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भारत का वास्तविक राष्ट्रपिता कौन ? श्रीराम या ……. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा भगवान श्रीराम, अध्याय – 3

वनवास में भी पुरुषार्थ करते रहो

भारत के विषय में मुसलमान लेखक वस्साफ ने अपने ग्रंथ “तारीख-ए-वस्साफ” में बहुत सुंदर कहा है – “सभी इतिहासवेत्ता यह मानते हैं कि भारतवर्ष भूमंडल का एक अति रमणीय और चित्ताकर्षक देश है। इसकी पावन पुनीत मिट्टी के रजकण वायु से भी अधिक हल्के और पवित्र हैं। इसकी वायु की पवित्रता स्वयं पवित्रता से भी अधिक पवित्र है। जिसके हृदयहारी मैदान स्वर्ग की स्मृति को जगाने वाले हैं। यदि मैं दावा करूं कि स्वर्ग भारत में ही है तो तू आश्चर्य मत कर। क्योंकि स्वयं स्वर्ग भी भारत की समानता नहीं कर सकता।”
भारत ने अपनी पवित्रता को अपनी दीर्घकालिक साधना से प्राप्त किया। इसकी साधना में कोई रागद्वेष का भाव नहीं था। इसने मानवता को ऊंचा उठाने, ऊँचा सोचने और ऊंचा बनने का दिव्य संकल्प दिलाया। जिससे धरती स्वर्ग बने ।धरती के रहने वाले लोग देवता बनें और धरती का परिवेश दिव्य बने। भारत के इस दीर्घकालिक सांस्कृतिक पुरुषार्थ में श्रीराम का विशेष योगदान है।

राक्षस मुक्त हो धरती

विराध नाम के राक्षस को मारकर रामचंद्र जी को यह बात समझ आ गई कि उन्हें अब राक्षसों से मुक्त धरती करने की तैयारी करनी चाहिए । उस समय की परिस्थितियां और राक्षसों का बढ़ता आतंक देखकर वह अत्यंत व्याकुल हो गए थे। भारत ऋषि और कृषि का देश है। ऋषि और कृषि तभी सुरक्षित रह सकते हैं जब राष्ट्र में शांति – व्यवस्था हो। जब ऋषि और कृषि सुरक्षित रहेंगे तो देश में आर्थिक संपन्नता आएगी। साथ ही धर्म की वृद्धि होने से लोगों का सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक जीवन सुख और शांति से संपन्न होगा। अतः ऋषि और कृषि की रक्षा के लिए शस्त्र से राक्षसों का संहार किया जाना आवश्यक है।
ऋषियों की स्थिति उस समय बहुत ही दयनीय हो चुकी थी। उन्हें राक्षस लोगों से सर्वत्र खतरा बना रहता था। क्योंकि उनके यज्ञ आदि शुभ कार्य भी राक्षसों के आतंक के कारण समय से और सही प्रकार से संपन्न नहीं हो पा रहे थे। ऋषियों की ऐसी स्थिति देख कर श्रीराम बहुत दु:खी हुए । क्योंकि वे लोग अपने जप, तप, यज्ञ और भजन आदि के कार्यों को भी शांतिपूर्वक नहीं कर पाते थे। राक्षस लोग उन्हें भांति- भांति से दु:खी किया करते थे ।

