जब सीताजी की खोज में अशोक वाटिका पहुँचे हनुमानजी
शुभा दुबे
लंकिनी के पास से चलकर वीरवर हनुमानजी सीताजी की खोज करने लगे। उन्होंने रावण के महल का कोना कोना छान डाला, किंतु कहीं भी उन्हें सीताजी के दर्शन नहीं हुए। सीताजी को न देख पाने के कारण वह बहुत ही दु:खी और चिंतित हो रहे थे। रावण के महल में मंदोदरी को देखकर उन्हें कुछ क्षणों के लिए ऐसा भ्रम हुआ कि यही सीताजी हैं, लेकिन तुरंत उन्होंने समझ लिया कि यह सीताजी नहीं हो सकतीं। यह तो अत्यंत प्रसन्न दिखायी दे रही हैं। माता सीताजी तो जहां भी होंगी, भगवान श्रीरामचंद्रजी से दूर होने के कारण बहुत ही दु:खी होंगी। वह इस समय सुखी और प्रसन्न कैसे रह सकती हैं? नहीं, यह माता सीताजी नहीं हो सकतीं। ऐसा सोचकर वह पुन: आगे बढ़ गये। इस प्रकार सीताजी की खोज करते करते भोर हो गया।
इसी समय विभीषण अपनी कुटिया में जगा। जगते ही उसने राम नाम का स्मरण किया। वह भगवान श्रीरामचंद्रजी का परम भक्त था। लंका में राम नाम सुनकर हनुमानजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि राक्षसों की इस नगरी में ऐसा कौन भला आदमी रहता है, जो भगवान राम का नाम जप रहा है। मुझे इससे मिलना चाहिए। इससे किसी प्रकार की भी हानि नहीं हो सकती है। ऐसा सोचकर हनुमानजी ने विभीषण से भेंट की। वह हनुमानजी से मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ। बारम्बार अपने भाग्य की सराहना करने लगा। उसने हनुमानजी को बताया कि रावण ने सीताजी को अशोक वाटिका में छुपा कर रखा है। हनुमानजी तुरंत अशोक वाटिका की ओर चल पड़े।
अशोक वाटिका में पहुंचकर अशोक के एक वृक्ष पर पत्तों के बीच छिपकर वह बैठ गये। उन्होंने देखा कि दु:खिनी माता सीताजी का सारा शरीर सूखकर कांटा हो गया है। सिर के बाल जटाओं की तरह गुंथकर एक ही चोटी बन गये हैं। वह केवल राम नाम जपते हुए जोर जोर से सांस लेते हुई आंखों से आंसू बहा रही हैं। अब उनसे और न देखा गया। उन्होंने धीरे से भगवान श्रीरामचंद्रजी द्वारा पहचान के लिए दी गयी अंगूठी सीताजी की गोद में गिरा दी। उसी के थोड़ी देर पहले सीताजी ने अशोक वृक्ष से प्रार्थना की थी कि हे वृक्ष! तुम्हारा नाम अशोक है। तुम सबके शोक दूर करते हो। कहीं से लाकर मेरे ऊपर एक अंगार गिरा दो। इस शरीर को भस्म कर मैं तत्काल शोक से छुटकारा पा जाऊं। अत: हनुमानजी द्वारा गिरायी गयी अंगूठी को उन्होंने अशोक द्वारा दिया गया अंगार ही समझा। लेकिन जब उन्होंने देखा कि यह तो राम नाम लिखी हुई वही अंगूठी है, जिसे प्रभु श्रीरामचंद्रजी धारण किया करते थे। तब उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
वे सोचने लगीं- श्रीरघुनाथ जी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें देव, असुर, दानव, मनुष्य कोई भी नहीं जीत सकता। माया के द्वारा ऐसी अंगूठी का निर्माण बिलकुल असंभव है। इसी समय सीताजी को सांत्वना देने के लिए हनुमान जी मधुर वाणी में श्रीरामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे। आदि से अनंत तक रघुनाथ जी की सम्पूर्ण कथा सुनायी। उनकी मधुर वाणी में श्रीराम कथा की अमृत धारा निकलकर सीताजी के कानों में रस घोलने लगी। कथा के सुंदर प्रवाह से उनका संपूर्ण शोक और दु:ख क्षणमात्र में समाप्त हो गया।