इतिहास वास्तव में ही अतीत की कब्र नही होता, अपितु इतिहास अतीत का स्मृतिकोष है। जब वर्तमान संशय में हो या ‘किंकत्र्तव्यविमूढ़’ की अवस्था में हो तब इतिहास के ‘स्मृतिकोष’ से आप कोई व्यवस्था (नजीर-रूलिंग) ले सकते हैं, और उससे वर्तमान के संशय के तालों को खोल सकते हैं।इसलिए यह सच है कि राजनीति में इतिहास और इतिहास में राजनीति होती है। राजनीति वही सफल होती है जो अपने सकारात्मक ‘इतिहासबोध’ से ओत-प्रोत होती है। केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह इतिहास पर पूर्व में भी बोले हैं। जिससे उनके ‘सकारात्मक-इतिहासबोध’ का पता चलता है।
गोधन विकास इस देश की ही आवश्यकता नही है, अपितु यह विश्व समुदाय की आवश्यकता है। यदि समय रहते इस तथ्य को नही समझा गया तो अनर्थ हो जाएगा। हमें यथाशीघ्र गोधन विकास को राष्ट्रीय संकल्प के रूप में स्थापित कर देना चाहिए। यदि हम इसमें चूक गये तो विश्व नष्ट हो जाएगा। हमारे पूर्वजों ने ‘गावो विश्वस्य मातर:’ अर्थात गाय विश्व की माता है, वैसे ही नही कहा था। उन्होंने इस बात को गहराई से परीक्षित और समीक्षित कर लिया था कि गाय किस प्रकार विश्व के अस्तित्व के लिए आवश्यक है? गाय की उपयोगिता को समझकर ही हमारे ऋषि पूर्वजों ने उक्त कथन की घोषणा कर उसे अपने ‘सांस्कृतिक नारे और राजनीतिक दर्शन’ के रूप में मान्यता दी थी।
इस सोच का परिणाम यह आया था कि भारत ने गाय को अर्थव्यवस्था की रीढ़ के रूप में सम्मान दिया था। इसलिए गाय हमारे खेतों से लेकर रसोई तक छायी रहती थी। खेत में बैल दिखता था, घर के आंगन में गाय दिखती थी और रसोई में गाय का दूध, लस्सी, घी दिखाई देते थे। सारा देश गौ-भक्ति में लीन रहता था। सारा व्यापार गौ पर आधारित होता था। लेन-देन करने में भी लोग परस्पर गौओं का आदान-प्रदान कर लिया करते थे। ‘आदान प्रदान’ का माध्यम गौ होने से इसे लोग ‘धन’ भी कहा करते थे। गांवों में आज भी लोग जंगल में चरती हुई गायों को देखकर या वहां से लौटती हुई गायों को देखकर धन चर रहा है या धन आ रहा है ऐसा कह देते हैं।
भारत में गाय स्वास्थ्य के लिए वैद्य के औषधालय से लेकर रोगी की शैया तक भी खड़ी दिखती थी। वैद्य लोगों को गोघृत, गोदुग्ध, लस्सी या गोमूत्र इत्यादि के साथ या सीधे इन्हीं के पान से रोगों से मुक्त होने के सूत्र या औषधियां बताया करता था। जबकि रोगी की शैया के पास खड़े लोग उसे इन्हीं चीजों के साथ औषधि सेवन कराया करते थे। इस प्रकार सारा वातावरण ही गोमय हो जाया करता था।
हमारा मानना है कि भारत की गौ के प्रति अटूट और असीम श्रद्घा भावना की पुरातन परंपरा को इस समय स्थापित करने की आवश्यकता है। विदेशी षडय़ंत्रकारियों ने बड़ी चालाकी से गाय को हमारे खेतों से लेकर घर की रसोई तक से विदा कर दिया है। भारत तेजी से आलसी लोगों का और स्वसंस्कृतिद्रोहियों का देश बनता जा रहा है। हम अपने पुरातन और सनातन मूल्यों से बीते 68 वर्षों में काट दिये गये हैं। खेतों में टै्रक्टर, रसोई में ‘रिफाइंड ऑयल’ चिकित्सक के यहां अंग्रेजी दवाईयां और रोगी की शैया के पास से गोधन और पंचगव्यादि दूर हो गये हैं।
इस स्थिति का परिणाम यह हुआ है कि आज की हमारी पीढ़ी गोधन को अनुपयोगी मानने लगी है। पिछले दिन मेरे पास राजस्थान से एक समाजसेवी रविन्द्र आर्य का फोन आया। श्री आर्य की चिंता थी कि राजस्थान में भाजपा सरकार ने ‘गोवध निषेध’ तो कर दिया है पर अब यहां गोधन यूं ही खुला आवारा घूमता है। उसे लोग उपेक्षित करके घर से निकाल देते हैं, जिससे उसके उचित रखरखाव की समस्या आन खड़ी है।
हमारा केन्द्रीय गृहमंत्री से अनुरोध है कि लोगों को गोधन संरक्षण के लाभ बताने के लिए टीवी चैनलों पर विशेष चर्चाएं करायी जाएं। समाचार पत्रों में इस ओर विशेष ध्यान दिलाने का प्रयास किया जाए और एक ऐसी सरकारी योजना घोषित की जाए जो गाय के आर्थिक महत्व को स्थापित कर इसे हमारी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का एक आवश्यक अंग बना दे। जब लोगों को गाय के आर्थिक लाभों की जानकारी होगी और पता चलेगा कि यह किस प्रकार हमारे लिए उपयोगी है तो आवारा गोधन को भी उचित संरक्षण मिल सकेगा। हमारा मानना है कि सरकार गाय को भारत के लाखों करोड़ों वर्ष के इतिहास के संदर्भ में प्रस्तुत करे और गौ की लस्सी को देश का राष्ट्रीय पेय घोषित कर दे। इतिहास के उचित संरक्षण से ही गाय का संरक्षण संभव है। इतिहास के संदर्भों के मर्मज्ञ राजनाथ सिंह से अपेक्षा है कि वह इस दिशा में कोई उपाय करेंगे।