#डॉविवेकआर्य
यह घटना उनीसवीं सदी के शुरुआत में बहावलपुर (आज के पाकिस्तान में) की मुसलमानी रियासत की है। छनकू नाम का एक दुकानदार इस रियासत में था जो श्री राम जी का अनन्य भक्त था। एक बार कुछ जिहादियों ने इसकी दुकान से कुछ सामान माँगा और इसके तौलने पर तौल कम बताकर छनकू को राम की गाली दी। छनकू रामभक्त से श्री राम का अपमान सहन न हुआ। छनकू ने पैगम्बर ए इस्लाम पर कुछ कह दिया। जिहादियों ने क़ाज़ी (इस्लामी न्यायाधीश) तक बात पहुंचा दी जिस पर क़ाज़ी का फतवा आया कि या तो इस्लाम क़ुबूल करे या मौत। छनकू ने गर्व से उत्तर दिया “राम के भक्त रसूल के भक्त नहीं बन सकते!” काज़ी ने हुकुम दिया – इस कम्भख्त काफिर को संगसार कर दो। इसकी इतना हिमाकत जो रसूल की शान में गलत कसीदे बोले। इस्लामिक शरिया के अनुसार छनकू को आधा जमीन में गाढ़ कर पत्थरों से मार दिया जाये।
मज़हबी उन्माद एवं इस्लामिक शासन के दौर में हिंदुओं की कौन सुनता था। कुछ धर्मभीरु हिंदुओं ने छनकू को इस्लाम स्वीकार कर अपने प्राण बचाने की सलाह दी। मगर छनकू किसी और मिटटी का बना था। वह उन हिंदुओं के समान कायर नहीं था जिन्होंने इस्लाम स्वीकार करने के लिए राम और कृष्ण को छोड़ दिया था। बंदा बैरागी और वीर हकीकत राय के महान बलिदान को स्मरण करते हुए छनकू ने धर्मरक्षा हेतु अपने आपको बलिदान कर दिया।
आज हम सभी हिंदुओं को महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, बंदा बैरागी, हकीकत राय और भक्त छनकू जैसे महान पूर्वजों पर गर्व होना चाहिए जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में 1200 वर्ष तक अपना बलिदान देकर धर्म की रक्षा की। शीश दिया मगर धर्म नहीं छोड़ा।
प्रसिद्द आर्यकवि पंडित चमूपति जी द्वारा यह कविता 1920 के दशक में भगत छनकू के अमर बलिदान को स्मरण करते हुए रची गई थी
कहूँ क्योंकर था रियासत का हकीकत छनकू
बढ़के थी तेरी हकीकत से शहादत छनकू
सह गया तू जो मिली तुझको अजियत छनकू
लैब पै आया न तिरे हरफे शिकायत छनकू
तोल कम था? कि तुझे झूठे गिले की चिढ थी
गाली के बदले जो दी तूने यकायक गाली
गाली देना तो कभी था न तेरी आदत में
और न कुछ बदला चुका देना ही था तीनत में
जाय शक क्या तेरी पाकीजगीय फितरत में
जलवा गर एक अदा गाली की थी सूरत में
गाली देने का चखाना ही था बदगों को मजा
लुत्फ़ कुछ उसको भी मालूम हो बदगोई का
राम से तेरी मुहब्बत का न था कुछ अंदाज
लो धर्म में तेरी अकीदत का न था कुछ अंदाज
तेरी हिम्मत का शजाअत का न था कुछ अंदाज
सबर का जौके सदाकत का न था कुछ अंदाज
तुझ पै थूका भी घसीटा भी तुझे मारा भी
बल बे मर्दानगी तेरी! तू कहीं हारा भी?
नेकदिल काजी था बोला कोई भंगड़ होगा
कब भले चंगे को यूँ हौंसला बोहराने का
कोठरी पास थी छनकू को यहाँ भिजवाया
और कहा नशा उतरने पे उसे पूछूंगा
देते थे मशवरा सब स्याने मुकर जाने को
पर तुला बैठा था तू धर्म पर मर जाने को
रोंगटा रोंगटा तकला है वहीँ बन जाता
छेदना तेरी जबाँ का है जहाँ याद आता
हाय इस दर्द में भी तो नहीं तू घबराता
इक कदम राहे सच से नहीं बाज आता
गर्म लोहे ने है गरमाया लहू को तेरे
सिदक छिन छिन के टपकता है पड़ा छेदों से
कहते हैं होने को दींदार, पै याँ किस को कबूल
राम के भगत भी होते हैं परस्तारे रसूल?
माल क्या चीज है? डाली है यहाँ जीने पै वसूल
धर्म जिस जीने से खो जाय, वो जीना है फजूल
धर्म की राह में मर जाते हैं मरने वाले
मरके जी उठते हैं जी जाँ से गुजरने वाले
दे दिया काजी ने फतवा इसे मारो पत्थर
गाड़कर आधे को आधे पे गिराओ पत्थर
दायें से बाएं से हर पहलू से फैंको पत्थर
और पत्थर भी वो फैंको इसे कर दो पत्थर
पत्थरों की थी बरसती तिरे सर पर बोछाड
और तू साकत था खड़ा जैसे तलातम में पहाड़
राम का नाम था क्या गूँज रहा मैदां में
नाखुदा भूला न था डूबते को तुगयां में
एक रट थी कि न रूकती थी किसी तूफां में
एक भी छेद न हुआ भगति के दामां में
कब अबस हाथ से बदखाह के छूटा पत्थर
धर्म पर कोड़ा हुआ तन पर जो टूटा पत्थर
एक जाबांज को हालत पै तेरी रहम आया
देखकर तुझको अजिय्यत में घिरा घबराया
और कुछ बन न पडा हाथ म्यां पर लाया
खींच कर म्यां से तलवार उसे चमकाया
आन की आन में सर तेरा जुदा था तन से
पर वही धुन थी रवां उड़ती हुई गर्दन से
जान है ऐ जाँ, तू फिर इस मार्ग पे कुर्बां हो जा
जिंदगी, छनकू की सी मौत का सामां हो जा
राम का धर्म, दयानंद का ईमां हो जा
दर्द बन दर्द, बढे दर्द का दरमाँ हो जा
देख यूँ मरते हैं इस राह में मरने वाले
मरके जी उठते हैं जी जां से गुजरने वाले
हाय छनकू का न मेला ही कहीं होता है
याद में उसकी न जलसा ही कहीं होता है
कोई तकदीर न खुतबा ही कहीं होता है
इस शहादत का न चर्चा ही कहीं होता है
दाग इस दिन के खुले रहते हैं इक सीने पर
याद आते ही बरस पड़ते हैं हर सू पत्थर II
– पंडित चमूपति
हिन्दू समाज के मार्गदर्शक फ़िल्मी सितारें और क्रिकेट खिलाडी नहीं अपितु भगत छनकू जैसे महान बलिदानी होने चाहिए।