प्रो. भगवती प्रकाश
अथर्ववेद के वाणिज्य सूक्त सहित यजुर्वेद, अथर्ववेद व ऋग्वेद
वैदिक काल में उद्योग-व्यवसाय क्षेत्र से जुड़ी शब्दावली का प्राचुर्य मिलता है। मात्र धन या पूंजी की पृथक प्रकृति होने पर पृथक शब्दावली का प्रावधान था। इसके अलावा सभी प्रकार के उद्यमों की स्थापना, संचालन व प्रबन्ध और उनसे सत्यनिष्ठा एवं नैतिकता के साथ धनार्जन के अनेक मन्त्र हैं।
उद्योग, व्यापार एवं वाणिज्य से व्यावसायिक लाभ व प्रतिष्ठा अर्जित करने की रीति-नीति अर्थात स्ट्रेटेजी सम्बन्धी उन्नत शब्दावली के वेदों में प्रचुर सन्दर्भ हैं। अथर्ववेद के वाणिज्य सूक्त सहित यजुर्वेद, अथर्ववेद व ऋग्वेद में सभी प्रकार के उद्यमों की स्थापना, संचालन व प्रबन्ध और उनसे सत्यनिष्ठा एवं नैतिकता के साथ धनार्जन के अनेक मन्त्र हैं।
नवीन उद्यमों की स्थापना की प्रतिष्ठा सूचकता
धन व ऐश्वर्य प्राप्ति हेतु ऋग्वेद में उद्योग, व्यवसाय व वाणिज्यिक अधिष्ठानों की स्थापना एवं वायु की गति से वाणिज्यिक क्रियाओं को प्रचुर (मरूद्म्यो वाणिज:) बनाने के निर्देश हैं। सम्पूर्ण भूमण्डल पर सर्वत्र नवीन उद्यमों की स्थापना से धन व यश, दोनों की प्राप्ति होती है। ऋग्वेद के मन्त्र 1/31/8 सहित कई मन्त्रों में ऐसा लिखा है। यथा:-
त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं कारुं कृणुहि स्तवान:।
ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैद्यार्वापृथिवी प्रावतं न:।। ऋग्वेद 1/31/8
भावार्थ- उत्तम धन व यश प्रदान करने वाले लाभकारी अध्यवसाय अर्थात उद्यमिता व पुरुषार्थपूर्वक विविध शिल्पों व विद्याओं के ज्ञाताओं के सहभाग से तुम नए-नए व्यवसायों में अग्रसर होकर उसमें अनवरत सफलता प्राप्त करते रहो।
असीम धनार्जन के सन्दर्भ
ऋग्वेद में प्रकृति को अनन्त सम्पदा का स्रोत (नि:शिघ्वही) कहा गया है। ऋग्वेद 3/57/5 के अनुसार पृथिवी (भूमि), आकाश, वृक्ष-वनस्पतियों, नदियों और जलस्रोतों में अक्षय धन है (ऋग्वेद 3/5/15)। अथर्ववेद के मन्त्र 12/1/44 के अनुसार पृथिवी में मणि, सुवर्ण आदि खनिजों का भंडार भरा है। ऋग्वेद के मन्त्र 1/130/3 के अनुसार पर्वतों व भूगर्भ में अनन्त खनिज निधि है। यजुर्वेद के मन्त्र 38/22 के अनुसार ‘उदधिर्निधि:’ अर्थात समुद्र अनन्त खनिजों व रत्नों का भंडार है। ऋग्वेद के भी मन्त्र 10/47/2 में यही कथन है कि चारों समुद्र्रों में अकूत प्राकृतिक संपदा भरी पड़ी है। इस प्रकार वैदिक काल में मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर प्रचुर संसाधन व अनन्त लक्ष्मी प्राप्त करता रहा है और उन्नत उद्योग, व्यापार व वाणिज्य में संलग्न रहा है।
