कश्मीर को पंडितों की भूमि कहा जाता है। पंडित का अर्थ यहां किसी जाति विशेष से न होकर विद्घानों से है। कश्मीर सदा से ही ऋषियों की तप: स्थली रहा है। यहां लोग लोक-परलोक को सुधारने और मोक्ष की प्राप्ति के लिए आत्मसाधना हेतु जाया करते थे। इसलिए ऐसे आत्म साधनारत मोक्षाभिलाषी दिव्य जनों की भूमि कश्मीर के समस्त निवासियों को ही पंडित के संबोधन से संबोधित किया जाता रहा है।
मुस्लिम फकीर और कश्मीर का धर्मांतरण
मुस्लिमों ने भी इस भूमि के इस रूप को समझा और यहां आकर कितने ही लोगों ने आत्मसाधना का रास्ता पकडऩा चाहा। यहां राजाओं को हराने में जब मुस्लिम सुल्तान या बादशाह असफल हो गये तो इन आत्मसाधनारत मुस्लिम फकीरों ने या सूफी संतों ने उन राजाओं को हराने के लिए अपने सुल्तानों अथवा बादशाहों के लिए भूमिका बनानी प्रारंभ की। इन लोगों ने यहां के मूल निवासियों का धर्मांतरण कराना आरंभ किया। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे चली पर इसके उपरांत भी कश्मीर के लिए यह प्रक्रिया बड़ी घातक रही। बुलबुलशाह पहली सूफी था जिसने रिंचन को सदरूद्दीन बना दिया था, और शाहमीर पहला मुस्लिम धर्म प्रचारक था, जिसने कोटारानी को सत्ताच्युत करने में सफलता प्राप्त की थी।
कोटारानी के आत्मबलिदान के विषय में डा. रघुनाथ सिंह ने अपने ‘राजतरंगिणी’ के भाष्य में लिखा है-
‘‘जनता निरपेक्ष बैठी रही। परिणाम हुआ वही उजड़ी वही नष्ट हुई। पुरातन कश्मीर नष्ट हुआ। हिंदुओं के लिए यदि यह दुखांत घटना थी तो शाहमीर एवं मुस्लिम जगत के लिए मंगल का दिन था। शुभ घड़ी थी हर्षोल्लास, उमंगमय अवसर था। दारूल हरब से दारूल इस्लाम बनते, कश्मीर का नवजीवन था। कुफ्र का अंत था। ईमान का उदय था।
कश्मीर के दुर्दिन अभी भी जारी हैं
भारत के राष्ट्रीय इतिहास में इस युगांतर कारी घटना का कहीं उल्लेख नही है। जबकि वास्तव में इस घटना ने भारत के युगों पुराने इतिहास को एक ऐसे अंधे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था, जिससे वह सदियों तक उभरने वाला नही था। यह दुख के साथ कहना पड़ता है कि भारत के 1235 वर्षीय (मौ. बिन कासिम के आक्रमण 712 ई. से 1947 तक) विजय, वैभव और वीरता के इतिहास में कश्मीर ही वह स्थान है जो आज तक अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा है। भारत की सरकार की नीतियों में पिछले 67 वर्ष में इस कश्मीरी स्वतंत्रता के संघर्ष को सल्तनत और मुगलिया काल की भांति अब भी स्वतंत्रता संघर्ष नही माना जा रहा है। जबकि पाकिस्तान ने जितना कश्मीर ले लिया है, उसे वह ‘आजाद कश्मीर’ कहता है और शेष को लेने के लिए वह कश्मीर के आतंकियों को स्वतंत्रता सैनिक कहता है। यह सोच का अंतर है। कदाचित इसी सोच के कारण हमने तीस हजार से अधिक अपने सैनिक या आम नागरिक पिछले 25 वर्षो में मरवा लिये हैं।
