उमेश चतुर्वेदी
भारतीय राजनीति में इन दिनों कुछ ऐसी हलचलें भी हैं, जिनके दूरगामी संदेशों को या तो देखने की कोशिश नहीं हो रही है, या फिर राजनीतिक घटाटोप में उन पर साफ निगाह पड़ ही नहीं रही है। इन दिनों तीन क्षेत्रीय दल ऐसे हैं, जिनकी महत्वाकांक्षा छुपाए नहीं छुप रही हैं। पश्चिम बंगाल में तीसरी बार जीत हासिल करने के बाद ममता बनर्जी जिस तरह राजनीतिक दांव चल रही हैं, उसके संदेश स्पष्ट हैं। लगता है उनके सलाहकारों ने उन्हें समझा दिया है कि अगर वे गोलबंदी करने में सफल रही और तृणमूल की हैसियत को पश्चिम बंगाल की सीमाओं से बाहर निकालकर उसे राजनीति वृक्ष बनाने में सफल रही तो वह इतिहास रच सकती हैं।
राष्ट्रीय इतिहास के कठोर पत्थर पर अपना नाम खुदवाने की ममता बनर्जी की कोशिश नयी भले ही हो, लेकिन शरद पवार अरसे से ऐसी कोशिश में जुटे हुए हैं। प्रधानमंत्री पद की अपनी आकांक्षा को वे शाब्दिक जाल और राजनीतिक पैंतरेबाजी के माध्यम से हर मुमकिन मौके पर जाहिर करते रहे हैं। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में जीत के बाद जनता दल-यू नेता नीतीश कुमार तो मोदी विरोधी विपक्षी खेमे के प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक उम्मीदवार के तौर पर उभर भी चुके थे। लेकिन बाद में बिहार की सरकार को सहयोगी लालू प्रसाद यादव ने जब अपनी लालटेन की रोशनी में राह दिखाना तेज किया, नीतीश ने राष्ट्रीय इतिहास रचने के अपने सपने को कुछ वर्षों के लिए मुल्तवी कर दिया। बेशक वे भारतीय जनता पार्टी के साथ हैं, लेकिन उनकी भी महत्वाकांक्षा छुपी हुई नहीं है।
तीनों नेताओं को यह समझ आ गया है कि राष्ट्रीय इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अपना नाम उनके लिए दर्ज कराना तब ज्यादा आसान होगा, जब उनके दल क्षेत्रीयता की सीमाओं को पार करके अपना राज्यस्तरीय दर्जा पीछे छोड़ देंगे। कहने का मतलब यह है कि उनके पास अगर पचास लोकसभा सांसद होंगे तो देश के नेतृत्व पर उनके लिए दावेदारी आसान होगी, बशर्ते कि भारतीय जनता पार्टी को अगले आम चुनावों में बहुमत ना मिले।
कोलकाता की रायटर्स बिल्डिंग पर तीसरी बार कब्जा करने के बाद ममता बनर्जी ने बंगाल के बाहर पांव पसारने की रणनीति पर काम तेज कर दिया है। शायद यही वजह है कि उन्होंने कांग्रेस के कद्दावर नेता और मुख्यमंत्री रहे एडवर्ड फलेरियो को तृणमूल कांग्रेस में शामिल कर लिया। इसके पहले वे राहुल गांधी की युवा ब्रिगेड की सदस्य रही असम की लोकसभा सांसद सुष्मिता देव को ना सिर्फ तृणमूल में शामिल कर चुकी हैं, बल्कि उन्हें पश्चिम बंगाल से राज्यसभा में भी भेज दिया है। इसी तरह मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस दिग्गज मुकुल संगमा के भी तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने की अटकलें लगाई जा रही हैं। पश्चिम बंगाल के दिग्गज कांग्रेसी नेता प्रणब मुखर्जी लालकिले पर झंडा फहराने का सपना लिए इस दुनिया से जा चुके हैं। उनके ही बेटे अभिजीत मुखर्जी ममता के इसी सपने को पूरा करने के लिए उनके सहयोगी बन चुके हैं।
क्षेत्रीयता की सीमाओं से मुक्त होने की कोशिशों में शरद पवार भी शिद्दत से जुटे हुए हैं। लेकिन उनकी सीमा यह है कि वे अपने ही राज्य महाराष्ट्र में वैसे सर्वमान्य जन समर्थक आधार हासिल करने में सफल नहीं हुए हैं, जैसा ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल में हासिल है। सोनिया के विदेशी मूल को आधार बनाकर जब उन्होंने अलग पार्टी बनाई थी, तब उनके साथ मेघालय के दिग्गज पीए संगमा भी थे। उनके साथ सीताराम केसरी के नजदीकी रह चुके बिहार के तारिक अनवर भी थे। लेकिन बाद में संगमा ने अपनी अलग राह चुन ली और तारिक अनवर ने पुरानी कांग्रेस में ही अपना भविष्य तलाश लिया।
इस कोशिश में जनता दल-यूनाइटेड भी लगा हुआ है। जिस जनता पार्टी और जनता दल का वह अंश है, अतीत में उनका कद बहुत बड़ा होता था। आज भी माना जाता है कि अगर किसी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला और किसी क्षत्रप के पास अपने पचास-साठ सांसद हों तो वह प्रधानमंत्री बन सकता है। यह सोच ही थी कि मुलायम सिंह यादव लगातार ऐसी कोशिश करते रहे। यह बात और है कि पचास सांसद जिता पाने का आंकड़ा वे कभी पार नहीं कर पाए। ममता बनर्जी को लगता है कि कांग्रेस की जो हालत है, उसके चलते चुनावी मैदान में उसका बहुत ज्यादा उभर पाना आसान नहीं है। ऐसे में अगर भाजपा को जरूरी बहुमत नहीं मिला तो वह इतिहास रच सकती हैं। इसीलिए वे हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी अपनी पकड़ बढ़ाने की कोशिश में जुटी हुई हैं।
राष्ट्रीय बनने की कोशिश में कौन कामयाब होगा, यह कहना तो फिलहाल मुश्किल है। ममता और शरद पवार के दल में वैसा लोकतंत्र नहीं है, जैसा लोकतांत्रिक देश के जिम्मेदार राजनीतिक दलों में होता है। दोनों ही दलों में वंशवाद की स्पष्ट छाप दिखती है। इन संदर्भों में देखें तो जनता दल-यू में वंशवाद नहीं है। लेकिन वहां नीतीश के बाद नया नेतृत्व उभरता नहीं दिख रहा है। चाहे ममता हो या फिर शरद पवार या फिर जनता दल-यू, तीनों ही दलों के मूल में बुनियादी लोकतंत्र का अभाव है, उन्हें क्षेत्रीय सीमाओं से बाहर स्पष्ट स्वीकृति मिलना आसान नहीं लगता।