहां तक कि हिंदी और बांग्ला जैसी बड़ी भाषाओं में भी परोसी जाने वाली सामग्री का विश्लेषण करने का कोई उपाय उसके पास नहीं है। जाहिर है, इससे उपद्रवी और संकीर्ण मानसिकता के लोगों को एक खुला मैदान मिल गया है, जो देश की शांति एवं सौहार्द की स्थितियों को खंड-खंड करना चाहते हैं या अपने संकीर्ण स्वार्थों को आकार देना चाहते हैं। इन भ्रामक सूचनाओं के माध्यम से चुनाव को प्रभावित करने की साजिश भी होती रही है।
फ़ेसबुक के संस्थापक-सीईओ मार्क ज़करबर्ग ने कहा था कि “फ़ेसबुक के इतिहास में भारत का बहुत महत्व है। कंपनी जब बुरे दौर से गुज़र रही थी और बंद होने की कगार पर थी तब मेरे गुरु स्टीव जॉब्ज़ (एपल के संस्थापक) ने मुझे भारत के एक मंदिर जाने की सलाह दी। वहाँ से लौटकर मुझे आत्मबल मिला और कंपनी सफल होती गई। इसलिये भारत उनकी ‘लिस्ट’ में ऊपर है। अभी ठीक एक साल पहले फिर ज़करबर्ग ने अपनी भारत यात्रा के दौरान इशारा किया था कि उनका इरादा ग़रीब लोगों तक इंटरनेट पहुँचाने का है। फ़ेसबुक ने भारत में लोकप्रियता की एक नई मिसाल कायम की थी। लेकिन जिस भारत ने फेसबुक को नया जीवन दिया, क्या वह उस देश की अखण्डता को तोड़ने का जिम्मेदार होना चाहेगा?
ट्विटर, यू-ट्यूब, फेसबुक जैसे सोशल मंचों का विकास इस उद्देश्य से किया गया था कि उनके जरिए लोग आपस में संपर्क बनाए, स्वस्थ और स्वतंत्र विचार प्रकट कर सकें और आपसी सौहार्द स्थापित कर सके। भारत की प्रगति से ईर्ष्या करने वाली शक्तियों एवं राजनीतिक दलों ने इसे अपने प्रचार एवं तथाकथित संकीर्ण स्वार्थों की पूर्ति का माध्यम बना डाला। भारत में शायद ही कोई राजनीतिक दल हो, जिसके फेसबुक पर आधिकारिक खाते न हों। अधिकारिक खाते होने में कोई त्रुटि नहीं है, पर जब उनके समर्थकों, कार्यकर्ताओं ने फर्जी नामों से खाते बना कर अपने दलगत आक्रामक विचार प्रकट करने शुरू किए, तो वातावरण दूषित एवं हिंसक होता गया। फिर तो न सिर्फ वहां दलगत मतभेद उभरने शुरू हो गए, राजनीतिक स्वार्थ सामने आने लगे। एक दल द्वारा दूसरे दल का विरोध करना, उसे नीचा दिखाना, उसकी प्रगति में बाधा उपस्थित करना एवं सफलता के नये कीर्तिमान गढ़ने वाले दलों का मनोबल गिराना आम बात हो गयी। उनकी इन बनावटी, भ्रामक एवं झूठी सूचनाओं का पर्दाफाश होता है तो एक भी मुद्दा ऐसा नहीं मिलता जो तथ्यपरक, सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक पहलू का स्पर्श करता हो। यह तो जानबूझकर अराजकता फैलाने का जरिया बनता जा रहा है और इनमें विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता आपस में उलझते देखे जाने लगे, बल्कि भ्रामक सूचनाएं तथा नफरती विचार परोस कर उत्तेजना फैलाने में अपनी शान समझने लगे। कई बार इसके बुरे परिणाम भी देखने को मिले हैं, जब लोग ऐसे विचारों के प्रभाव में आकर भीड़ के रूप में हिंसा करते पाए गए। केवल चरित्र-हनन एवं अराजकता फैलाने के उद्देश्य से किया जाने वाला ऐसा प्रयत्न कितना जघन्य एवं राष्ट्र-विरोधी है, समझने वाले व्यक्ति अच्छी तरह समझते हैं।
आम-जनता को गुमराह करने और उसका मनोबल कमजोर करने के लिये जो लोग उजालों पर कालिख पोत रहे हैं, इससे उन्हीं के हाथ काले होने की संभावना है। राष्ट्र की एकता और अखण्डता, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं प्रगति के नये अध्याय रचती सरकारें- इस देश की संस्कृति है, विरासत है, उसे इस तरह के औछे हथकंडों से पस्त नहीं किया जा सकता। आश्चर्य की बात है कि विरोध की तीव्रता और दीर्घता के बावजूद जिन संस्थाओं, राजनीति दलों, विचारधाओं, नेताओं के अस्तित्व पर कोई आंच नहीं आ सकी तथा विरोधी संवाद लिखने, प्रस्तुत करने वाले अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सके। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होने लगता है कि विरोध इन तथाकथित राष्ट्र-विरोधी तत्वों एवं राजनीतिक दलों की नियति है। विचित्र है कि अपने कार्यकर्ताओं की तरफ से फैलाई गई ऐसी अफवाहों, सूचनाओं, विचारों पर कोई भी राजनीतिक दल न तो स्पष्टीकरण देता है और न उन्हें अनुशासित एवं संयमित करने का कोई उपाय ही किसी ने किया है।
फेसबुक जैसे मंच निर्बाध हैं, वहां बिना कोई शुल्क अदा किए किसी को भी अपना खाता खोलने की आजादी है। आजकल हर हाथ में स्मार्टफोन आ गया है, उससे बहुत सारे लोगों को इस मंच का बेलगाम इस्तेमाल करने की लत-सी लग गई है। लेकिन इस लत से नुकसान राष्ट्र का होता है। केंद्र सरकार ने पिछले दिनों इन सामाजिक मंचों को अनुशासित बनाने का प्रयास किया था, पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक व्यवस्था इसमें बड़ी बाधा है। हालांकि सोशल मीडिया के ये मंच स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक सकारात्मक भूमिका भी निभाते देखे जाते रहे हैं। उन पर कड़ाई से बहुत सारे ऐसे लोगों के अधिकार भी बाधित होने का खतरा है, जो स्वस्थ तरीके से अपने विचार रखते और कई विचारणीय मुद्दों की तरफ ध्यान दिलाते हैं। मगर जिस तरह बड़ी संख्या में वहां उपद्रवी, हिंसक, राष्ट्रीय और सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न करने वाले तत्त्व सक्रिय हो गए हैं, उससे चिंता होना स्वाभाविक है। उन पर अंकुश लगाने एवं उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई का प्रावधान करना जरूरी है।
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