अब चलें अतीत की ओर:शाहमीर की योजना
पाठकों को स्मरण होगा कि 1343 ई. शाहमीर ने जब कोटारानी को समाप्त किया तो वह कश्मीर का शासक बन बैठा था। उसने शासनसूत्र अपने हाथ में लेते ही कश्मीर में मुस्लिम मत को फैलाकर अपनी सत्ता को सुदृढ़ आधार प्रदान करने की योजना पर कार्य करना आरंभ किया। एक प्रकार से इस्लाम ‘राजधर्म’ बन गया और उसके प्रचार-प्रसार के लिए राज्य ही अपने लोगों को दुखी करने लगा। हिंदुओं को उसने विशेष यातनाएं दीं। विशेषत: लावण्य नामक राजपूतों को उसने अपने दमनचक्र का शिकार बनाया। उसने बड़ी सावधानी से कार्य करना आरंभ किया। अपने शासन संचालन में सहायता के लिए तो उसने अभी भी कितने ही हिंदू पंडितों को उच्च प्रशासनिक पद प्रदान किये, परंतु इसी समय उसने मुस्लिम धर्मप्रचारकों और विद्वानों को भी कश्मीर की धरती पर प्रश्रय प्रदान किया।
बढ़ गया विदेशियों का प्रवेश
डा. रघुनाथ सिंह का कथन है-‘‘शाहमीर वंश का शासन होने पर शनै: शनै: कश्मीर में विदेशियों का प्रवेश होने लगा। खुरासान, तुर्किस्थान इत्यादि सीमांत पर्वतीय प्रदेशों के लोगों का कश्मीर में प्रवेश होने लगा। मुस्लिम शासन होने के कारण उन्हें सुविधाएं मिलने लगीं। कश्मीर में मुसलमानों की आबादी कम थी। हिंदुओं से मुसलमानों ने राज्य लिया था अत: सुल्तान अपनी स्थिति सुदृढ़ बनाने के लिए मुस्लिम जनता चाहते थे। अत: कश्मीर में अबाध गति से विदेशी मुसलमानों का प्रवेश होने लगा। कालांतर में वे कश्मीर के लिए एक समस्या बन गये। वे कश्मीरी रहन -सहन एवं प्रकृति से परीचित नही थे। उनके आगमन के साथ हिंसा एवं क्रूरता ने कश्मीर में प्रवेश किया जो यहां के निवासियों के लिए पहले सर्वथा अपरिचित थी। कुछ क्रूर घटनाओं का वर्णन शहमीर वंश के इतिहास में मिलता है, परंतु वे अपवाद मात्र हैं। तत्कालीन काल तथा उसके पश्चात होने वाली क्रूरताओं के अनुपात में नगण्य हैं।’’
इस प्रकार कश्मीर पर उन लोगों का आधिपत्य हो गया जिनका कश्मीर की संस्कृति से दूर दूर तक भी कोई संबंध नही था। ये लोग कश्मीर की चेतना और आध्यात्मिक सांस्कृतिक धरोहर से किंचित भी परिचित नही थे। पर इसके उपरांत भी कश्मीर की हिंदू जनता अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती रही। वह संघर्ष भी प्रेरणा दायी रहा और उस प्रेरणादायी इतिहास के कारण ही कश्मीर आज तक भारत के मानचित्र में है।
होने लगा इस्लाम का प्रचार
मुस्लिम इतिहासकार मुहम्मद दीनफाक ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ कश्मीर’ में विदेशी सैय्यद ताजुद्दीन के कश्मीर आगमन पर लिखा है-‘‘सैय्यद ताजुद्दीन के साथ उसके दो शिष्य सैय्यद मसूद और सैय्यद यूसुफ भी थे। सैय्यद ताजुद्दीन का छोटा भाई सैय्यद हुसैन सिमनानी भी आया। कहते हैं-इन दोनों भाईयों को सैय्यद हमदानी ने इन निर्देशों के साथ कश्मीर भेजा था कि क्या यह प्रदेश उन्हें तैमूर के हमलों से बचाने योग्य है? क्योंकि यह संदेश किया जा रहा था कि तैमूर सभी सैय्यदों को मौत के घाट उतारने वाला है।’’