वनवासी तपस्वियों की याचना

जब शरभंग ऋषि दिवंगत हुए तो उसके पश्चात ‘दंडकारण्यवन’ में रहने वाले अनेकों तपस्वी एकत्र हुए और अपने जीवन की रक्षा के लिए उन्होंने श्रीराम के पास प्रस्थान करने का निर्णय लिया । उन्हें यह पूरा विश्वास हो गया था कि उनके प्राणों की और यज्ञ आदि की रक्षा श्रीराम के द्वारा ही संभव है। अतः वे सब एकत्र होकर अग्नि के समान महातेजस्वी श्रीराम के पास आ पहुंचे। उन्होंने रामचंद्र जी से अनुनय – विनय करते हुए कहा कि जैसे देवताओं के राजा इंद्र हैं, उसी प्रकार आप इक्ष्वाकु वंश में प्रधान और पृथ्वी के स्वामी हैं।
उस ऋषिमंडल ने कहा कि आपकी प्रजावत्सलता व धर्मज्ञता हम सबके लिए बहुत ही आनंददायक है। आपके प्रजावत्सल और धर्मज्ञ होने के कारण हम आपके पास याचक बनकर आए हैं और आपसे कुछ कहना चाहते हैं।
ऋषि मंडल के लोगों ने रामचंद्र जी से याचना के स्वर में कहा कि – “राजन ! वह राजा महान पाप का भागी होता है जो अपनी प्रजा से आय का छठा भाग कर के रूप में ले लेता है, परंतु अपनी प्रजा का पुत्रवत पालन नहीं करता।”
यहाँ ऋषियों का संकेत है कि राजा यदि अपनी प्रजा से आय का छठा भाग लेता है तो उसे प्रजा का पुत्रवत पालन भी करना चाहिए। क्योंकि प्रजा ने अपने राजा को चुना ही इसलिए है कि वह संकट की हर घड़ी में हमारी रक्षा करेगा। यदि राजा अपनी प्रजा की रक्षा करने के इस महान कार्य में प्रमाद बरतता है या उसमें किसी भी प्रकार से अक्षम सिद्ध होता है तो वह राजा रहने के योग्य नहीं है। प्रजा से कर वसूल करने का अभिप्राय यह नहीं है कि राजा प्रजा के उस धन से स्वयं ऐश्वर्य की जिंदगी जिये और प्रजा को नारकीय जीवन जीने के लिए विवश कर दे। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह प्रजा से वसूल किए गए धन से शांति व्यवस्था बनाए रखने की और नागरिकों की सुख समृद्धि की हर प्रकार की व्यवस्था करेगा।
ऋषियों ने अपनी व्यथा कथा सुनाते हुए श्री राम से आगे कहा कि जो राजा अपनी संपूर्ण प्रजा को अपने पुत्र और प्राणों के समान तथा प्राणों से भी बढ़कर समझता है और उसकी रक्षा करने के अपने दायित्व के प्रति कभी भी आलस्य या प्रमाद नहीं करता, वह इस संसार में स्थायी कीर्ति को प्राप्त होता है। ऐसा राजा अंतकाल में ब्रह्मलोक को पाकर वहां भी पूजित होता है।
ऋषियों के कहने का अभिप्राय है कि राजा रामचंद्र जी को प्रजाजनों के प्रति इसी प्रकार की धर्मनीति को अपनाना चाहिए। रामचंद्र जी अपने आपको राजा कहे जाने पर यहां भी कोई प्रतिरोध नहीं कर रहे हैं, और ना ही आपत्ति व्यक्त कर रहे हैं। इसका अभिप्राय है कि वह स्वयं को राजा और राजधर्म के प्रति समर्पित हुआ देख रहे हैं । वे यह जानते हैं कि (14 वर्ष बाद ही सही लेकिन) वह अयोध्या के राजा हैं। इसलिए अपने प्रजाजनों की रक्षा करना उनका पुनीत दायित्व है। यही कारण है कि ऋषिमंडल के इस प्रकार के याचनापूर्ण शब्दों को सुनकर वह एक बार भी यह नहीं कह पाए कि मैं राजा नहीं हूं बल्कि राजा तो मेरा भाई भरत है और मैं क्योंकि इस समय वनवासी हो चुका हूं, इसलिए आपकी कोई रक्षा नहीं कर सकता। क्योंकि मेरे पास आप लोगों की रक्षा करने का कोई साधन नहीं है। इसके विपरीत श्री रामचंद्र जी ने वनवासी रहकर भी अपनी प्रजा की रक्षा करने को अपना राजधर्म समझा। वह जानते थे कि ऋषि लोग जो कुछ भी कह रहे हैं या उनसे जो भी संकल्प लिवाना चाहते हैं, उससे उनका वनवासी जीवन बहुत ही कष्टमय हो जाएगा। परंतु एक वीर क्षत्रिय की भांति उन्होंने अपने कष्टों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया।
