नेपाल ने भारत से कुछ सीखा है। उसने अपने देश के नये संविधान में धर्मांतरण को पूर्णत: निषिद्घ कर दिया है और गोहत्या को भी पूर्णत: प्रतिबंधित करने की बात कही है। बात स्पष्ट है कि नेपाल इन दो बातों के रहते भी अपने ‘हिंदू राष्ट्र’ के स्वरूप की रक्षा करने में सफल हो जाएगा।
भारत में धर्मांतरण की घटनाएं कई कारणों से होती हैं, उनमें से एक कारण यह भी है कि हिंदू समाज में आज भी जातिबंधन की कठोरता है। जातीय आधार पर छुआछूत की बीमारी से हिंदू समाज ग्रसित है। इसी बीमारी का परिणाम रहा है कि हिसार के भगाना गांव में 150 दलित परिवारों के मुखियाओं ने दिल्ली के जंतर मंतर पर अपना धर्मपरिवर्तन कर लिया है। ये लोग सामाजिक अन्याय के विरूद्घ पिछले तीन वर्ष से जंतर मंतर पर धरना दे रहे थे। उस समय सरकार भी सोती रही और हिंदू समाज की भलाई का ठेका लेने वाले कथित हिंदूवादी संगठन भी सोते रहे। किसी की आंख नही खुली कि जंतर मंतर पर क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है? अब जब इन लोगों ने धर्मांतरण कर लिया है तो सभी की आंखें खुल गयीं हैं। 36 बिरादरियों की पंचायत गांव में हुई है। उसके फरमान दिया है कि धर्म परिवत्र्तित करने वालों का बहिष्कार किया जाएगा। अब इनसे कौन पूछे कि जिस फरमान को तुमने दिया है, उसी से तो ये लोग पहले से ही पीडि़त थे। महापंचायत भी एक प्रकार का दबाव है और उसका निर्णय और भी अधिक संताप देने वाला है। अच्छा होता कि महापंचायत में लोग यह प्रस्ताव पास करते कि यदि हमारे बिछड़े भाईयों ने धर्मपरिवर्तन के अपने निर्णय को वापस लेकर पुन: घर वापसी नही की तो हम सभी लोग उनके घर के सामने धरना देंगे। भूख हड़ताल करेंगे इसके साथ-साथ यह भी प्रस्ताव पास होता कि जिन लोगों ने जाने अनजाने दलित भाईयों का उत्पीडऩ किया है, उनके कार्य पर भी यह पंचायत शोक व्यक्त करती है और भविष्य में ऐसी घटना न होने देने के लिए दलित भाईयों को आश्वस्त करती है।
हिंदूवादी संगठनों को चाहिए कि यथाशीघ्र देश में ‘जाति तोड़ो-समाज जोड़ो’ की मुहिम चलाई जाए। हिंदू महासभा की यह नीति पुराने काल में रही है। परंतु आज दुर्भाग्यवश यह संगठन स्वयं ही टूटन और बिखराव का शिकार है। जब तक बीमारी की जड़ पर प्रहार नही किया जाएगा तब तक रोगी को ठीक किया जाना असंभव है।
कांग्रेस की गलत नीतियों के कारण भी देश में जातिवाद को और जातीय भेदभाव को बढ़ावा मिला। देश की नौकरशाही में एक ही जाति के लोगों का वर्चस्व नेहरूकाल से ही आरंभ हो गया था। देश के सुदूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को ये एक ही वर्ग से आने वाले उच्चाधिकारी सरकारी नीतियों में उचित संरक्षण नही दे पाये। विकास के अवसरों का लाभ कुछ चुनी हुई जातियां या उनके लोग उठाने लगे। सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय देने की बातें केवल संवैधानिक ‘शो पीस’ बनकर रह गयीं। सरकारी नीतियों से ऐसा लगा कि देश के जन जातीय अथवा वनवासी क्षेत्रों को विकास के नाम पर ईसाई मिशनरियों को ठेके पर दे दिया गया है। उधर से सरकार ने आंखें मूंद लीं, और ईसाई मिशनरियों ने लोगों का धड़ाधड़ धर्मपरिवर्तन कर मर्म परिवर्तन कर डाला। जब आंखें खुलीं तो बहुत देर हो चुकी थी। अब तो ‘घर वापिसी’ भी लोगों को धर्मपरिवर्तन लगती है।
हमारे देश का दुर्भाग्य यह है कि यहां नीतियों के नाम पर अनीतियां बनती हैं और उन्हीं अनीतियों को देश की जनता झेलती रहती है। इसे किसी भी दृष्टिकोण से उचित नही कहा जा सकता। हमें नेपाल से कुछ सीखना चाहिए। इस देश ने अपनी जीवंतता का परिचय देते हुए हिंदुत्व के प्रति पुन: समर्पण, पूर्णनिष्ठा और आस्था व्यक्त की है। इसलिए धर्मांतरण को अपने देश में पूर्णत: निषिद्घ किया है। हमें यथाशीघ्र धर्मांतरण को अवैध घोषित करना होगा। पर यह भी सुनिश्चित किया जाना अपेक्षित है कि किसी भी व्यक्ति को सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक अन्याय या शोषण का शिकार न बनाया जाए। सभी के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा हो और विकास के अवसरों पर सबका समान अधिकार हो। लोकतंत्र प्रत्येक प्रकार के उग्रवाद के विरूद्घ है। इसमें सबके कल्याण के लिए सबका सहयोग अपेक्षित होता है। तुष्टीकरण और आरक्षण का भी लोकतंत्र विरोधी है। यह संरक्षण की बात कहता है। यही सोच हिंदुत्व की है, इसलिए हिंदुत्व सारी समस्याओं का एक समाधान है। हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर का चिंतन भी यही था।
मुख्य संपादक, उगता भारत