सैय्यद लोग कश्मीर में अपना दीनी प्रचार सफलता से करने लगे। उन्हें मिलने वाली सफलता से वह उत्साहित थे।
सैय्यदों का छद्मी स्वरूप और भारतीय धर्म
इस समय भारतीय धर्म में दुर्बलता आ गयी थी। परंतु वास्तव में सैय्यदों की सफलता के पीछे हिंदू धर्म की कोई दुर्बलता नही थी, अपितु सैय्यदों का छद्मी स्वरूप इस सफलता के लिए अधिक उत्तरदायी है। हिंदू स्वभाव से शांतिप्रिय हंै और धर्मप्रेमी हैं। उन्हेें शांति और धर्म की अच्छी बातें कहीं से भी ग्रहण करने में कोई असुविधा नही होती है, जैन बौद्घ आदि संप्रदायों ने अपनी-अपनी शिक्षाएं शांति और विनम्रता के साथ प्रदान कीं तो हिंदुओं ने उनसे कोई संघर्ष नही किया। इस सत्य को संभवत: मुस्लिम सूफी संतों ने समझ लिया था, इसलिए उन्होंने अपनी शिक्षाएं कश्मीरियों को मिलावट करके देनी आरंभ कीं, जिनका प्रभाव शांतिप्रिय हिंदुओं पर सकारात्मक गया। सैय्यद अली हमरानी और सैय्यद मोहम्मद हमदानी के नेतृत्व में कश्मीर में शांति के साथ धर्मांतरण की विषबेल फैलने लगी। बड़ी सावधानी से इस शांतिप्रिय प्रदेश में वेद धर्म को नष्ट करने का कार्य प्रारंभ हो गया।
700 लोग लग गये कश्मीर का स्वरूप बदलने में
जिस कार्य को 1835 ई. में लार्ड मैकाले ने भारत में नई शिक्षा प्रणाली लागू कराने के माध्यम से करना आरंभ किया उसे सैय्यद शाह हमदानी ने 1372 ई. में अपने मात्र 700 स्वदेशी अनुयायियों के बल पर करना आरंभ कर दिया। जिस भारत की भूमि पर अपनी संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए मुस्लिमों को भी लाखों की संख्या में मिटना पड़ा, उसी भारत की भूमि पर मात्र 700 लोग अपने धर्मप्रचार के माध्यम से कश्मीर के धर्मांतरण की कार्यवाही में लग गये। कश्मीर को संस्कृति के गढ़ रहे गांवों और नगरों को अपना केन्द्र बनाकर मुस्लिम धर्म प्रचारकों को कश्मीर के गांव-गांव में उतार दिया गया। लोगों को कई प्रकार के प्रलोभन भी दिये गये। इतिहासकार एम.डी. सूफी अपनी पुस्तक ‘कश्मीर’ में हमें बताते हैं-‘सैय्यदों ने मुस्लिम राजाओं में बहुत प्रसिद्घि प्राप्त की। इनका प्रभाव राजाओं पर बढ़ा। इन्होंने अनेक (प्रकार से अपने) प्रचार केन्द्र स्थापित किये, जहां लोगों को नि:शुल्क भोज दिया जाता था और तत्पश्चात उन्हें इस्लाम में कबूल कर लिया जाता।’
कश्मीरी पंडित हटाये जाने लगे प्रशासनिक पदों से