मन्त्र सारांश
पूर्वीरस्य निष्षिधो मत्येर्षु, पुरू वसूनि पृथिवी बिभर्ति।
इन्द्र्राय द्याव औषधोरुतापो, रयिं रक्षन्ति जीरयो वनानि।। ऋग्वेद 3.5.15
निधिं बिभ्रती…… वसु मणिं हिरण्यं पृथिवी। अथर्ववेद 12.1.44
गुहा निधिं…….अश्मनि-अनन्ते। ऋग्वेद 1.130.3
उदधिनिधि:। यजुर्वेद 38.22
चतु: समुद्रं धरुणं रयीणाम । ऋग्वेद 10.47.2
उन्नत व्यवसायिक शब्दावली के प्रमाण
वेदों व अन्य संस्कृत ग्रन्थों में उन्नत व्यावसायिक शब्दावली व पद्धतियों के सन्दर्भ हमारे प्राचीन उन्नत आर्थिक इतिहास के प्रमाण हैं। आधुनिक बोस्टन कन्सल्टेन्सी ग्रुप के समान वेदों में प्रयुक्त इष्टका, धेनु, ब्रह्म, बन्धु आदि के आर्थिक सन्दर्भोें की व्याख्या पूर्व में की जा चुकी है। पं. वीरसेन वेदश्रमी आदि द्वारा प्रस्तुत कुछ शब्दों की व्याख्या अग्रानुसार है:
‘पण्य’ व ‘प्रक्री’ शब्द क्रमश: बिक्री व क्रय की जाने वाली वस्तुओं के लिए शब्द हैं।
श्रव: समाजोपयोगी कार्योें व दानादि में व्यय धन, बन्दोबस्ती कार्योें में विनियोग एवं यज्ञादि कार्योें में प्रयुक्त धन ‘श्रव:’
संज्ञक है।
गय: अपनी संतानों के हितार्थ, प्रजा के कल्याणार्थ या राज्य विस्तार के लिए प्रयुक्त धन ‘गय:’ संज्ञक होता है।
क्षत्र: रक्षा एवं आपातकालीन स्थिति के लिए सुरक्षित धन ‘क्षत्र’ संज्ञक है, जैसा कि ‘इदं’ में ब्रह्म च क्षत्रं चोभे श्रियमश्नुताम’ में ब्रह्म और क्षत्र विशिष्ट-विशिष्ट अर्थ राशि
वाचक हैं।
मीढु: अकस्मात् प्राप्त लाभ (काण्टिन्जेण्ट गेन) को ‘मीढ’ कहते हैं।
मेधा: बिना पूंजी के अपने बुद्धि कौशल से अर्जित राशि ‘मेधा’ संज्ञक हैं। ‘या मेधां देवगणा:’ (यजुर्वेद 32/14) में मेधा शब्द धनवाची है। यह बौद्धिक संपदा अधिकारजनित अर्थात आईपीआर ड्रिवेन आय है।
श्वात्र: अनेक व्यापारों में अल्पकाल हेतु लगा धन या जो धन अल्प समय के लिए दिया जाए, ‘श्वात्र’ संज्ञक है।
वैध या लब्धव्य : किसी से अपनी धनराशि लेनी शेष है, उसे ‘वैध या लब्धव्य’ कहते हैं।
रेक्ण: वैध या लब्धव्य राशियों में से जो संशयित राशि है अर्थात जिसकी प्राप्ति संशयपूर्ण है, वह ‘रेक्ण’ कहलाती है। इसे आज डाउटफुल रिसीवेबल्स कहते हैं।
द्र्रविण: व्यवसाय से उपार्जित राशि में से जो लाभ व्यक्तिगत कार्य के लिए है, उसे ‘द्र्रविण’, स्वक्या स्वापतेय राशि कहते हैं।
राध: इस स्वापतेय द्र्रविण में से जो बचत निधि को बढ़ाती है, उसे ‘राध:’ कहते हैं।
