कर्मयोग में शान्ति रस,ज्ञानयोग में अखण्ड
कर्मयोग में शान्ति रस,ज्ञानयोग में अखण्ड
कर्मयोग में शान्ति रस,
ज्ञानयोग में अखण्ड।
भक्तियोग में अनन्त रस,
यदि होवै प्रचण्ड ॥1503॥
व्याख्या:- प्रायः लोग कर्मयोग से अभिप्राय कर्म करने मात्र से लेते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि कर्मयोग नि:स्वार्थ भाव से केवल दूसरों के हित के लिए कर्म करता है। इससे उसके मन को जो शान्ति का रस प्राप्त होता है, उसे वाणी व्यक्त नहीं कर सकती है और लेखनी लिख नहीं सकती है जैसे – गुड़ का स्वाद गुँगा नहीं बता सकता है। ऐसे कर्मयोगी साधक सुगमता से जीवन्मुक्त हो जाता है।जबकि जो अपने लिए कर्म करता है वह बँध जाता है। इसलिए अपने जीवन को कर्मयोग बन कर व्यतीत करें और कर्मयोग को शान्तरस का रसास्वादन करें। लोककल्याण के लिए अपनी साधना में रत रहने वाले वैज्ञानिक अथवा आविष्कारक, समाज सुधारक, नूतन चेतना के उत्प्रेरक, मां शारदा की सेवा में साहित्य सर्जन करने वाले कवि और लेखक तथा उच्च कोटि के वास्तुकार इस श्रेणी में आते हैं। उदाहरणार्थ – आर्यभट्ट, जेम्स वाट, पंडित मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, गुरु रविंद्र नाथ टैगोर,टालस्टाय, बाल गंगाधर तिलक, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि दयाननद सरस्वती इत्यादि।योगवासिष्ठ में कहा गया है – “वाचक ज्ञानी की अपेक्षा कर्मयोगी श्रेष्ठ है। फिर जो कर्मयोगी का आचरण करता है, उसकी श्रेष्ठता का तो कहना ही क्या। ज्ञानयोगी तो केवल अपने लिए उपयोगी होता है, किन्तु कर्मयोगी संसारमत्र के लिए उपयोगी होता है जो संसार के लिए उपयोगी होता है।जो संसार के लिए उपयोगी होता है,वह अपने लिए भी उपयोगी होता है – यह नियम है। इसलिए कर्मयोग विशेष है।
ज्ञान योग से अभिप्राय है – जीव, ब्रह्म, प्रकृति के बारे में सूक्ष्मतम ज्ञान प्राप्त करना ज्ञानयोग कहलाता है और भी सरल शब्दों में कहें – “संसार से असंग होकर अपने स्वरूप में अवस्थित होना ज्ञानयोग कहलाता है।” ।ज्ञान अथाह और अखण्ड है। इसलिए इस मार्ग पर चलने वाले साधक को अखण्ड रस की अनुभूति होती है। जीव, ब्रह्म,प्रकृति के बारे में ज्ञान की गहराई जितनी बढ़ती जाती है, साधक की रसानुभूति उतनी ही बढ़ती चली जाती है जैसे -महर्षि उद्दालक, याज्ञवल्क्य,कपिल, कणाद,जैमिनी,गौतम इत्यादि।
भक्तियोग से अभिप्राय है – परमपिता परमात्मा के प्रेम में भावविभोर होना, उसके प्रेम में डूब जाना,अपने आप को प्रभु चरणों में समर्पित करना, उसके प्यार में स्निग्ध हो जाना, उससे सायुज्यता बना लेना अर्थात उससे जुड़ना, उससे ऊर्जान्वित होना भक्तियोग कहलाता है। भक्तियोग में श्रद्धा – विश्वास, सत्य, प्रेम, करुणा, अहिंसा, उदारता और समुर्पण की भावना अपनी पराकाष्ठा पर होती है। अतः प्रभु – प्राप्ति का यह सरल संक्षिप्त मार्ग कहलाता है। इसके उदाहरण एक नहीं अनेक हैं जैसे – ध्रुव, भक्तप्रहलाद, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु,ईशामसीह, गुरु नानक देव, संत ज्ञानेश्वर इत्यादि। साधक को भक्तियोग में जो रसानुभूति होती है, वह रस अनन्त होता है। भक्तों को ब्रह्मानन्द की अनुभूति होती है, जो उत्तरोत्तर बढ़ती ही जाती है। बशर्ते कि भक्तों की प्रियता, श्रद्धा अनन्यता अगाध हो, अच्युत हो तथा चरम पर हो।
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनों ही योगमार्गों में निर्द्धन्द्व होना बहुत आवश्यक है। जब तक द्वन्द्व है, तब तक मुक्ति नहीं होती। परमात्मतत्त्व की प्राप्ति में ‘राग’ और ‘द्वेष’ ये दो शत्रु हैं। निर्द्धन्द्व होने से यह दोनों मिट जाते हैं और इनके मिटने से सुखपूर्वक परमात्मतत्त्व की प्राप्ति हो जाती है। अतः भक्त उपरोक्त तीनों योगों में से कोई सा भी मार्ग चुने किन्तु उसका निर्द्धन्द्व होना नितान्त आवश्यक है। महाकवि बिहारी ने ठीक ही कहा था:-
या अनुरागी चित्त की,
गति न जाने कोय।
ज्यों-ज्यों डूबत श्याम रंग,
त्यों-त्यों उज्जवल होय॥
ध्यान रहे, पतित पावनी गंगा की धारा तो धरती पर बहती है जबकि भक्ति- रस की धारा भक्ति के हृदय में बहती है जो उसके रोम-रोम को आहलादित करती है, असीम आनन्द से आत्मविभोर करती है। इतना ही नहीं गंगा की धारा का गन्तव्य तो गंगासागर है जबकि भक्ति – रस की धारा का गन्तव्य उस अनन्त के अनन्त- रस से एकाकार होना है। इसलिए भक्तियोग के अजस्र रस को अनन्त रस कहा गया है। काश! मनुष्य अपने जीवन में इस भक्तियोग के अनन्त रस का रसास्वादन करे और अपने जीवन को धन्य करें।
क्रमश:
प्रोफेसर : विजेंद्र सिंह आर्य