स्पष्ट है कि भारत के मूल हिंदू समाज को किसी भी प्रकार से विनष्ट करना मुस्लिमों का प्रमुख ध्येय था। शनै:-शनै: कश्मीरी पंडितों को सुल्तान के द्वारा प्रशासकीय पदों से भी हटाया जाने लगा। जहां-जहां हिंदुओं ने इस्लामिक कुचक्र को समझ लिया वहां-वहां उन्होंने उसका विरोध भी किया। कितने ही स्थानों पर भयंकर संघर्ष भी हुए, परंतु कश्मीर की भौगोलिक स्थिति ही कुछ ऐसी थी कि उसके कारण हिंदू स्वतंत्रता का गला घोंटने में मुस्लिम समाज को सफलता ही मिलती चली गयी।
कश्मीर की भौगोलिक स्थिति और धर्मांतरण
हिंदू कश्मीर से बाहर के किसी शासक या प्रमुख व्यक्ति से अपनी सहायता नही ले सकता था। जब तक बाहर से कोई सहायता के लिए आने का प्रयास करता तब तक तो भयंकर विनाश हो चुका होता था। एक प्रकार से कश्मीर घाटी में बंद हिंदू समुदाय ने अपने आपको देश के शेष हिन्ंदू समुदाय से दूर एक किले में घिरा हुआ और असहाय अनुभव किया। इसके अतिरिक्त कश्मीर की अपनी आबादी बहुत कम थी और लोग छोटे-छोटे गांवों में (दो चार या दस पांच घरों को मिलाकर) रहकर बिखरे पड़े थे। जिन्हें अपने साथ लाने या उन पर अपना रंग चढ़ाने में मुस्लिम सूफि यों को अधिक कठिनाई का सामना नही करना पड़ा। प्रशासनिक और शासकीय सहयोग मुस्लिमों के लिए पहले से ही उपलब्ध था। इसलिए उन्हेंाने बड़ी सुगमता से कितने ही स्थानों पर इस्लामिक शिक्षा केन्द्रों की स्थापना कर डाली। इन शिक्षा केन्द्रों से इस्लाम का प्रचार-प्रसार का कार्य सुगम हो गया। जिससे कश्मीर के इस्लामीकरण की प्रक्रिया का मार्ग प्रशस्त हो गया। सर आलेल स्टाइन ने राजतरंगिणी के अपने भाष्य में लिखा है–‘‘इस्लाम ने धीरे-धीरे धर्मांतरण द्वारा कश्मीर में अपना मार्ग बनाया है, न कि शक्ति के द्वारा विजय प्राप्त करके। जिसका आधार बनाने में दक्षिणी और मध्य एशिया से आये धर्म प्रचारकों का विशेष योगदान रहा है।’’
कश्मीर का गौरवमयी हिंदू अतीत
इस प्रकार वह कश्मीर अब उजड़ता जा रहा था, जिसे कभी कश्यप ऋषि ने बसाकर विश्व का स्वर्ग तैयार किया था, और यहां अपना आश्रम स्थापित कर भारतीय वैदिक धर्म को यहां शांति और मोक्ष प्राप्ति का साधन बना दिया था। साथ ही जलोदभव नामक राक्षस का अंत कर यहां शांति और विकास की नई परिभाषा गढ़ी थी। यह वही कश्मीर था जिसकी राजधानी श्रीनगर की स्थापना मौर्य सम्राट अशोक ने की थी और यहां आकर बौद्घ धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। उस समय के बने बौद्घ विहार यहां आज भी मिलते हैं। यह घटना तीसरी शताब्दी ई. पूर्व की है। गुप्तकाल में कश्मीर राज्य को 122 पहाड़ी रियायतों में विभक्त कर दिया गया था। यहां पर छठी शताब्दी के लगभग हूणों का अधिकार था। कभी इस पावन भूमि पर काकोट, उत्पल और लोहारवंशी राजाओं ने भी शासन किया था। यहां के हिंदू राजाओं में ललितादित्य सबसे प्रतापी सम्राट हुए। उनका शासन 697 ई से 738 ई. माना गया है। अब सदियों और युगों पुराना हिंदू गौरव यहां सिमटने लगा था।
हो रहा था तेजी से परिवर्तन
