किसी शायर ने क्या खूब कहा है :-
कमजोर लोग ही शिकवा और शिकायत करते है।
महान लोग तो हमेशा कर्म की वकालत करते है।।
हमारे राष्ट्रनायक रामचंद्र जी महाराज के यहां शिकवा- शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं थी। क्योंकि वह इतिहास निर्माण करने की किसी भी चुनौती से बचकर निकलने वाले नहीं थे। वह चुनौतियों से खेलने में विश्वास रखते थे और चुनौतियों के परिणामों को भी अपने अनुकूल लाने का उत्कृष्ट पराक्रम रखते थे।
मिस्टर डेलमार महोदय ने भारत के विषय में लिखा है कि :- “पश्चिमी संसार को जिन बातों पर गर्व है, वे वास्तव में भारतवर्ष से ही वहां गई हैं और तो और तरह तरह के फल और फूल वाले पेड़ पौधे जो इस समय यूरोप में पैदा होते हैं, हिंदुस्तान से ही वहां लाकर लगाए गए थे । मलमल, रेशम, घोड़े, टीन इनके साथ-साथ लोहे और शीशे का प्रचार भी यूरोप में भारत से ही हुआ । ज्योतिष ,वैद्यक, अंकगणित चित्रकारी और कानून भी भारत में ही यूरोप को सिखलाया।”
अब प्रश्न यह हो सकता है कि भारत ने अपनी इस दिव्य-भव्य और चित्ताकर्षक छवि का निर्माण कैसे किया ? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो पता चलता है कि हमारे पूर्वजों ने सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पण का भाव दिखाकर और धार्मिक संस्कारों को अपने व्यवहार आचरण से प्रकट कर भारत की इस छवि का निर्माण किया। भारत के इस मौलिक संकल्प को रामचंद्र जी ने भी अपने जीवन में धारण किया था । जिससे वह मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए।
रामचंद्र जी महाराज ने अपने जीवन में अनेकों राक्षसों का संहार किया। महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण के ‘अरण्यकाण्ड’ के आधार पर हम अपनी इस लेखमाला को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
अपने ऋषि पूर्वजों के विषय में हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि उनका संपूर्ण जीवन लोक- व्यवस्था को बनाए रखने और लोक – परलोक की गति को सुमधुर संगीतमय बनाने के लिए हुआ करता था। लोक में अशांति उत्पन्न हो, यह उन्हें स्वीकार नहीं था। क्योंकि उनका जीवन शांति के लिए समर्पित था । यही कारण था कि उन्हें ऐसे राजाओं की अपेक्षा रहती थी जो लोक शांति में विश्वास रखते हों। लोके शांति का अभिप्राय ऐसी व्यवस्था से है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय की प्राप्ति हो। उसके अधिकारों का अतिक्रमण करने वाला कोई ना हो।
ऐसी परिस्थितियों में यदि श्री रामचंद्र जी महाराज के जीवन चरित्र को प्रकट करने वाले ‘रामायण’ नामक ग्रंथ को वाल्मीकि जी ने लिखा या प्रस्तुत किया तो इसका अभिप्राय है कि श्री रामचंद्र जी के भीतर वे सभी गुण विराजमान थे, जो एक न्यायशील राजा में होने चाहिए।
ऋषि लोग किसी पाखंडी, ढोंगी, अन्यायी, क्रूर, निर्दयी शासक को या पात्र अपने चिंतन का विषय नहीं बना सकते थे। रामचंद्र जी महाराज पर यदि वाल्मीकि जी की लेखनी उठी तो समझना चाहिए कि यह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण घटना थी और वाल्मीकि जी को भी अपनी काव्यमय रचना के लिए श्री रामचंद्र जी जैसा योग्य शासक मिला तो यह भी अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं था।
साकेत में मैथिलीशरण गुप्त जी ने श्री राम के जन्म हेतु कहा है :-
” किस लिए यह खेल प्रभु ने है किया ?