रयि: क्रय करने से लेकर द्रविण तक के गतिशील व नीति परक शुद्ध आय से अर्जित धन को ‘रयि’ कहते हैं।
वरिव: व्यापारिक प्रभुत्व के लिए जो राशि विज्ञापन, प्रसिद्धि, विक्रय संवर्द्धन आदि पर व्यय की जाती है, वह ‘वरिव:’
संज्ञक है।
वृत: उधार ली गई राशि ‘वृत’ संज्ञक या ऋण संज्ञक है।
वृत्र: जिस राशि से किसी व्यापार या स्वामित्व की संपत्ति पर अपना प्रभुत्व स्थापित करते हैं, वह ‘वृत्र’ संज्ञक है।
पण्य विचक्षणा: शासकीय मूल्य निर्धारण प्राधिकरण, मूल्य विशेषज्ञ या कीमत बोर्ड जिससे उत्पादक या विक्रेता अनुचित मूल्य या बहुत ऊंचा मूल्य नहीं ले सकें (मनुस्मृति 8.398)। जातक कथाओं में मूल्य विवाचक को अग्धकारक कहा गया है।
प्रपण: लाभ हेतु वस्तुओं की खरीद
प्रतिप्रपण: वस्तुओं का पुनर्विक्रय
उत्थित: कड़ी स्पर्द्धा में प्रतिस्पर्द्धी व्यवसायियों को पीछे छोड़ने हेतु अपनाई रीति-नीति अर्थात बिजनेस स्ट्रेटजी या स्ट्रेटजिक डिसीजन या राणनीतिक निर्णय।
शुनं: रणनीतिक निर्णयों से व्यवसाय के हितों की रक्षा या लाभकारी या दीर्घकाल में हितकर व्यावसायिक निर्णय।
धन-दा: स्वयं की पूंजी अपर्याप्त होने पर व्यवसाय के लिए निवेश करने हेतु ऋण देने वाला ‘धनदा’ कहलाता है।
भूय: व्यवसाय में स्वयं की पूंजी अर्थात ‘सेल्फ एम्पलॉयड’ पूंजी को कहते हैं। ‘आॅनर्स कैपिटल’ अर्थात स्वामी की स्वनियोजित पूंजी जब व्यवसाय के लिए पर्याप्त होती है, व भूय: कहलाती है।
कनीय: व्यवसाय के लिए पूंजी का अपर्याप्त होना अर्थात व्यवसाय के लिए जितनी धन चाहिए, उतना न होना अर्थात पूंजी की अपर्याप्तता या अभाव।
सातघ्न: ‘सात’ अर्थात लाभ व ‘घ्न’ नाश करने वाला। सातघ्न का अर्थ होता है व्यवसाय में हानि उत्पन्न करने वाले कारण, व्यक्ति या अन्य प्रतिस्पर्द्धी उपक्रम। इसे हम कॉम्पीटीटर या कट थ्रोट कॉम्पीटीशन अर्थात गला काट स्पर्द्धा में लगे प्रतिस्पर्द्धी भी कहते हैं।
इस प्रकार अनेक सहस्राब्दियों पूर्व हमारे यहां उन्नत आर्थिक व व्यावसायिक प्रबंध विकसित था। उपरोक्त शब्दावली के अतिरिक्त उद्योग, व्यापार, वाणिज्य, व्यवसाय, कृषि, पशु व्यापार, दूर देश से समुद्र्र पार व्यापार और विविध आर्थिक गतिविधियों के लिए वेदों, स्मृतियों, गृह्य सूत्रों, राजशास्त्रीय ग्रन्थों, कौटिल्य व कामन्दक आदि के अर्थशास्त्र और महाभारत आदि में असंख्य शब्द, व्यावसायिक रीतिनीतियों, पद्धतियों एवं आर्थिक आचार शास्त्र पर प्रचुर विवेचन मिलता है।
(लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति हैं)
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