इतिहास बड़ी तेजी से अपनी परिक्रमा पूर्ण कर रहा था। कश्मीर की भूमि, कश्मीर की हवाएं, और कश्मीर का आकाश उस परिवर्तित होते इतिहास के साक्षी बन रहे थे। विस्मित नेत्रों से वे सनातन कश्मीर पर चढ़ते नश्वर सिद्घांतों और नश्वर मान्यताओं को देख रहे थे। वे एक ऐसे परिवर्तन के साक्षी बन रहे थे जो इस ऋषि भूमि की संस्कृति को खा रहा था, धर्म को निगल रहा था और इतिहास को पूर्णत: धूलि धूसरित कर रहा था।
भारतीय संस्कृति में प्रेम का बंधन
‘‘एक बार एक धर्म गुरू अपने शिष्यों के साथ किसी पहाड़ी पर चढ़ रहे थे। यात्रा गुरूजी को थकाने वाली थी और वे हांफने लगे। इसी समय उनकी दृष्टि एक लडक़ी पर पड़ी, जिसकी अवस्था 9-10 वर्ष की होगी। वह बच्ची अपनी पीठ पर एक दो तीन वर्ष के बच्चे को लिये जा रही थी। बच्ची बड़ी प्रसन्नचित थी, खेलती जा रही थी और बच्चे से बार-बार बोलती-‘गिराऊ! गिराऊं!!’ छोटा सा बच्चा पीठ पर कमल की भांति मुस्कराता जा रहा था, बच्ची पुन: वही शब्द बोलती ‘गिराऊं, गिराऊं।’
उस कन्या के इस खेल और साहस ने धर्म गुरू की जिज्ञासा बढ़ा दी। कुछ उन्हें प्रेरणा भी मिली कि वह बच्ची अपना स्वयं का और इस बच्चे का भार कितनी प्रसन्नता से लिये जारही है, और तू शक्तिशाली होकर भी हाफ रहा है। तब धर्मगुरू ने जिज्ञासावश बच्ची से पूछ ही लिया–‘‘तू इस बच्चे को अपनी पीठ पर लाद कर चल रही है, तुझे बोझ नही लगता?’’
उस कन्या ने बड़े भोले पन से उत्तर दिया-‘इसमें भार कैसा? यह कोई भार है? यह तो मेरा भाई है।’’ यह है भारतीय संस्कृति बहन के लिए छोटा भाई भाई है, बोझ नही। परस्पर स्नेह और अपनत्व के भावों से दोनों इस प्रकार गुंथे थे कि बहन को भाई बोझ नही दिखता था और आनंद व उत्साह के साथ उसे लिये जा रही थी।
अब यात्रा होती जा रही थी बोझिल
यही भाव हमारे इस सारे आर्यावत्र्त में व्याप्त रहता था। छोटों को पीठ पर लादकर चलने में लोगों को आनंद आता था। सहचर्य और सहयोग का भाव लोगों में बंधुत्व के जीवनप्रद। संस्कार का निर्माण करता था, जिससे यात्रा थकाऊ न होकर उल्लास प्रद होती जाती थी।
अब कश्मीर की हवाओं में संप्रदाय की घुटन व्याप्त होती जा रही थी। जिससे यात्रा थकाऊ और बोझिल बनने वाली थी। इतिहास इस घटनाक्रम को लेकर उसी धर्मगुरू की भांति थकान अनुभ्ज्ञव कर रहा था जोपहाड़ी पर चढ़ रहा था पर हांफने लगा था।
हमदानी बना ‘बानी ए कलाम’
कश्मीर का तीव्रता से धर्मांतरण करने वाले सैय्यद अली हमदानी को कश्मीर में ‘बानी ए कलाम’ की उपाधि देकर सम्मानित किया गया। इस व्यक्ति ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए श्रीनगर को अपने प्रचार का केन्द्र बनाया।
अल्लाऊदीनपुर से ‘खनक-ए-मौला’ तक