ऋषियों ने आगे कहा कि जो राजा धर्म-पूर्वक प्रजा की रक्षा करता है ,उसे कंद-मूल फल खाकर निर्वाह करने वाले मुनियों के पुण्य का चौथा भाग प्राप्त होता है। आप जैसे रक्षक के होते हुए भी यह ब्राह्मण बहुल वानप्रस्थियों का दल अनाथों के समान राक्षसों के द्वारा मारा जा रहा है।
इन शब्दों में ऋषियों ने अपनी दीन-हीन अवस्था को प्रकट किया। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि आपके रहते हुए यदि हम अनाथ के रूप में मारे जा रहे हैं तो समझ लो कि आप अपने राजधर्म से मुंह फेर रहे हो। आप जैसे क्षत्रियों के रहते हुए हमारे लिए ऐसी विषम परिस्थितियां उत्पन्न हों कि हमें अपने यज्ञ आदि करने में भी विघ्न अनुभव हों या उनका सामना करना पड़े तो यह स्थिति आप लोगों के लिए उचित नहीं है। क्योंकि क्षत्रिय लोग सज्जन शक्ति के कल्याण के लिए ही जन्म लेते हैं। यदि उनके रहते हुए सज्जन शक्ति को किसी प्रकार का कष्ट अनुभव होता है तो उनका जीवन और जीना व्यर्थ ही हैं।
ऋषियों ने श्रीराम से कहा कि यदि आपके हृदय में ऋषियों के प्रति सम्मान का भाव है तो आपको उनकी रक्षा का संकल्प लेना ही चाहिए। इतना ही नहीं, यदि आम प्रजाजनों के साथ भी कहीं अत्याचार हो रहा है तो उनको भी आप सुरक्षा प्रदान करें।
इसके पश्चात ऋषियों ने रामचंद्र जी से कहा कि आप हमारे साथ आइए और उन आत्मदर्शी तपस्वियों के मृत शरीरों को देखिए, जिनको राक्षसों ने भालों की नोंक से छेदकर और तलवारों से काटकर मार डाला है। इस घोर वन में भयंकर राक्षसों के द्वारा तपस्वी लोगों पर जिस प्रकार के अत्याचार हो रहे हैं, उनसे हम लोग बहुत दु:खी हैं।अब यह अत्याचार हमसे सहन नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए हमारा कोई न कोई ऐसा उपाय करो जिससे हमारे प्राणों की रक्षा हो सके और इस वन से राक्षसों का खात्मा हो सके।
रघुकुल की परंपरा के अनुसार आपको हम सब लोगों की समस्याओं और कष्टों का निवारण करना चाहिए। यदि आप इसमें चूक करते हैं तो समझो आप अपने रघुकुल की परंपरा का निर्वाह करने में अपने आप को अक्षम और असमर्थ घोषित कर देंगे।
हे रघुकुल वंशी श्रीराम ! हमें आपसे अपेक्षा है कि आप हमारी समस्याओं और कष्टों का अवश्य ही निवारण करने में सफल होओगे।
प्राचीन काल में भारत के राजा शरण में आए लोगों की समस्याओं और कष्टों का निवारण करना अपना राज धर्म स्वीकार करते थे। श्री राम तो हैं ही मर्यादा पुरुषोत्तम। इसलिए उनसे तो यह अपेक्षा की ही जा सकती है कि वे शरणागत वत्सल हैं । इसीलिए उन ऋषियों ने उनसे कहा :- राजन ! आप शरणागतवत्सल हैं और हम आपसे अपनी सुरक्षा की याचना लेकर आपकी शरण में आए हैं। राक्षसों के द्वारा मारे जाने वाले हम लोगों की आप रक्षा करें।

रामचंद्रजी का संकल्प

ऋषियों के द्वारा जब इस प्रकार का वर्णन किया गया तो रामचंद्र जी बहुत अधिक दु:खी हुए । अब उनको यह पूर्णतया स्पष्ट हो गया था कि उनके प्रजाजन और ऋषि लोग राक्षसों के अत्याचारों से बहुत अधिक भयभीत और दु:खी हैं। सहृदयी श्रीराम ऋषिमंडल के सदस्यों के इस प्रकार के व्यथापूर्ण कथनों को सुनकर कहने लगे कि :- “आप लोगों का मुझसे इस प्रकार प्रार्थना करना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं। यदि आप लोग मुझे आज्ञा दें तो मुझे अच्छा लगेगा। क्योंकि मैं आपका आज्ञाकारी सेवक हूं। मेरे बारे में आप यही समझें कि मैं आपके कार्यों के लिए ही वन में आया हूं।”
इस प्रकार श्रीराम ने उन ऋषियों को यह स्पष्ट कर दिया कि यदि आपको राक्षस लोग किसी भी प्रकार से परेशान कर रहे हैं तो मैं अपने क्षत्रिय धर्म के निर्वाह में किसी भी प्रकार का प्रमाद नहीं करूंगा। आप इस बात के लिए आश्वस्त रहें कि मेरा धनुष क्षत्रिय वीरों की भांति कंधे पर रहेगा और ऐसे राक्षसों का संहार करने में तनिक भी संकोच नहीं करेगा जो आप लोगों को दु:खी कर रहे हैं।
इसके बाद श्री रामचंद्र जी ने उन सभी ऋषियों के समक्ष यह संकल्प लिया कि मैं ऐसे राक्षसों का युद्ध क्षेत्र में वध करना चाहता हूं ,जो आपको किसी भी प्रकार से कष्ट पहुंचा रहे हैं। उन्होंने कहा कि आप मेरे और मेरे भाई लक्ष्मण के पराक्रम को देखें। ऐसा कहकर रामचंद्र जी ने उन सभी तपस्वियों को यह भरोसा दिलाया कि आप मेरे और लक्ष्मण के पराक्रम पर विश्वास करें और इस बात के प्रति निश्चिंत हो जाएं कि अब यह राक्षस लोग आपको किसी भी प्रकार से उत्पीड़ित या आतंकित नहीं कर पाएंगे।
इस प्रकार रामचंद्र जी ने अपने वनवासी जीवन को क्षत्रियपन के साथ जीने का निर्णय ले लिया । वैसे भी श्री राम और उनके भाई लक्ष्मण किसी भी प्रकार की बाधा को देखकर भागने वाले नहीं थे । वह हर चुनौती का सामना करना जानते थे । अब जब उनके सामने इन तपस्वियों के जीवन को सुरक्षित करने की चुनौती आई तो उन्होंने उनको सुरक्षित करने का संकल्प लेकर यह स्पष्ट कर दिया कि उनके रहते किसी भी ऋषि या ऋषिमंडल को दु:खी होने की आवश्यकता नहीं है।
रामचंद्र जी के प्रजावत्सल कार्यों के चलते उनका यश अब दूर- दूर तक फैल गया था । जंगल में रहने वाले तपस्वी और ऋषि लोग तो उन्हें विशेष सम्मान देने लगे थे । उनकी दृष्टि में यह बात आ गई थी कि राक्षस और राक्षसों के राजा रावण के आतंक से यदि इस भूमंडल को कोई मुक्त करा सकता है तो वह श्रीराम ही हो सकते हैं। इसलिए उनका आशीर्वाद तो अब श्री राम के साथ हो ही गया, साथ ही जिन ऋषियों के पास अस्त्र-शस्त्र संबंधी ज्ञान था उन्होंने भी ऐसा ज्ञान और ऐसे अस्त्र-शस्त्र श्री राम को सौंपने आरंभ कर दिए जो राक्षसों के संहार में काम आ सकते थे।