मनुज बनकर मानवी का पय पिया ।
भक्तवत्सलता इसी का नाम है
और वह लोकेश लीला धाम है।।”
रामायण के प्रथम सर्ग में ‘दंडकारण्य’ में ऋषियों के आश्रम में जब श्रीराम पहुंचे तो वहां के मनोरम दृश्यों को देखकर अति प्रसन्न चित्त हुए। वास्तव में दंडकारण्य में श्रीराम का अपने भाई लक्ष्मण और भार्या सीता के साथ पहुंचना भविष्य की अनेकों घटनाओं की आधारशिला रख रहा था। हमें नहीं पता कि श्रीराम उन घटनाओं से पहले से ही परिचित थे या नहीं परंतु इतना तो कहा जा सकता है कि श्रीराम ने आती हुई घटनाओं को लौटाने का प्रयास नहीं किया, बल्कि उनका स्वागत किया।
उनका जीवन एक तपस्वी का जीवन था । पहली घटना के पश्चात जैसे एक तपस्वी साधक अगली घटना का अनुमान लगा लेता है कि अब आगे भविष्य में यह घटने वाला है ? – वैसे ही श्रीराम भी एक घटना के पश्चात दूसरी घटना का अनुमान लगा लेते थे। कई अवसर ऐसे आए जब उन्हें पहली घटना के घटित होने के पश्चात स्थान को छोड़ने का अवसर उपलब्ध हुआ, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि श्रीराम पलायनवादी नहीं थे।
महर्षि बाल्मीकि ने दंडकारण्य के आश्रमों का वर्णन करते हुए लिखा है कि – ”ये आश्रम प्राणिमात्र के लिए आश्रय स्थल थे।इनके आंगन सदा स्वच्छ रहते थे। ये आश्रम मृगों से भरपूर और पक्षी समूहों से भी व्याप्त थे। इन आश्रमों में यज्ञ के लिए समिधाएं ,जल से भरे कलश और कंदमूल फल रखे थे । वे आश्रम उत्तम और स्वादिष्ट फल वाले जंगली महावृक्षों से व्याप्त थे। इन आश्रमों में नित्य बलिवैश्वदेव यज्ञ और पवित्र वेदध्वनि हुआ करती थी। यत्र – तत्र बिखरे हुए पुष्पों से और कमल पुष्पों से युक्त सरोवर से यह आश्रम सुशोभित थे। तपस्वी ऋषियों के आश्रममंडल को देखकर वहां तेजस्वी श्री राम ने अपने धनुष का चिल्ला उतारा और आश्रमों की ओर देखा।”
महर्षि वाल्मीकि ने इन आश्रमों का बड़ा सजीव चित्रण किया है । ऐसे लगता है कि जैसे हम उनके साथ आश्रमों को ही देख रहे हैं । वास्तव में कवि होता भी वही है जो पाठक को अपनी दिव्य दृष्टि से वस्तु, स्थिति और स्थान का साक्षात दर्शन कराने में सफल होता है। ऋषिमंडल ने जब श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को अपनी ओर आते हुए देखा तो वह हर्षातिरेक से उनका स्वागत करने के लिए आगे बढ़े और उन्हें ले जाकर अपनी पर्णशाला में बैठाया। उनका सम्मान करते हुए ऋषियों ने विधिपूर्वक सत्कार कर उन्हें हाथ पैर धोने के लिए जल लाकर दिया। कंद -मूल, फल- फूल उनकी सेवा में अर्पण किए। ऋषियों ने कहा कि “हे राम ! आप वर्णाश्रम-धर्म के पालक, शरणागत वत्सल और महायशस्वी हैं। आप पूजनीय हैं ,मान्य हैं, गुरु हैं और दंडधारी राजा हैं । आप चाहे नगर में रहें या वन में ,हमारे राजा तो आप ही हैं। हे राजन ! हम लोगों ने दण्ड देना छोड़ रखा है। क्रोध को त्यागकर इंद्रियों को जीता हुआ है । तप ही हमारा एकमात्र धन है। जैसे माता गर्भ की रक्षा करती है उसी प्रकार आपको गर्भ के समान अपनी प्रजा की सदा रक्षा करनी चाहिए ।”
महर्षि वाल्मीकि जी के इस प्रकार के वर्णन से पता चलता है कि ‘दंडकारण्य’ में प्रवेश करने पर ऋषियों ने रामचंद्र जी का एक राजा के रूप में स्वागत- सत्कार किया और स्पष्ट घोषणा की कि उनके राजा श्रीराम ही हैं । इसका प्रतिवाद रामचंद्र जी ने नहीं किया। जिससे स्पष्ट होता है कि वह स्वयं भी राजधर्म के पालन के प्रति कटिबद्ध थे। यद्यपि अयोध्या का शासक उन्होंने अपने भाई भरत को बना दिया था, परंतु वह जिस विशिष्ट उद्देश्य को लेकर अर्थात राक्षस संवर्ग का संकल्प लेकर वनों में पहुंचे थे, उसके लिए वह राज धर्म का निर्वाह करने के लिए ही तत्पर थे। वह ऋषियों की भांति वनों में रहकर भी केवल ऋषि बनकर अर्थात ईश्वर भजन यज्ञ – याग आदि करने तक अपने आपको सीमित करना नहीं चाहते थे। ऋषि मंडल या कहें कि सज्जन प्रवृत्ति के लोगों का भला हो – यह उनके जीवन का उद्देश्य था । इसीलिए वह ऋषियों के द्वारा अपने आपको राजा कहे जाने पर मौन रहे।
महर्षि वाल्मीकि जी के वर्णन से कुछ ऐसा लगता है कि जैसे श्री राम राजा के रूप में स्वयं ही वन में आकर ऋषियों के साथ इसलिए रहने लगे कि वे उन्हें राक्षसों से संरक्षा और सुरक्षा देना चाहते थे। लगता है राम स्वयं ऋषियों को राक्षसों से मिलने वाली चुनौती से चिंतित थे। वह इस बात से भी चिंतित रहते थे कि उनके महायशस्वी पूर्वजों का साम्राज्य सिमटकर बहुत छोटे से क्षेत्र में रह गया है , जबकि राक्षस संस्कृति बढ़ते – बढ़ते आर्यावर्त और संपूर्ण भूमंडल के देशों को निगल रही है। ऋषियों की सुरक्षा कैसे हो और राक्षसों का संहार कैसे हो – इन दोनों बातों पर श्रीराम निश्चय ही गंभीर चिंतन करते रहे होंगे। यही कारण था कि जब वे ऋषि लोगों के बीच पहुंचे तो उन्हें उनके द्वारा स्वयं को ‘राजा’ कहने पर किसी प्रकार की आपत्ति नहीं हुई। यद्यपि वह राज पद को छोड़कर एक सामान्य नागरिक की भांति जंगल में आए थे। श्रीराम भली प्रकार यह जानते थे कि चाहे वे जंगलों में एक सामान्य जन की भांति आए हों, परंतु ऋषि लोग उन्हें दशरथ पुत्र राम के रूप में ही जानते हैं और उनसे स्वाभाविक रूप से यह अपेक्षा करते हैं कि वह उन्हें यहां पर राक्षसों से सुरक्षा प्रदान करेंगे। जिसके लिए श्रीराम स्वयं को राजा कहलवायें तो कोई गलत नहीं होगा।
दूसरी बात इस वर्णन में यह आई है कि ऋषियों ने जब दंड देना छोड़ दिया और क्रोध को जीतकर शांत होकर ईश्वर भजन में मग्न रहने लगे तो राक्षसी वृत्तियों में वृद्धि हो गई। ऋषियों ने रामचंद्र जी के समक्ष यह स्वीकार किया कि उन्होंने क्रोध को जीत लिया है, जिससे राक्षस वृत्तियां प्रबल हो गई हैं जो उनके यज्ञ आदि कार्यों में विघ्न डालती हैं। आपको इन राक्षस वृत्तियों का संहार करना चाहिए। जिससे हमारे यज्ञ आदि पवित्र कार्य सफल हो सकें।
