छः दोषों का त्याग (उलूकयातुम्–वेद मंत्र पर आधारित)
रचयिता: सहदेव समर्पित सम्पादक शांतिधर्मी
मन वाणी और कर्म शुद्ध कर प्रभु गुण गाना चाहिए।
अपना जीवन वेदों के अनुकूल बनाना चाहिए।।
उल्लू की दो चाल छोड़ जो अंधकार को चाहवै।
परधन पर सम्पत्ति पर सदा टेढ़ी नजर लखावै।
नहीं ज्ञान की बातें सुनकर जीवन में अपनावै।
शुभकर्मों को छोड़ सदा दुष्कर्मांें में मन लावै।
सुनकर सद् उपदेश हमेशा ज्ञान बढ़ाना चाहिए।।1।।
सदा भेडि़या ईष्र्यालु होकर औरों से जलता।
वहीं बोल दे धावा देखे जहाँ कहीं निर्बलता।
औरों का नुकसान करण नै हरदम रहै मचलता।
बिना क्रूरता कभी भी उसका काम नहीं है चलता।
सदा हृदय में स्नेह दया का भाव बढ़ाना चाहिए।।2।।
रोटी का टुकड़ा जो दे दे उसके तलवे चाटै।
बने नहीं भाईचारे से नहीं प्रेम से बांटे।।
इसी तरह जो मानव अपना श्वानभाव ना डाटै।
कभी नहीं सुख पा सकता वह रो रो जीवन काटै।।
परमेश्वर ने दिया है सब कुछ बांट के खाना चाहिए।।3।।
चिड़ा हमेशा काम वासना में अंधा रहता है।
अधिक काम है त्याज्य हमेशा वेद हमें कहता है।
काम वासना आग है मानव जो इसमें दहता है।
सुख सम्पत् से हीन रहे, दुःख धारा में बहता है।
संयम को धारण इससे लाभ उठाना चाहिए।।4।।
जिसने इस जग के जीवन की नश्वरता पहचानी।
नहीं गरुड़ सम हो सकता है वह व्यक्ति अभिमानी।
नहीं रहे यहाँ राम कृष्ण से महाराजा लासानी।
फिर अभिमान भला तू कैसा करता है अज्ञानी।।
तज कर के अभिमान नम्रता को अपनाना चाहिए।।5।।
छटा दोष है लालच का जो सबको है दुःखदायी।
इस लालच में फंसके मानव करता बहुत बुराई।
इस लालच के कारण भाई का दुश्मन है भाई।।
सदा गिद्ध को हर वस्तु में देता मांस दिखाई।।
कह सहदेव सदा मेहनत से कमा के खाना चाहिए।।6