जिस स्थान पर उसने अपना केन्द्र स्थपित किया, उसे उसने अल्लाऊदीनपुर का नाम दिया। आजकल इस स्थान को ‘खनक-ए-मौला’ कहा जाता है। अलाउद्दीनपुर से ‘खनक-ए-मौला’ तक की यह दुखद यात्रा कश्मीर के लिए बड़ा दुखद अनुभव था। उस समय बाहर से आने वाले लोगों ने अर्थात सूफी फकीरों ने इस प्रकार ढोंग का आवरण लपेटा था कि ऊपर से तो लोगों को योग की शिक्षा दिया करते थे, परंतु भीतर ही भीतर ‘भोग’ फूलने फलने लगा था। अभी तक कश्मीर के लोगों ने अपनी परंपरागत वेशभूषा, भाषा धार्मिक रीति रिवाज और चिरकाल से चले आ रहे सामाजिक मूल्यों को नही छोड़ा था, परंतु जब सैय्यद अली हमदानी ने देखा कि अब धीरे-धीरे इन लोगों पर इस्लाम का रंग चढऩे लगा है, तो उसने इन सबमें परिवर्तन करने की ओर ध्यान दिया। इसके लिए उसने बड़ी सावधानी से काम किया और सुल्तान को प्रेरित कर शरीयत के प्राविधानों को राजकीय कानूनों का पालन करने के लिए जनता को शिक्षा देने लगा।
हिन्दू कटते गये मूल से
उसके इस कार्य के दूरगामी परिणाम आये। कश्मीर के जो लोग अभी तक भी कश्मीर की धरती से और भारतीय संस्कृति से अपना आत्मीय संबंध और लगाव स्थापित किये हुए थे उन्हें उससे काटना हमदानी के लिए आवश्यक था, और यही हुआ कि लोग धीरे-धीरे अपने मूल से कटते चले गये।
आ गयी अरबी टोपी
सैय्यद अली हमदानी को इतने से भी संतोष नही था, वह कश्मीर का पूर्णत: इस्लामीकरण करना चाहता था। इसलिए वह हर स्थान पर इस्लामिक रंग चढ़ता देखना चाहता था। उसकी इच्छा थी कि जहां धर्मांतरण का कार्य हो चुका था, वहां लोगों को पूर्णत: इस्लामिक रंग ढंग में ढाल दिया जाना चाहिए। अपनी इस योजना पर काम करते हुए हमदानी ने अपने सुल्तान को इस्लामिक कानून लागू कराने के लिए तो प्रेरित किया ही साथ ही अपनी वेशभूषा, भाषा और राज्य की संपूर्ण व्यवस्था को भी इस्लामिक रंग में रंगने के लिए प्रेरित किया। उसने इस्लामी ध्वज और अरबी टोपी को भी यहां प्रचलित कराया। फलस्वरूप सुल्तान भी अरबी टोपी पहनने लगा।
संन्यासिनी लल्लेश्वरी से बनाये संबंध
कश्मीर में उन दिनों एक हिंदू संन्यासिनी लल्लेश्वरी की बड़ी चर्चा थी। उसके ओजस्वी और तेजस्वी व्यक्तित्व से लोग प्रभावित थे, इसलिए उसके भारतीय धर्म, संस्कृति संबंधी विचारों की सर्वत्र धूम मची थी। सैय्यद अली हमदानी को अपना कार्य करने के लिए संन्यासिनी लल्लेश्वरी का प्रयोग करना उचित लगा। उसने संन्यासिनी से अपने मित्रतापूर्ण संबंध बनाये और साथ-साथ कार्य करने के लिए संन्यासिनी की सहमति प्राप्त कर ली। संन्यासिनी हिंदू धर्म में आयी मूर्ति पूजा की विरोधी थी और लोगों को वेदों के और प्राचीन साहित्य के प्रमाणों के माध्यम से समझा रही थी कि मूर्तिपूजा वेद विरूद्घ है।