वर्तमान संदर्भ में हमें यह समझना चाहिए कि जब शासन में बैठे लोग आतंकवादियों के समक्ष हथियार डाल देते हैं या क्रोध को शांत कर बैठ जाते हैं तो आतंकवादी जन सामान्य का रहना मुश्किल कर देते हैं । जिसके लिए आवश्यक यही है कि शासन में बैठे लोगों को उनका विरोध उनका संहार करके करना चाहिए। रामराज्य की कल्पना को साकार करने वाले गांधीजी ने भारत के स्वतंत्र होने के उपरांत ‘रामराज्य’ की स्थापना का संकल्प तो लिया पर वे यह भूल गए कि इस संकल्प के लिए सबसे आवश्यक बात यही है कि राक्षस अर्थात राष्ट्र की मुख्यधारा को किसी भी प्रकार से दूषित व प्रदूषित करने वाले लोगों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही अर्थात उनका संहार करना शासन का प्रमुख उद्देश्य होगा। यह बहुत ही बेतुकी बात है कि महात्मा गांधी जी स्वतंत्र भारत में रामराज्य की कल्पना तो करते थे पर रामचंद्र जी के अहिंसा की रक्षार्थ हिंसा करने के आदर्श को नहीं मानते थे। गांधी जी का यह अधकचरापन हीं उनके गांधीवाद की वह कमजोरी बना जो उनके बाद की कांग्रेसी सरकारों के गले की फांस बन गया। जाने अनजाने कांग्रेसी सरकारें आतंकवादियों का या तो पक्ष पोषण करने लगी या उनके सामने हथियार डाल कर मोहन खड़ी हो गईं। उन्होंने राम के उस आदर्श को स्वीकार नहीं किया, जिसके अंतर्गत राक्षसों का संहार करना राजा का सर्वोपरि कर्तव्य होता है।
श्रीराम के समय के महात्मा ऋषि भी यही संकेत दे रहे थे कि शासन निरे महत्मापन से नहीं चलता बल्कि उसके लिए सात्विक क्रोध का होना भी आवश्यक है । इसलिए आप ऋषि सन्तापक दुष्टों का संहार करने के लिए खड़े हो जाओ। जबकि आज के तथाकथित राष्ट्रपिता ने इस दिशा में हमें सोचने से भी रोक दिया।
उनका हमें इस प्रकार रोकना ही आज के भारत की अनेकों समस्याओं का मूल कारण बना। यदि आज के तथाकथित राष्ट्रपिता ने भी अपने शिष्यों को पहले दिन से ही यह शिक्षा दी होती कि दुष्टों का संहार करना है और देश की सज्जन शक्ति का कल्याण करना है तो देश एक दबंग राष्ट्र के रूप में विश्व मान्यता प्राप्त कर चुका होता।
हमें श्रीराम के विषय में यह समझ लेना चाहिए कि वह भारत के गौरव हैं और भारत की चेतना के कण-कण में समाए हुए हैं। इसीलिए भारत के लोगों ने उन्हें संसार के सर्वोच्च नागरिक सम्मान अर्थात ‘लोक के भगवान’ के रूप में अपनी स्वीकृति प्रदान की है। किसी कवि ने कितना सुंदर कहा है :-
राम सांस सांस में समाए हुए हैं,
भारत की आत्मा में छाए हुए हैं,
संकटों में खूब आजमाए हुए हैं,
राम जी देश को बचाए हुए हैं,
सुबह का नहीं है जो वो शाम का नहीं।
राम का नहीं वो किसी काम का नहीं।।
ऋषियों का आतिथ्य स्वीकार कर श्रीराम ने वहीं पर रात्रि निवास किया। अगले दिन सूर्योदय होने पर वे आश्रम के सभी मुनियों से आज्ञा लेकर गहन वन में प्रविष्ट हुए। अनेकों हिंसक पशुओं से परिपूर्ण उस वन के मध्य में पहुंचकर श्रीराम ने विशालकाय , नरमांसभक्षी और महाशब्द करने वाले एक राक्षस को देखा। वह राक्षस श्रीराम, लक्ष्मण और सीता पर टूट पड़ा। उसने सीता को उठाकर अपनी गोद में बैठा लिया। तब उसने श्रीराम और लक्ष्मण को ललकारते हुए कहा कि तुम जटा- चीर -धारी हो ,परंतु स्त्री को साथ लिए घूमते हो । तपस्वियों के वेश में होकर भी तुम स्त्री के साथ क्यों वास करते हो ? अधर्म-आचरण करने वाले तथा मुनि समाज को दूषित करने वाले पापी तुम दोनों कौन हो ? उस राक्षस ने कहा कि मैं विराध नाम का राक्षस हूं। इस वन में शस्त्र लिए मुनियों का मांस खाता हुआ नित्य घूमा करता हूं। यह सुंदरी नारी अब मेरी पत्नी होगी । संग्राम में मैं तुम दोनों महापापियों का वध कर दूंगा।
उस राक्षस के इस प्रकार के आचरण को देखकर रामचंद्र जी अत्यंत कुपित हो गए । वह कुछ दु:खी से होकर लक्ष्मण से बोले कि -“महाराज जनक की पुत्री शुभाचरण वाली मेरी पत्नी को विराध ने किस प्रकार अपनी बगल में दबोच रखा है ? सीता के एक राक्षस द्वारा स्पर्श होने से आज मुझे जितना दु:ख हुआ है इतना दु:ख मुझे पिता की मृत्यु और राज्य के जाने से भी नहीं हुआ था।” तब लक्ष्मण ने कहा कि – ‘हे राम ! इंद्र के समान सब प्राणियों के स्वामी होकर और मेरे जैसे सेवक के साथ रहते हुए आप अनाथों की भांति संतप्त क्यों हो रहे हो ?”
इसके पश्चात लक्ष्मण ने मुस्कुराते हुए उस राक्षस से पूछा कि तुम कौन हो ? जो इस प्रकार का स्वेच्छाचारी आचरण करते हुए इस वन में घूमा करते हो । इस पर विराध ने कहा कि मैं जय का पुत्र हूं और मेरी माता का नाम शतहृदा है। इस पृथ्वी के सब राक्षस मुझे विराध के नाम से पुकारते हैं। मेरे साथ युद्ध करके विजय प्राप्त करने की अभिलाषा छोड़ दो और सीता को यहीं छोड़कर जिधर से आए हो उधर ही भाग जाओ। यदि आप ऐसा करते हैं तो मैं तुम्हारे प्राण नहीं लूंगा।
राक्षस की ऐसी बातों को सुनकर रामचंद्र जी ने उसे धिक्कारा और कहा कि तेरी ऐसी बातों से मुझे यह निश्चय हो गया है कि तू स्वयं ही अपनी मृत्यु की खोज कर रहा है। तू आज जीता नहीं बचेगा। इसके पश्चात रामचंद्र जी ने उस राक्षस पर अपना तीर चला दिया। बाणों से बिंधा होकर वह राक्षस सीता को छोड़ क्रोध में भरकर त्रिशूल हाथ में ले श्री राम और उनके भाई लक्ष्मण की ओर दौड़ा। वह त्रिशूल से दोनों भाइयों का अंत कर देना चाहता था। पर रामचंद्र जी ने उसके त्रिशूल को भी अपने बाणों से काट दिया जब उसका त्रिशूल कट गया तब श्रीराम और लक्ष्मण काले सर्प के समान अपनी – अपनी तलवारों को लेकर शीघ्र ही उस राक्षस के पास पहुंचे और उस पर बहुत भारी प्रहार किया। वह राक्षस तलवारों के आघात से अत्यंत पीड़ित हुआ। इसके उपरांत भी उसने श्रीराम और लक्ष्मण को अपनी भुजाओं में भर लिया और उठाकर लेकर चल दिया।
दुस्साहस किया विराध ने भूल स्वयं का काल।
भिड़ गया ऐसे वीर से ,जो था काल का काल।।
राक्षस के ऐसे कृत्य को देखकर सीता जी भयभीत हो गईं। उन्होंने कहा कि मुझे यहां पर शेर, चीते, भेड़िए खा जाएंगे ।हे राक्षसोत्तम ! मैं तुझे नमस्ते करती हूं । तू इन राजकुमारों को छोड़ दे और इनके बदले मुझे हर ले। बाल्मीकि रामायण में आए इस ‘नमस्ते’ शब्द से पता चलता है कि हमारा राष्ट्रीय अभिवादन प्रारंभ से ही नमस्ते रहा है।