बहने लगी परिवर्तन की बयार

इस प्रकार राष्ट्र के भीतर इस समय परिवर्तन की एक हवा बहने लगी। जो समाज विरोधी और राष्ट्र विरोधी शक्तियां थीं या ऐसे लोग थे जो कि ईश्वरीय व्यवस्था को बिगाड़ने में सहायक हो रहे थे, उनके विरुद्ध एक मजबूत गठबंधन बनने लगा। उस गठबंधन के नेता श्री राम बन चुके थे। क्योंकि संसार की सारी सृजनात्मक और ज्ञानात्मक शक्तियां उनके साथ जुड़ती जा रही थीं। उनका यश बढ़ता जा रहा था और लोग कानों कान उनके महान कार्यों का वर्णन एक दूसरे से करते जा रहे थे।
परिवर्तन की यह बयार दिन पर दिन तेज होती गई। सज्जन शक्तियां एक साथ मिलकर दिव्य वातावरण और दिव्य परिवेश का निर्माण करने लगीं। सर्वत्र दिव्यता प्रभावी और हावी होने लगी और ऐसा लगने लगा कि अब ये दिव्य शक्तियां मिल कर राक्षस शक्तियों का संहार करने को कटिबद्ध हैं।

ऋषि सुतीक्ष्ण के आश्रम में पहुंचे

उन तपस्वियों से विदा लेकर श्रीराम ऋषि सुतीक्ष्ण के आश्रम में पहुंचे । जहां ऋषि ने उनका दिव्य स्वागत सत्कार किया। ऋषि ने श्रीराम को अपने पास पाकर बड़े प्रेमपूर्ण ढंग से कहा कि हे धर्मधारियों में श्रेष्ठ वीर राम ! आपका स्वागत है। आपने अपने आगमन से अनाथ के समान इस आश्रम को सनाथ कर दिया है। आपके दर्शन की अभिलाषा में मैंने इस पार्थिव शरीर और पृथ्वी को छोड़कर ब्रह्मलोक को प्रस्थान नहीं किया । तुम इसी आश्रम में रहो। क्योंकि इस आश्रम में सब प्रकार की सुविधाएं हैं। इस आश्रम में श्री राम, लक्ष्मण और सीता जी ने रात्रि निवास किया। प्रातः काल समय से उठकर उन्होंने स्नान आदि करने के उपरांत ईश्वरोपासना और अग्निहोत्र किया। इसके पश्चात उन्होंने ऋषि से आज्ञा लेकर आगे के लिए प्रस्थान किया।
जब यहां से इन तीनों ने एक साथ प्रस्थान किया तो मार्ग में सीता जी ने रामचंद्र जी से कुछ विशेष उपदेश भरी बातें कहीं। उनमें से एक यह भी थी कि ‘हे वीर ! बिना अपराध लोगों के वध को मैं उचित नहीं समझती।
शांत अंतःकरण वाले वीर क्षत्रियों का वन में धनुष धारण करने से इतना ही प्रयोजन है कि वह दु:खी लोगों की रक्षा करें।”
सीता जी के इस प्रकार के उपदेश का वर्णन करते हुए रमानाथ खैरा ‘राम चरितामृत’ के पृष्ठ 193 पर लिखते हैं :-“सीता जी राम के प्रण पर चिंतित थीं। उनके विचार से राम को न छेड़ने वाले राक्षसों को मारना उचित नहीं था। उन्होंने सोचा – स्वामी राम निर्जन वन में संकटों से घिर जाएंगे। मुनि के समक्ष आश्रम में तो वह कुछ नहीं बोलीं किंतु मार्ग में सीता जी ने नम्रता पूर्वक राम से निवेदन किया – “मैं आपसे एक बात पूछना चाहती हूं। आप उदासी तपस्वी भेष में हैं और इसी रूप में रहने की आज्ञा आप को वनवास मिलते समय दी गई थी। मैं इसी भेष के अनुरूप कार्य करना आपका कर्तव्य समझती हूं। मुझे एक शंका है, क्या एक वैरागी तपस्वी संसार में शस्त्र द्वारा या बल प्रयोग से शांति व्यवस्था स्थापित करने या लोगों की रक्षा करने का कार्य अपने हाथों में ले सकता है ? और क्या शस्त्रों का प्रयोग कर अपराधियों को दंड दे सकता है ? राज्य से तो आप निर्वाचित हो गए, यहां वन में आकर भी आप शांति से नहीं रहना चाहते। राक्षसों ने आपका क्या बिगाड़ा है ? राक्षसों के विनाश का प्रण कर व्यर्थ ही आप अपना जीवन संकट में डालना चाहते हैं।”
कहने का अभिप्राय यह है कि सीता जी ने स्पष्ट किया कि निरपराध जीवों की हिंसा उन्हें भी अच्छी नहीं लगती। कहां शस्त्र और कहां वन। कहां क्षत्रिय धर्म और कहां तपस्या ? यह दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। सीताजी ने रामचंद्र जी से यह भी कहा कि आप वन में शस्त्र द्वारा राक्षसों के वध का विचार त्याग दो। जब आप अयोध्या लौट जाएं तब अपने क्षात्र धर्म का पालन करना।
बहुत संभव है कि सीता जी स्त्री सुलभ स्वभाव के कारण यह सब कह रही हों। उन्हें लगता हो कि वनवासी जीवन में यदि राक्षसों से वैर मोल लिया तो उनके पति के जीवन को खतरा हो सकता है । अतः वे उन्हें ऐसा उपदेश दे रही थीं कि जब आप अयोध्या लौट जाएं तो उस समय ही अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करना। यद्यपि रामचंद्र जी के ऊपर सीता जी के इस प्रकार के उपदेशों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने सीता जी की बातों को सुना और फिर उन्हें समझा दिया कि मैं क्षत्रिय हूं और रघुकुल वंशी क्षत्रिय होने के कारण मेरा यह परम कर्तव्य है कि वनवासी ऋषियों और उन सभी तपस्वियों के जीवन की रक्षा करूँ जो किसी न किसी प्रकार से राक्षसों से आतंकित हैं।
रामचंद्र जी ने सीता जी से कहा – “सीते ! तुम्हारा प्रश्न महत्वपूर्ण है। मेरा सदा यह मत रहा है कि परोपकार से ऊंचा कोई धर्म नहीं है। परोपकारी लोग तो ऐसे अवसरों की खोज में रहते हैं, किंतु जो लोग अवसर सामने होते हुए भी आंखों से अत्याचार देखते हुए तथा उसे रोकने की सामर्थ्य रखते हुए भी आलस्य प्रमाद के कारण अथवा स्वार्थवश अपने को झंझटों से बचाए रखने के विचार से ऐसे दुष्ट अत्याचारियों का सामना नहीं करते, वह मनुष्य नहीं हैं। वह तो पृथ्वी पर भार स्वरूप केवल सांसों की गिनती पूरी कर रहे हैं। धर्मप्रेमी पुरुषों ने तो असमर्थ होते हुए भी परोपकार में अपने प्राण दिए हैं। मैं क्षत्रिय हूं । मेरा तो कर्तव्य विशेष है कि दूसरों की रक्षा करूँ। कर्म न करने से अधर्म बनता है। मैंने लोगों के कष्ट देखे हैं। यह मेरी शरण में आए हैं। मैंने उन्हें उनके दुख दूर करने का वचन देना अपना धर्म समझा और वचन दिया तो उसका पालन करना भी मेरा कर्तव्य हो गया। यदि सत्यव्रत का पालन मैं न करूं तो पापी बन जाऊंगा। पिताजी ने अपने वचन की सत्यता पर ही अपने प्राणों का बलिदान किया और मैं उसी व्रत का पालन कर रहा हूं।
राम ने आवेश में कहा -“सीते ! मैं लक्ष्मण सहित तुम्हें त्याग सकता हूं। अपनी मृत्यु को भी स्वीकार कर सकता हूं, किंतु अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ सकता।
यदि मैं अपने क्षत्रिय धर्म का पालन नहीं करूंगा तो यह मेरे क्षत्रिय कुल पर कलंक लगाने वाली बात होगी। श्री राम के ऐसे अनुकरणीय चरित्र और व्यक्तित्व को देखते हुए ही मैथिलीशरण गुप्त जी ने लिखा है :-
राम तुम मानव हो?
ईश्वर नहीं हो क्या ?
विश्व में रमे हुए नहीं
सभी कहीं हो क्या?
तब मैं निरीश्वर हूं,
ईश्वर क्षमा करे।
तुम न रमो तो मन
तुममें रमा करे।।

(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)

  • डॉ राकेश कुमार आर्य
    संपादक : उगता भारत एवं
    राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति

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