चाँदपुर के मेले में स्वामी ने केसे “कबीर पंथियों” की मुसलमानो ओर ईसाई से इज़्ज़त बचाई

उन्हीं दिनों शाहजहाँपुर ( उ०प्र० ) के समीप चाँदपुर गाँव में मेला लग रहा था । पहले वर्ष इसी मेले में पादरियों , मुसलमानों और कबीर पंथियों में वाद – विवाद हुआ था । इस चर्चा में मुसलमानों का पलड़ा भारी रहा था । उस गाँव में कबीरपंथियों की संख्या ज्यादा थी । उनके कारोबार दूर तक फैले हुए थे । उनमें प्यारेलाल और उनके भाई मुक्ताप्रसाद प्रमुख थे । वे जब अपने काम से इधर – उधर जाते तो मुसलमान उन्हें चिढ़ाते “ मेले में आप लोगों ने देख लिया कि इस्लाम धर्म ही सच्चा धर्म है । अब आपको इसे स्वीकार कर लेना चाहिए । ‘ वे लोग उनकी इस बात का कोई उत्तर न दे पाते । इसलिए इस वर्ष के मेले में वे कोई ऐसा विद्वान् लाना चाहते थे जो वाद – विवाद में मुसलमानों और पादरियों को निरुत्तर कर सके । इसके लिए उन्होंने आर्यसमाज के एक सज्जन मुंशी इन्द्रमणि मुरादाबादी से सम्पर्क किया । उन्होंने उन्हें वचन दिया कि मैं तो मेले में अवश्य ही आऊँगा , परन्तु मेरी पकड़ इस विषय में गहरी नहीं है । आप वेदों के महापण्डित स्वामी दयानन्द जी को आमन्त्रित कीजिए । उनकी विद्वत्ता के सामने कोई भी मतावलम्बी नहीं ठहर पाता । स्वामी जी को आमन्त्रित करने का कार्य इन्द्रमणि जी को ही सौंप दिया गया । उन्होंने सहारनपुर जाकर स्वामी जी से सम्पर्क किया । स्वामी जी ने सहर्ष स्वीकृति दे दी ।

यथासमय मुंशी इन्द्रमणि जी स्वामी जी को लेकर चाँदपुर पहुँच गए । कबीरपंथियों की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा । वे लोग स्वामी जी के दिव्य दर्शन पाकर कृतकृत्य हो उठे । उन्होंने स्वामी जी को श्रद्धापूर्वक गाँव में ठहराना चाहा , परन्तु स्वामी जी ने स्वीकार न किया । गाँव से दूर उन्होंने अपने डेरे की व्यवस्था कराई । शास्त्रार्थ के लिए तम्बू लगवा दिए गए ।

19 मार्च सन् 1877 को मेला आरम्भ हुआ । अगले दिन शास्त्रार्थ की तिथि निश्चित कर दी गई । मुसलमान दूर – दूर से इस शास्त्रार्थ को सुनने के लिए आ रहे थे । इन्द्रमणि उनकी भारी संख्या देखकर आशंकित हो गया । उसने स्वामी जी से कहा — ‘ मुसलमान भारी संख्या में उपस्थित हैं । ये लोग शीघ्र ही उत्तेजित हो जाते हैं । इसलिए महाराज शास्त्रार्थ में कठोर शब्दावली का प्रयोग न करें तो अच्छा है ।

स्वामी जी ने इन्द्रमणि को उत्साहित करते हुए कहा — ‘ इन्द्रमणि , तुम किसी प्रकार की कोई चिन्ता मत करो । दयानन्द कभी सत्य की प्रतिष्ठा करने से चूकता नहीं है । सत्य मेरा अपना नहीं है । सत्य सनातन है , उसका प्रचार – प्रसार मेरा ध्येय है । इस मार्ग से मुझे कोई विचलित नहीं कर सकता | ‘ ‘

20 मार्च को शास्त्रार्थ सभा का आयोजन किया गया । समय पर पण्डित , मौलवी और पादरी उसमें आ विराजे । विशाल पण्डाल ठसाठस भर गया । लगता था कि सारा मेला ही सभा – स्थल पर उपस्थित हो गया

निम्न पाँच विषय शास्त्रार्थ के समय विचारार्थ निश्चित किए गए
1 . सृष्टि की रचना ईश्वर ने कब , क्यों और किस वस्तु से की ?
2 . ईश्वर सर्वव्यापक है या नहीं ?
3 . ईश्वर दयालु और न्यायकारी किस प्रकार है ?
4 . किस कारण वेद , बाइबिल और कुरान ईश्वर वचन हैं ?
5 . मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है ?

शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ तो मौलवी और पादरी आपस में उलझ गए । एक दूसरे को कटु वचनों से सम्बोधित करने लगे । स्वामी जी ने कहा कि हम लोग यहाँ सत्य के निर्णय के लिए उपस्थित हुए हैं । आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग करना शोभनीय नहीं है ।

स्वामी जी ने बोलना आरम्भ किया तो पूरी सभा ने दत्तचित्त होकर सुना । मौलवी और पादरी उदास हुए घर लौटे । अगले दिन मोक्ष विषय पर ही चर्चा हुई । इस विषय का आरम्भ स्वामी जी ने ही किया । उन्होंने कहा — ‘ सुख – दु : ख से छूट कर परमानन्द की प्राप्ति ही मोक्ष है । इससे मनुष्य जन्म – मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है । ‘ ‘

मौलवियों और पादरियों को विशेष रुचि से नहीं सुना गया । परिणाम यह हुआ कि पादरी अगले ही दिन मेला छोड़कर चले गए । मौलवी भी नहीं ठहरे । एक – दो पादरी जो महाराज से अत्यधिक प्रभावित थे , वहीं बने रहे।

स्वामी जी उनके साथ धर्म – चर्चा करते रहे । स्वामी जी ने उनसे कहा कि बाइबिल में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा कि ईसा पर विश्वास लाने से मनुष्य को मोक्ष प्राप्त होता है । यह पादरियों की कल्पना मात्र लगता है ।

साभार :- पुस्तक – कालजयी संत ⚜️महर्षि दयानंद सरस्वती ⚜️

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