सीता जी के इस प्रकार के वचनों को सुनकर श्री रामचंद्र जी और लक्ष्मण दोनों ही उस राक्षस का वध करने के लिए उतावले हो गए । उस राक्षस की बाईं भुजा को लक्ष्मण ने और दाईं भुजा को श्री राम ने पकड़ कर तोड़ दिया। जब राक्षस की दोनों भुजाएं टूट गई तो वह भयभीत हुआ मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा।
रामचंद्र जी और लक्ष्मण राक्षस को आज यमलोक पहुंचा देना चाहते थे इसलिए वे दोनों भाई उस राक्षस को लात घूसों से मारते- ठुकराते उठा – उठाकर भूमि पर पटकते हुए उसका वध करने का प्रयास करने लगे।
उसे रामचंद्र जी और लक्ष्मण दोनों मिलकर बार-बार धरती पर पटक रहे थे। पर वह मारा नहीं जा रहा था। तब रामचंद्र जी ने लक्ष्मण से कहा कि यह राक्षस शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। इसलिए इसे भूमि में गाड़ दिया जाना चाहिए। रामचंद्र जी ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि एक गड्ढा खोदो। जिसमें इस राक्षस को गाड़ दिया जाएगा । तब लक्ष्मण जी ने कुदाल लेकर उस विराध राक्षस के पास ही एक लंबा चौड़ा गड्ढा खोद डाला। इसके बाद दोनों भाइयों ने गड्ढे में उस राक्षस को डाल दिया।
जब रामचंद्र जी वनवास गए तो उनके वनवासी जीवन में किसी राक्षस को मारने की यह पहली घटना थी राक्षस के अशोभनीय कृत्य से उन्हें यह आभास हुआ कि ये लोग जनसामान्य के साथ कैसा व्यवहार करते होंगे और राज्य के प्रजाजन इनके अत्याचारों से कितने भयभीत और आतंकित रहते होंगे ? उसके बाद रामचंद्र जी अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ महाभयंकर वन को छोड़ कर आगे बढ़ लिये। उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण से कहा कि अब हमें शरभंग ऋषि के आश्रम में चलना चाहिए। जिस समय रामचंद्र जी अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीताजी के साथ शरभंग के आश्रम में पहुंचे ,उस समय वहां पर यज्ञ हो रहा था। यज्ञ के उपरांत रामचंद्र जी ने ऋषि से अपने लिए कोई सुरक्षित स्थान पूछा। इस पर ऋषि ने कहा कि सुतीक्ष्ण नाम के ऋषि के पास आप चले जाओ, वह आपको सुरक्षित स्थान प्रदान कर देंगे।
ऋषि शरभंग ने उन तीनों को महर्षि सुतीक्ष्ण के यहां जाने का मार्ग भी दिखा दिया।
परंतु इसी समय ऋषि शरभंग ने एक आश्चर्यजनक घटना को अंजाम दे दिया। उन्होंने रामचंद्र जी से कहा कि आप तीनों तब तक यहां रुको जब तक मैं अपने शरीर को सांप की केचुली की भांति छोड़ न दूँ। इसके बाद ऋषि ने अग्नि प्रज्वलित करके मंत्र पूर्वक घृत के द्वारा विशाल यज्ञ किया। फिर उस जलती हुई अग्नि में कूद गए। जिससे उनका देह कुछ ही देर में पंचतत्व में विलीन हो गया।
इस घटना को देखकर दोनों भाई और सीता जी आश्चर्यचकित रह गये। उसके पश्चात नई घटना ने जन्म लिया । जिसने रामचंद्र जी को राक्षस संहार के प्रति और भी अधिक समर्पित कर दिया।
(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
- डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति