सु$आङ् अधिपूर्वक इड्-अध्ययने धातु से स्वाध्याय शब्द बनता है। स्वाध्याय शब्द में सु, आ और अधि तीन उपसर्ग हैं। ‘सु’ का अर्थ है उत्तम रीति से ‘आ’ का अर्थ है आद्योपान्त और ‘अधि’ का अर्थ है अधिकृत रूप से। किसी ग्रन्थ का आरम्भ से अन्त तक अधिकारपूर्वक सर्वत: प्रवेश स्वाध्याय कहलाता है। आचार्य यास्क द्वारा लौकिक भाषा के लिए भाषा शब्द और वेद के लिए अध्याय शब्द का प्रयोग किया गया है। इस अर्थ पर विचार करने के उपरान्त हम देखते हैं कि वह अध्ययन ही स्वाध्याय कहा जा सकता है, जिसमें वेद का अध्ययन सम्मिलित हो। इसके अतिरिक्त स्वाध्याय का अर्थ है- ‘स्वस्य अध्याय:’ अर्थात् अपनी सत्ता का अध्ययन, आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना और परब्रह्म का स्वरूप जानने के लिए अध्ययन करना स्वाध्याय है। महर्षि पतंजलि द्वारा योगदर्शन के साधनापाद के प्रथम सूत्र में कहा गया है- ‘‘तप: स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानिक्रियायोग:’ अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान यह योग की क्रिया हैं। स्वाध्याय सूक्ष्म शरीर का विषय है। इससे अहंकार, मन और बुद्धि शुद्ध होती है। स्वाध्याय शब्द तप और ईश्वर प्रणिधान दोनों के मध्य में है। इस शब्द से तप और ईश्वर प्रणिधान दोनों की पुष्टि होती है। स्वाध्याय न करने वाला व्यक्ति तपस्वी नहीं बन सकता है और न ही उसका ईश्वर पर विश्वास दृढ़ हो सकता है।
स्वाध्याय के लाभ- शतपथकार ने स्वाध्याय के लाभों का वर्णन करते हुए एक मंत्र (11.5.7.1) में कहा है कि इससे व्यक्ति ‘‘युक्तमना भवति’’ अर्थात् समाहित मन वाला या स्थिरचित्त हो जाता है। स्वाध्याय का दूसरा लाभ है कि वह, ‘‘अपराधीनो भवति’अर्थात् स्वाध्यायशील व्यक्ति किसी की पराधीनता स्वीकार नहीं करता है। वह इन्द्रियों के रूप, रस, गन्ध आदि विषयों के वश में नहीं रहता है। तीसरा लाभ है-‘‘अहरहरर्थान् साधयते’ अर्थात् वह दिनों-दिन अर्थों की सिद्धि करता है। यहां शतपथकार का अर्थ से आशय शब्द के पीछे जो गहन अर्थ है, उसकी सिद्धि कर लेना है। चतुर्थ लाभ है-‘‘सुखं स्वपिति’’ अर्थात् स्वाध्यायशील व्यक्ति चैन की नींद सोता है। पांचवां लाभ है- ‘‘परम चिकित्सक आत्मनो भवति’’ अर्थात् वह अपनी आत्मा का चिकित्सक हो जाता है, वह अपने मानसिक रोगादि विकारों की स्वयं चिकित्सा कर सकता है। छठा लाभ है- ‘‘इन्द्रियसंयम: भवति’’ अर्थात् स्वाध्यायशील व्यक्ति इन्द्रिय संयमी हो जाता है। सातवां लाभ है- ‘‘एकरामता भवति’ अर्थात् वह केवल एक तत्त्व परमात्मा से खेलता है। सांसारिक सभी खेलों से विमुख होकर केवल परमात्मा में ही आनन्द लेता है। आठवां लाभ है- ‘‘प्रज्ञावृद्धिर्भवति’ अर्थात् स्वाध्यायशील व्यक्ति पण्डित बन जाता है। नवां लाभ है- ‘‘ब्राह्मण्यम्’ अर्थात् उसमें ब्रह्मण्यता आ जाती है। ब्रह्मण्यता के आने से उसमें सभी प्राणियों के हित की कामना, सर्वदु:खानुभूति, संवेदनशीलता, परोपकारिता, स्वार्थत्याग, परमतपस्विता आदि गुण स्वत: आ विराजते हैं। दसवां लाभ है- ‘‘प्रतिरूपचर्याम्’’ अर्थात् स्वाध्यायशील व्यक्ति वह दर्पण है जिसमें हर सद्गुण की प्रतिकृति या छाया देख सकते हैं। ग्यारहवां लाभ है- ‘‘यश:’’ अर्थात् स्वाध्यायशील व्यक्ति को यश की प्राप्ति होती है। बारहवां लाभ है- ‘‘लोकपक्ति’’ अर्थात् उसका लोक-परिपाक हो जाता है या उसे लोक सिद्धि प्राप्त हो जाती है। तेरहवां लाभ है- ‘‘अर्चा-बुद्धि’’ अर्थात् स्वाध्यायशील व्यक्ति की अर्चना होती है। उसके प्रभाव से जनगण में विनय, श्रद्धा, नम्रता आदि गुण आ जाते हैं और सभी श्रद्धापूर्वक उसका आदर करते हैं। चैदहवां लाभ है- ‘‘दानशीलता’अर्थात् उसे दान और दक्षिणा की प्राप्ति होती है। पन्द्रहवां लाभ है- ‘‘अज्येयतया’ अर्थात् स्वाध्यायशील से व्यक्ति अज्येय हो जाता है। सोलहवां लाभ है- ‘‘ अवध्यता’अर्थात् वह सभी के लिए अवध्य हो जाता है।
स्वाध्याय के विषय में शतपथ ब्राह्मण में (11.5.6.3) में कहा गया है-
यावन्तं ह वा इमां पृथिवीं वित्तेन पूर्णां ददँल्लोकं जयति त्रिस्तावन्तं जयति।’’ अर्थात् धन से परिपूर्ण पृथिवी का दान देने पर जितने लोक जीते जा सकते हैं, स्वाध्यायशील व्यक्ति ठीक उससे तिगुने लोकों को जीत लेता है। यदि सामान्य यज्ञ करने वाला भूलोक को जीतता है, तो स्वाध्याय-यज्ञ करने वाला भूर्, भुर्व और स्र्व तीनों लोकों को जीत लेता है। यदि सामान्य यज्ञ करने वाला मनुष्यलोक को जीत लेता है, तो स्वाध्यायशील व्यक्ति ठीक उससे तिगुने लोकों, मनुष्यलोक, पितृलोक और देवलोक को जीत लेता है। इसी मंत्र में याज्ञवल्क्य आगे कहते हैं- ‘‘भूयांसं चाक्ष्यं (लोकं जयति) य एवं विद्वान् अहरह: स्वाध्यायमधीते’अर्थात् जो विद्वान् इस प्रकार दिन-प्रतिदिन स्वाध्याय करता है, वह उससे भी बढ़ कर अक्षयलोक को जीतता है। अक्षयलोक का अर्थ है- न क्षीण होने वाला ब्रह्मलोक।
स्वाध्याय से पुनर्मृत्यु से मुक्ति- शतपथ ब्राह्मण में (11.5.6.9) में कहा गया है- ‘‘अति ह वै पुनर्मृत्युं मुच्यते। गच्छति ब्रह्मण: सात्मताम्।’’ अर्थात् स्वाध्यायशील व्यक्ति पुनर्मृत्यु से मुक्त हो जाता है। वह परमेश्वर के समान परान्तकाल तक जन्म-मृत्यु बन्धन से छूट जाता है। इस प्रकार एक बार के प्रयत्न से यदि उसे ब्राह्मणत्व प्राप्त हो गया तो उसका ब्राह्मणत्व मरता नहीं है और पुनर्जन्म प्राप्त करने पर वह, वहीं से कार्य आरम्भ कर देता है क्योंकि वह स्वाध्याय से ब्रह्म की सात्मता को प्राप्त कर लेता है अर्थात् वेद को आत्मसात कर लेता है, ब्रह्म (आनन्द) को आत्मसात कर लेता है। वेद में वर्णित स्वाध्याय के लाभ- वेद में अनेक स्थानों पर स्वाध्याय के लाभ बताए गए हैं। ऋग्वेद के एक प्रसिद्ध मंत्र में कहा गया है-
पावमानीर्यो अध्येत्यृषिभि: संभृतं रसम।
तस्मै सरस्वती दुहे क्षीरं सर्पिर्मधूदकम।। ऋग्वेद 9.67.32।।
अर्थात् जो व्यक्ति अग्नि, वायु आदि ऋषियों द्वारा सम्यक् भरण की गई रसीली पवित्र ऋचाओं का, वेदज्ञान का अधिकृत रूप से पारायण करता है और समय आने पर उनका प्रवचन भी करता है, उस स्वाध्यायशील और प्रवचनकर्ता के लिए वेदरस से युक्त वाणी क्षरणशील दुग्ध, घृत और शहद आदि हर प्रकार के उत्तम पेयों को देकर परिपूर्ण कर देती है।
परमेश्वर ने आदि सृष्टि में वेद का ज्ञान देते हुए अथर्ववेद (19.71.1) के एक मंत्र से जीवों के कल्याण के लिए अनेक लाभों का वर्णन किया है-
‘‘स्तुता मया वरदा वेदमाता। प्रचोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्। आयु: प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम’’
