भारत में कुछ मुस्लिम संगठनों और मुस्लिम विद्वानों की ओर से समय-समय पर यह मांग उठाई जाती रही है कि भारतवर्ष में उनका पर्सनल ला शरीयत लागू होना चाहिए। इस पर कई हिंदूवादी संगठन आपत्ति करते रहे हैं कि जब भारत वर्ष में संविधान के अंतर्गत सब कुछ होना निश्चित है तो फिर किसी का व्यक्तिगत कानून नहीं माना जा सकता । अपनी इस दलील के समर्थन में ऐसे विद्वानों का कथन होता है कि भारत का संविधान समान नागरिक संहिता की बात करता है इसलिए किसी भी प्रकार के व्यक्तिगत कानून को देश में लागू नहीं किया जा सकता। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मुस्लिम पर्सनल लॉ शरीयत पर आधारित है। शरीयत को कुरान के प्रावधानों के साथ ही पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं और प्रथाओं के रूप में समझा जा सकता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-14 भारत के सभी नागरिकों को ‘कानून का समान संरक्षण’ देता है, लेकिन जब बात व्यक्तिगत मुद्दों ( शादी, तलाक, विरासत, बच्चों की हिरासत) की आती है तो मुसलमानों के ये मुद्दे मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत आ जाते हैं। मुस्लिम पर्सनल लॉ की शुरुआत साल 1937 में हुई थी।
आगे बढ़ने से पहले हम थोड़ा यह विचार करते हैं कि आखिर शरीयत बनी कैसे ? अरब में इस्लाम के आने से पहले, वहां एक कबीलाई सामाजिक संरचना थी। कबीलों की यह संरचना खून खराबे ,मारकाट, हिंसा की असामाजिक और दानवीय परंपराओं पर आधारित थी। इसमें वही मुकद्दर का सिकंदर होता था जो अन्य सभी लोगों को अपनी हैकड़ी और लाठी के बल पर अपने अधीन करने में सफल हो जाता था। वास्तव में इस प्रकार का सामाजिक जीवन तानाशाही को प्रोत्साहित करने वाला जीवन होता है। इन कबीलों के कायदे कानून व सामाजिक नियम किसी भी प्रकार से लिखित नहीं थे। बल्कि जिस कबीले का प्रमुख या मुखिया दूसरे कबीलों पर शासन करने या उन्हें अपना गुलाम बना कर रखने में सफल हो जाता था वही अपने ढंग से कायदे कानून और नियम बना लेता था । कुछ नियम या कायदे कानून परंपरागत ढंग से भी उसका मार्गदर्शन करते थे। कबीलों की यह संस्कृति लचर या उदार नहीं थी। यही कारण रहा कि कबीलों के कठोर नियम सामान्यतः देर तक परंपराओं में बने रहे । बाद में अरब में जब इस्लाम की उत्पत्ति हुई तो कुरान के नियम कायदे कानून आगे हो गए और कबीलों के प्रचलित कायदे कानून ढीले पढ़ते चले गए।
कुरान कुरान के यह कायदे कानून ही धीरे-धीरे शरीयत का रूप ले गए। इस्लामिक समाज शरीयत के मुताबिक चलता है। इसके साथ ही शरीयत हदीस ( पैगंबर के काम और शब्द) पर भी आधारित है।
यह बहस करना एक बड़ी गलती होगी कि कई सदियों से शरीयत में कोई बदलाव नहीं हुआ है। पैगंबर के जिंदा रहते हुए कुरान में लिखे कानून पैगंबर और उनके समाज के सामने आ रही समस्याओं के समाधान के लिए थे। उनकी मौत के बाद कई धार्मिक संस्थानों और अपने न्यायिक व्यवस्था में शरीयत लागू करने वाले देशों ने समाज की जरूरतों के मुताबिक इन कानूनों की व्याख्या की और इन्हें विकसित किया। इस्लामिक लॉ की चार संस्थाएं हैं, जो कि कुरान की आयतों और इस्लामिक समाज के नियमों की अलग-अलग तरह से व्याख्या करते हैं। चार संस्थाएं (हनफिय्या, मलिकिय्या, शफिय्या और हनबलिय्या) चार अलग-अलग सदियों में विकसित हुई। मुस्लिम देशों ने अपने मुताबिक इन संस्थाओं के कानूनों को अपनाया।
भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन एक्ट साल 1937 में पास हुआ था। इसके पीछे मकसद भारतीय मुस्लिमों के लिए एक इस्लामिक कानून कोड तैयार करना था। उस वक्त भारत पर शासन कर रहे ब्रिटिशों की कोशिश थी कि वे भारतीयों पर उनके सांस्कृतिक नियमों के मुताबिक ही शासन करें। तब(1937) से मुस्लिमों के शादी, तलाक, विरासत और पारिवारिक विवादों के फैसले इस एक्ट के तहत ही होते हैं। एक्ट के मुताबिक व्यक्तिगत विवादों में सरकार दखल नहीं कर सकती।
भारत में अन्य धार्मिक समूहों के लिए भी ऐसे कानून बनाए गए हैं। देश में अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग सिविल कोड है। उदाहरण के तौर पर 1956 का हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, इसके तहत हिंदू, बुद्ध, जैन और सिखों में विरासत में मिली संपत्ति का बंटवारा होता है। इसके अलावा 1936 का पारसी विवाह-तलाक एक्ट और 1955 का हिंदू विवाह अधिनियम इसके उदाहरण हैं।
शरीयत एक्ट की प्रासंगिकता पर पहले भी कई बार बहस हो चुकी है। पहले ऐसे कई मामले आए हैं, जब महिलाओं के सुरक्षा से जुड़े अधिकारों का धार्मिक अधिकारों से टकराव होता रहा है। इसमें शाह बानो केस प्रमुख है। 1985 में 62 वर्षीय शाह बानो ने एक याचिका दाखिल करके अपने पूर्व पति से गुजारे भत्ते की मांग की थी। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी गुजारे भत्ते की मांग को सही बताया था, लेकिन इस फैसले का इस्लामिक समुदाय ने विरोध किया था। मुस्लिम समुदाय ने फैसले को कुरान के खिलाफ बताया था। इस मामले को लेकर काफी विवाद हुआ था। उस वक्त वक्त सत्ता में कांग्रेस सरकार थी। सरकार ने उस वक्त Muslim Women (Protection of Rights on Divorce Act) पास किया था। इस कानून के तहत यह जरूरी किया गया था कि हर एक पति अपनी पत्नी को गुजारा भत्ता देगा। लेकिन इसमें प्रावधान था कि यह भत्ता केवल इद्दत की अवधि के दौरान ही देना होगा, इद्दत तलाक के 90 दिनों बाद तक ही होती है।
साल 1930 से लेकर अब तक महिलाओं के आंदोलन का अहम एजेंडा सभी धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के साथ भेदभाव ही रहा है। इसी साल मार्च में केरल हाईकोर्ट के जज जस्टिस बी केमल पाशा ने विरोध जाहिर किया था कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत मुस्लिम महिलाओं को समानता का अधिकार नहीं दिया जाता। हालांकि, पर्सनल लॉ में बदलाव के खिलाफ प्रदर्शन इसमें संशोधन को मुश्किल बना देते हैं। एक्ट के मुताबिक व्यक्तिगत मामलों में सरकार को दखल नहीं देना चाहिए। इनका निपटारा कुरान और हदीस की व्याख्या के मुताबिक ही होगा।
