ईश्वर का सान्निध्य जब भी मिले तभी उससे संमार्गगामिनी बुद्घि प्रदान करने की प्रार्थना करनी चाहिए। संसार में रोटी, कपड़ा और मकान की आवश्यकता तो है किन्तु वास्तव में ये मूलभूत आवश्यकताओं का एक अंग मात्र ही हैं। इनसे भी पूर्व में मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है-ज्ञानप्राप्ति। ज्ञान होगा तो रोटी, कपड़ा और मकान की समस्या का निपटारा सहज हो जायेगा। किंतु यदि ज्ञान नहीं है तो रोटी सामने रखी रहेगी और हम उसे या तो खायेंगे नहीं या खायेंगे भी तो बेतरतीब ढंग से ही खायेंगे, इसलिए हमारे यहाँ रोटी से पहले ज्ञान को रखा गया। हम समाज में देखते भी हैं कि जो व्यक्ति पैसे वाला है, अथाह संपत्ति उसके पास है किन्तु ज्ञान नहीं है तो वह कपड़ों को पहनने और मकान आदि को सुव्यवस्थित और सुनियोजित ढंग से नहीं बना पाता। इससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति की मौलिक और प्राथमिक आवश्यकता है ज्ञान की प्राप्ति करना। इसलिए हमारे यहाँ सामाजिक वर्ण व्यवस्था में सर्वोच्च और सर्वोपरि स्थान ब्राह्मण को दिया गया, जिस का कार्य वेद का पठन-पाठन यानि ज्ञान का प्रचार और प्रसार करना ही प्रमुख था। यही कारण रहा कि महर्षि दयानन्द जी ने वेद का पढऩा-पढ़ाना तथा यदि कोई पढ़ और पढ़ा न सकता हो तो सुनने और सुनाने को प्रत्येक आर्यसमाजी का पुनीत कत्र्तव्य बताया। जिससे समाज में ज्ञान गंगा का प्रवाह कहीं अवरूद्घ न हो जाये।
ब्राह्मण ज्ञान का पर्याय है। वह समाज में अज्ञान नाम के शत्रु से लड़ता है और अपने बुद्घिबल से समाज में से उसके सबसे बड़े और सबसे पहले शत्रु को मार भगाना अपना कत्र्तव्य समझता है। इसलिए उसका समाज में सर्वाधिक सम्मानित स्थान है। हमने रोटी से पहले बुद्घि की उपासना करना सीखा है। ईश्वर से हमने रोटी-रिजक नहीं माँगा, अपितु अपने गुरूमंत्र में भी उससे माँगा-धियो यो न: प्रचोदयात। अर्थात् हमारी बुद्घियों को सन्मार्ग में प्रेरित करो।