स्वतंत्र भारत के इतिहास में 7 नवंबर 1966 वह अविस्मरणीय दिवस है जिस दिन राजधानी दिल्ली में सर्वदलीय गोरक्षा महाभियान समिति के तत्वाधान में गोवंश हत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग को लेकर संसद के सामने अभूतपूर्व विराट प्रदर्शन के लिए 10 लाख गोभक्तों का जनसमुद्र उमड़ पड़ा था। इतना विराट प्रदर्शन जनता की ओर से विश्व में कहीं भी किसी मांग को लेकर इसके पूर्व कदाचित ही हुआ हो। परंतु भारत भर से आये प्रदर्शनकारी यह देखकर हतप्रभ रह गये कि कसाईयों द्वारा गोमाता पर जिस प्रकार भीषण अत्याचार किये जाते हैं वैसे ही नृशंस अत्याचार कांग्रेस शासन की पुलिस द्वारा शांत व अनुशासित गोभक्तों पर किये गये तथा लाठीचार्ज, गोलीवर्षा व आंसू गैस के गोले दागकर सैकड़ों साधु संतों, महिलाओं व पुरूषों को मौत के मुंह में झोंक दिया गया व हजारों लोगों को गिरफ्तार कर दिल्ली की तिहाड़ कारागार में डाल दिया गया।
संविधान में व्यवस्था
यह व्यवहार उस कांग्रेस पार्टी के शासन में था जिसने स्वाधीनता मिलने से पूर्व ब्रिटिश साम्राज्य से संघर्ष करते समय गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग भी प्रमुखता से उठाई थी और जिसने घोषणा की थी कि स्वतंत्रता मिलते ही पहले 5 मिनट में गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। 2 सितंबर 1946 को केन्द्र में अंतरिम सरकार बनने के बाद से ही देश की जनता द्वारा गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध की मांग की जाने लगी थी। अत: तत्कालीन खाद्य मंत्री डा. राजेन्द्र प्रसाद ने सर दातार सिंह की अध्यक्षता में गोसंरक्षण और गोपालन विशेषज्ञ समिति की नियुक्ति की। इस समिति ने सभी प्रश्नों पर विचार कर 6 नवंबर 1948 को एक आख्या प्रस्तुत की जिसमें स्पष्टï रूप से देश में संपूर्ण गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध लगाने की संस्तुति की गयी थी। संस्तुति के आधार पर संविधान निर्मात्री परिषद ने संविधान में अनुच्छेद 48 समाविष्टï किया जो इस प्रकार है-‘‘राज्य कृषि और गोपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों द्वारा संगठित करने का प्रयत्न करेगा तथा विशेषतया नस्लों के परिरक्षण और गोसंवर्धन तथा गायों, बछड़ों व अन्य दुधारू एवं भारवाहक पशुओं की हत्या का निषेध करेगा।
नेहरू बने अड़ंगा
केन्द्र शासित भारत सरकार के कृषि मंत्रालय ने 20 दिसंबर 1950 के प्रपत्र द्वारा राज्य सरकारों को संपूर्ण गोवध बंदी करने का आदेश दिया था परंतु प्रधानमंत्री नेहरू के निर्देश पर ऐसा करने की मनाही कर दी गयी।
गोवंश रक्षा हेतु अनवरत संघर्षरत रहा हिंदू समाज
भारत की हिंदू जनशक्ति ने मुस्लिम शासनकाल में भी गोहत्या बंद कराने के लिए सब प्रकार का संघर्ष किया था व बलिदान का मार्ग भी निरंतर अपनाया जाता रहा। हिंदू भावनाओं व प्रचण्ड आक्रोश को देखकर कई मुस्लिम शासकों ने गोहत्या पर प्रतिबंध लगा दिया था। अंग्रेजी शासनकाल में भी हत्या का कलंक मिटाने के लिए रोमांचकारी ऐतिहासिक संघर्ष करने में हिंदू समाज अग्रणी रहा। अमृतसर, मालेर कोटला व दिल्ली में नामधारी सिख समाज ने गोरक्षा के लिए महान बलिदान दिये। इसके पूर्व भी सिख समाज के सभी दस गुरूओं ने गऊघात का कलंक मिटाने का संकल्प निरंतर घोषित किया। सन 1857 में अंग्रेजी शासन के विरूद्घ स्वाधीनता संग्राम की अग्नि धधकने का प्रमुख कारण सैनिकों को दिये जाने वाले कारतूसों में गाय की चर्बी का प्रयोग किया जाना ही था। हिंदू सैनिकों में मंगल पांडे जैसे क्रांतिकारी आगे बढ़े जिस कारण भडक़े विद्रोह से बड़ी संख्या में अंग्रेजों को मौत के घाट उतारा गया। इस संघर्ष में अनेक गोभक्तों को भी फांसी के फंदे पर लटकाया गया था।
नामधारी सिखों का महान बलिदान
14-15 जून 1871 सिख सदगुरू रामसिंह के अनुयायियों के लिए गोरक्षा संघर्ष इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अमृतसर के बूचड़खाने में प्रवेश करके भैणी से आए नामधारी सिखों ने कत्ल के लिए बंधी हुई गायों को मुक्त किया और विरोध करने वालों के सिर धड़ से अलग कर दिये। बाद में अमृतसर के सेशन जज मेजर डेविड ने 31 अगस्त 1871 को चार नामधारी सिखों को फांसी व तीन को काले पानी की सजा सुनाई। 15 सितंबर 1871 को फांसी के दिन ये वीर गोभक्त हरि कीर्तन करते व गोमाता की जय बोलते हुए बलिदान के पथ पर विदा हुए।
रायकोट का बलिदान : लुधियाना जिले के रायकोट में गुरूद्वारे के निकट बूचड़खाना चलाने वालों का नामधारी सिखों ने पंद्रह जुलाई 1871 की रात में सफाया किया जिस कारण बाद में 5 वीर सिखों को 26 नवंबर 1871 को फांसी पर चढ़ाया गया।
क्रमश: