क्या झील का खामोश दर्पण, खोया है उनकी याद में?
क्या ध्यानमग्न हो हिमगिरि भी, उलझे हैं इस विवाद में?
विरह की सी धुन लगती है, झरनों के निनाद में।
कोई तो बोलो, आज अरे, मेरे वाद के प्रतिवाद में।
जीवन का ये जटिल प्रश्न, कैसे बने सरल?
जीवन बीत रहा पल-पल…………..
विचित्र विधाता की सृष्टि को, निरख मन है गोद में।
हाय तरस भी आता है, बैठी मृत्यु की गोद में।
एटम का वैज्ञानिक रत है, विध्वंस की शोध में।
बोल विधाता क्यों दे दी, यह बात इनके बोध में?
जिनको तुमने यह बोध दिया,
सृष्टि को मिटाना चाहते हैं।