परमेश्वर कहते हैं कि मैंने ही जिसका स्तवन अथवा प्रस्ताव किया है और जो वेद-माता समस्त ज्ञान की निर्मात्री, समस्त लाभों की निर्मात्री है और जिसकी कुक्षि में रहकर व्यक्ति द्वितीय जन्म धारण करता है, अत: द्विजनिर्मात्री भी है। यह न केवल द्विजनिर्मात्री है अपितु द्विजों को पवित्र करने वाली है। यह वेदमाता वरों को देने वाली है, परन्तु उस माता का एक आदेश है कि इसे सर्वत्र प्रेरित करो, प्रचारित करो। इससे तुम्हें दीर्घ जीवन, उसका आधार प्राणशक्ति, प्रजनन शक्ति, सन्तान, पशुधन, यश, धन ओर ब्रह्मतेज, ये सात वर मिलेंगे जिनमें सभी लौकिक मंगलों का समावेश हो गया है। इसके अतिरिक्ति एक अन्य पारलैकिक मंगल है, वह भी तुम्हारे लिए है, परन्तु उसके लिए शर्त यह है कि पहले इन सातों लौकिक मंगलों को मुझे दे दो। इन्हें मुझे देकर मोक्षधाम को चले जाओ।
महर्षि पतंजलि ने कहा है- ‘‘स्वाध्यादिष्टदेवतासम्प्रयोग:’’ अर्थात् वेदादि मोक्ष्शास्त्रों के पठन-पाठन, प्रणवादि मंत्रों के जाप के अनुष्ठान से परमात्मा के साथ सम्प्रयोग = सम्बन्ध स्थापित होकर, उसका साक्षात्कार हो जाता है। महर्षि मनु ने वेद के स्वाध्याय करने का फल बताया है-
वेदाभ्यासोऽन्वहं शक्त्या महायज्ञक्रिया क्षमा।
नाशयन्त्याशु पापानि महापातकजान्यपि।।
यथैधस्तैजसां वह्नि: प्राप्तं निर्दहति क्षणात्।
तथा ज्ञानाग्निना पापं सर्वं दहति वेदविद्।। मनु0 11.245-246।।
प्रतिदिन वेद का यथासम्भव अध्ययन-मनन, पंचयज्ञों का अनुष्ठान, तप-सहिष्णुता, बड़े पापों से उत्पन्न पाप-भावनाओं और दु:संस्कारों का भी नष्ट कर देती है। जैसे अग्नि अपने तेज से समीप आए हुए काष्ठ आदि इन्धन को जला देती है, वैसे ही वेद का ज्ञाता, वेद रूपी अग्नि से सब आने वाली पाप-भावनाओं को जला देता है। जब साधक वेद के स्वाध्याय से अपनी सभी पाप-भावनाओं औा पाप-संस्कारों को नष्ट कर देता है, तो ऐसा साधक धर्मनिष्ठ बन कर परमात्मा के ज्ञान द्वारा परमात्मा के सानिध्य को अनुभव करता है। इस प्रकार का ज्ञान होना ही परमात्मा की प्राप्ति है। परमात्मा ही जीवात्मा का इष्टदेव है और परमात्मा द्वारा प्रदत्त वेदज्ञान से ही परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित करने में सक्षम होता है।
महर्षि व्यास ने 1.28 के भाष्य में कहा है-
‘‘स्वाध्याययोगसंपत्त्या परमात्मा प्रकाशते’’
अर्थात् स्वाध्याय और योग की सम्पत्ति से परमात्मा का ज्ञान हो जाता है।
महर्षि व्यास ने 2.32 के भाष्य में कहा है-
‘‘स्वाध्यायो मोक्षशास्त्राणामध्ययनं प्रणवजपो वा’’
अर्थात् मोक्ष का उपदेश करने वाले वेदादि सत्यशास्त्रों का अध्ययन = पठन-पाठन करना और प्रणव = ओंकार का जप करना स्वाध्याय है।
ब्रह्मविद्या का जानकार वही होता है जो ईश्वर के लिए समर्पित हो। ईश्वर की अनुभूति करने के लिए अनेक लोग प्रयास करते रहते हैं, किन्तु बिरले ही यथार्थ रूप में ईश्वर के निकट पहुंच पाते हैं या उसकी अनुभूति कर पाते हैं। इसका कारण साधकों में पात्रता का अभाव होना है। संसार में दिखाई दे रही भौतिक वस्तुओं से मिलने वाले सुखों से अपने मन को हटाकर सर्वव्यापक परमात्मा में लगाना पड़ता है। ईश्वर अनुभूति के लिए परोपकारिता, दयालुता आदि गुणों को धारण करते हुए जीवमात्र में ईश्वर की छवि देखने की दृष्टि पैदा करनी होती है। प्रत्येक साधक चाहता है कि उसे सुख की प्राप्ति हो।