उधर इस्लाम की भी मान्यता मूर्ति पूजा के विरूद्घ थी। हमदानी ने संन्यासिनी को मूर्तिपूजा पर अपना साथ व समर्थन देकर इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए सहमत कर लिया। साथ ही संन्यासिनी के योग संबंधी विचारों का स्वयं एवं प्रचारक बन गया। जिससे संन्यासिनी को विश्वास हो गया कि वह साथ मिलकर काम करना चाहता है। प्रारंभ में सभी कुछ ठीक-ठाक चलता रहा, परंतु कुछ समय पश्चात हमदानी ने अपने प्रवचनों में इस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग करना आरंभ कर दिया जिससे लगने लगा कि हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों एक ही हैं, दोनों मूर्तिपूजा के विरोधी हैं, और योग के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति की बात कहते हैं। लोग भ्रांति में आने लगे और उसके कुचक्र के जाल में फंसने लगे।
कश्मीर के लिए हमदानी की सफल होती चाल ने उस समय एक दुखद मोड़ लिया जब लगभग सैंतीस हजार हिंदू और प्रमुख संन्यासी एक साथ मिलकर हिंदू से मुसलमान हो गये। ‘हमारी भूलों का स्मारक: धर्मांतरित कश्मीर’ के लेखक नरेन्द्र सहगल इतिहासकार बामजई को उद्घृत करते हुए हमें बताते हैं-‘यह सैय्यद ऊपर से हिंदू धर्म की प्रशंसा करता था, परंतु भीतर से वह इस धर्म से और इसके संतों से घृणा करता था। इतनी अधिक सफलता के पश्चात सैय्यद ने अपना प्रेमभाव एवं सहअस्तित्व का मुखौटा उतारने का निश्चय किया और सुल्तान से हिंदुओं का बलपूर्वक धर्मांतरण कराने को कहा। परंतु सुल्तान ने सैय्यद का यह आदेश मानने से स्पष्ट इंकार कर दिया। इतिहासकार लिखता है कि शायद इसके पीछे वही एकमेव राजनीतिक कारण रहा होगा कि अभी कश्मीर में हिंदू जनसंख्या अत्यधिक होने के कारण विद्रोह न भडक़ उठे। अत: सत्ता पर जमे रहना, इस्लाम के प्रचार के लिए आवश्यक माना गया।’
हमदानी लौट गया अपने देश
कहा जाता है कि सुल्तान कुतुबुद्दीन के इस प्रकार भयभीत हो जाने से सैय्यद अली हमदानी क्रोधित होकर अपने देश हमदान लौट गया। पर अपने कश्मीर प्रवास में उसने जितनी क्षति भारतीय धर्म और संस्कृति को करनी थी उससे अधिक ही वह कर गया। इतने बड़े स्तर पर देश में धर्मांतरण का कार्य किसी सुल्तान या बादशाह की तलवार नही कर पायी थी, जितना हमदानी का हिंदुओं के प्रति छलपूर्ण प्रेमभाव कर गया। सबसे प्रेम करने वाले हिंदू प्रेम से ही छले गये।
ब्राह़्मणों का दोष
काश! रिंचन को हमारे ब्राहमण हिंदू बना लेते तो जो कुछ कालांतर में कश्मीर में घटित हुआ वह न होता। आज कश्मीर की केसर में आतंकवाद का बारूद है और हर क्यारी विष उगल रही है, विष ही उत्पन्न कर रही है। हमें विचार करना चाहिए कि इस सबकी पृष्ठभूमि कब कैसे और कहां से बननी आरंभ हुई थी? इतिहास ‘कब, कैसे और कहां से’ का ही उत्तर खोजता है और अपने स्मृति भंडार से उसे तुरंत खोजकर हमें लाकर देता है। इसलिए इतिहास को मिटने मत दो, उसे खोजो और सहेजो। ‘मां भारती’ की इससे बड़ी कोई सेवा नही हो सकती।
क्रमश:
मुख्य संपादक, उगता भारत