वास्तव में इस्लाम कायदे और फायदे के अनुसार अपने आपको ढालने का प्रयास करता है। जहां उसे भारत के संविधान के अंतर्गत सुविधाएं मिलना अच्छा लगता है, वहां वह फायदे का सौदा देखते हुए संविधान की बात करने लगता है और जहां उसे अपनी शरीयत से फायदा होता हुआ नजर आता है वहां वह शरीयत के कायदे के अनुसार अपने को शासित अनुशासित होता देखना चाहता है। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि 21 वी शताब्दी में भी मुस्लिम महिलाएं अपने वे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकार प्राप्त करने में असफल रही हैं जो कि उनके मौलिक अधिकार हैं। इसके लिए इस्लाम के तथाकथित विद्वान और व्याख्याकार ही अधिक जिम्मेदार हैं, जो 14वीं शताब्दी के कानून और तानाशाही परंपरा से समाज को हांकने का प्रयास करते हैं। निश्चित रूप से उनकी इस प्रकार की मनोवृति से मुस्लिम महिलाओं को ही अधिक नुकसान उठाना पड़ता है।
इस्लामिक विद्वानों के अनुसार शरिया का शाब्दिक अर्थ, ‘पानी का एक स्पष्ट और व्यवस्थित रास्ता’ होता है। इस प्रकार शरिया के अनुसार मुसलमानों को एक व्यवस्थित जीवन जीने की शिक्षा दी जाती है। इसमें उन्हें इस्लाम में बताई गई चीजों का पालन करना होता है, मसलन नमाज पढ़ना, रोजा रखना और गरीबों को दान करना शामिल है।
शरिया एक मुसलमान को दैनिक जीवन के हर पहलू से अवगत कराता है। उदाहरण के लिए, एक मुस्लिम को उसके सहयोगी काम के बाद पब में आने के लिए बुलाते हैं। मगर अब वो ये सोच रहा है कि उसे जाना चाहिए या नहीं। ऐसे में वो मुस्लिम व्यक्ति सलाह के लिए शरिया के विद्वान के पास जा सकता है, ताकि ये सुनिश्चित हो सके कि वे अपने धर्म के कानूनी ढांचे के भीतर कार्य कर पाए। दैनिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में जहां मुसलमान मार्गदर्शन के लिए शरिया कानून की ओर रुख कर सकते हैं, उनमें पारिवारिक कानून, वित्त और व्यवसाय शामिल हैं।
शरिया कानून अपराधों को दो कैटेगरी में बांटता है। इसमें पहला ‘हद’ अपराध है, जो गंभीर अपराध है और इसमें सजा दी जाती है. दूसरा ‘तजीर’ अपराध है, जहां सजा देने के फैसले को जज के विवेक पर छोड़ दिया जाता है। ‘हद’ अपराधों में चोरी शामिल हैं। ऐसा करने पर अपराधी के हाथ काट दिए जाते हैं। वहीं, यौन संबंधी अपराधों के लिए कठोर दंड दिया जाता है, जिसमें पत्थर मारकर मौत की सजा देना शामिल है। कुछ इस्लामी संगठनों ने तर्क दिया है कि ‘हद’ अपराधों के लिए दंड मांगने पर इसके नियमों में सुरक्षा के कई उपाय तय हैं। यही वजह है कि सजा से पहले ठोस सबूत की जरूरत होती है। यदि मुस्लिमों का शरिया कानून लागू होता है तो फौजियों पर पत्थर फेंकने वालों को भी दण्ड शरिया के अनुसार ही दिया जा सकेगा । इसके अतिरिक्त जितना भर भी अपराध समाज में चल रहा है, उस पर नियंत्रण स्थापित करने में भी सफलता मिलेगी। क्योंकि फिर शरिया के कठोर कानूनों के भय से कोई भी मुसलमान अपराध करने से पहले सौ बार सोचेगा।
यदि मुस्लिम विद्वान देश में वास्तविक शांति व्यवस्था चाहते हैं और अपराधों में सम्मिलित मुस्लिम समाज के लोगों को भी शरिया के कठोर कानूनों के अंतर्गत सजा दिलाने की बात करते हैं तो इसमें हिंदू समाज को भी सहयोग व समर्थन करना चाहिए। उसे यह मांग करनी चाहिए कि देश में पूरा शरिया कानून अक्षरश: लागू होना चाहिए। वास्तव में हम सबका सामूहिक उद्देश्य देश में शांति व्यवस्था बनाए रखना है और यदि इस काम के लिए शरिया का उपयोग किया जा सकता है तो ऐसा करने में किसी प्रकार का परहेज नहीं होना चाहिए।
— प्रभजीत सिंह
सह संपादक : उगता भारत