अंग्रेजी काल का ये पुलिस प्रशासन
स्वतंत्र भारत की पहली सरकार जब पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अस्तित्व में आयी थी तो उसके लिए नौकरशाही वही कार्य कर रही थी जो 15 अगस्त 1947 तक अंग्रेजों के लिए कार्य करती रही थी। शासन प्रशासन में से प्रशासन वही था जो अंग्रेजों का था और शासन में वो लोग सत्तासीन हुए जो अंग्रेजों के विचारों से काफी प्रभावित थे। इस प्रकार आजादी मिलने पर भी हमें अंग्रेज और अंग्रेजियत से मात्र 25 प्रतिशत ही मुक्ति मिल सकी। इस स्थिति का परिणाम यह हुआ कि देश में आज तक भी अंग्रेजी प्रणाली पर ही सरकार चल रही है और प्रशासन भी उसी ढर्रे पर चलता आ रहा है।
हम पुलिस प्रशासन का उदाहरण ले सकते हैं। देश की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को सही बनाये रखने के लिए इस विभाग का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहता है। लेकिन इस विभाग की छवि जनसाधारण में ऐसी बनी हुई है कि जैसे पुलिस हमारी रक्षक न होकर भक्षक बन गयी है। एक पुलिस अधिकारी ने हमें बातचीत में बताया था कि हमें प्रशिक्षण के दौरान ही जब प्रशिक्षक गाली देकर बोलते हैं तो वही से हमारी यह प्रवृत्ति बन जाती है कि अपने अधीनस्थ से असभ्यता से ही बातें की जाएं। दूसरे कार्याधिक्य के कारण भी कई बार हम जनसाधारण से सही ढंग से पेश नही आते।
उक्त पुलिस अधिकारी की बातों में कुछ सत्य अवश्य हो सकता है। अंग्रेज अधिकारी भारत में अपने शासन के स्थायित्व के दृष्टिïगत ऐसी ही पुलिस को तैयार किया करते थे जो भारतीय होकर भी भारतीयों को गाली दें। बातों में भी मानवता का व्यवहार यदि आज भी पुलिसकर्मियों को नही सिखाया जा रहा है तो यह निश्चय ही गलत है। पुलिस का आदर्श वाक्य सूत्र है-‘‘परित्राणाम साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम्’’, अर्थात सज्जनों का कल्याण और दुर्जनों का विनाश करना इस संगठन का उद्देश्य है। लेकिन व्यवहार में इस आदर्श वाक्य के सर्वथा विपरीत होता है। यहां सज्जनों के साथ अधिकांश मामलों में उत्पीडऩ का व्यवहार किया जाता है। मारपीट तक की घटनाओं को अत्यंत सामान्य बताया जाता है। व्यक्ति की अचल संपत्ति पर यदि विवाद हो जाए तो जो पीडि़त पक्ष पुलिस के पास सहायता के लिए आता है, सामान्यत: देखा गया है कि ऐसे प्रकरण में और निजी संपत्ति पर जब तक कोई व्यक्ति कब्जा ना कर ले तब तक पुलिस निष्क्रियता का प्रदर्शन करती रहती है। इससे समाज विरोधी किस्म के अत्याचारी लोगों का मनोबल बढ़ता है। साधारण व्यक्ति पुलिस के एक दरोगा या उसे नीचे के एक कांस्टेबल को ही आज भी बड़ा अधिकारी मान लेता है। उसके लिए वो ही मां-बाप है। इनके व्यवहार से दुखी होकर गांव देहात का व्यक्ति उच्चाधिकारियों के दरवाजे खटखटाने में असमर्थ रह जाता है। उसकी विवशता का परिणाम ये होता है कि पुलिस की तानाशाही बढ़ती है और समाज में अत्याचारी किस्म के लोगों का वर्चस्व भी बढ़ता है।
पुलिस उच्चाधिकारी के पास यदि कोई पहुंच भी जाता है तो उसकी बात यद्यपि निचले स्तर से बेहतर ढंग से सुनी जाती है, किंतु अधिकांश मामलों में टिप्पण्यात्मक आदेश के साथ कागजात निचले स्तर के लिए ही लौट जाते हैं, जिससे बात वहीं जाकर अटक जाती है जहां से आरंभ हुई थी। पुलिस प्रशासन में इसके अलावा कुछ अन्य समस्याएं भी हैं जिनसे व्यक्ति को दो चार होना पड़ता है। मसलन किसी भी अज्ञात शव को स्वयं पुलिस वाले अपने सीमा से हटाकर दूसरे थाने की सीमा क्षेत्र में डाल आने का प्रयास करते हैं। नहर नालों में बहती चली आ रही लाश के साथ भी ये लोग ऐसा ही व्यवहार करते हैं। इसके अतिरिक्त दहेज उत्पीडऩ के मामलों में यदि कोई पीडि़त पक्ष ससुराल वाले थाने में रपट लिखाते हैं तो वह उसे मायके वाले थाने के लिए खदेडऩे का प्रयास करते हैं और मायके वाले यदि अपने थाने में रपट दर्ज कराना चाहें तो उन्हे ससुराल वाले थाने के लिए खदेडऩे का प्रयास करते हैं ताकि यह बला किसी भी कीमत पर उनके सिर से टल जाए। पुलिस की इस इस प्रकार की ज्यादतियों से हम नित्य ही दो चार होते हैं। यदि इस विभाग को टै्रनिंग के समय ही प्रशिक्षणार्थियों को मानवीय दृष्टिïकोण अपनाने की शिक्षा दी जाए और उन्हें नैतिकता सिखाई जाए तो इस प्रकार पुलिस के उत्पीडऩात्मक व्यवहार से समाज के जनसाधारण को मुक्ति दिलाई जा सकती है।
मुख्य संपादक, उगता भारत