कांग्रेस से नज़दीकियां क्यों खत्म करते जा रहे हैं राजनीतिक दल ?
बृजेश शुक्ल
कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में जब सोनिया गांधी अपनी ही पार्टी के नाराज नेताओं को चेतावनी दे रही थीं, तब शायद उन्हें भी इसका अहसास होगा कि विपक्षी दलों के अनेक नेता नेतृत्व का वह झंडा हथियाने की कोशिश में हैं, जिसे कांग्रेस अभी तक अपनी चीज मान कर चल रही है। यह विडंबना ही है कि कांग्रेस की सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी को यह बताना पड़ जाए कि कांग्रेस की अध्यक्ष वही हैं। कांग्रेस जहां सत्ता में है, वहां उसके ही अलंबरदार यह जानते हुए भी आपस में दो-दो हाथ करने में लगे हैं कि पार्टी इस समय गंभीर संकट से गुजर रही है।
कन्नी काटते दल
उत्तर प्रदेश में चुनावी बिगुल बज चुका है। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने कांग्रेस से दूरी बनाकर रणनीति साफ कर दी है। बीएसपी कांग्रेस के प्रति पहले से ही आक्रामक है। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में राज्य में बीजेपी और एसपी-बीएसपी -आरएलडी महागठबंधन के बीच सीधा मुकाबला देखने को मिला था। तब कांग्रेस अकेले ही मैदान में थी। लेकिन फिलहाल चुनावी परिदृश्य बदला लग रहा है।
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समाजवादी पार्टी इस बार छोटे दलों से समझौता कर रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव में उसका कांग्रेस से गठबंधन था। यह विडंबना ही है कि एसपी और बीएसपी इस बार कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दल से दूरी बनाए हुए हैं। हालांकि असदुद्दीन ओवैसी से भी समझौता करने के लिए कई छोटे दल आगे आए हैं, लेकिन कांग्रेस को अभी तक कोई चुनावी साथी नहीं मिला है। कांग्रेस पार्टी की चमत्कारिक नेता मानी जाने वालीं प्रियंका गांधी के तमाम प्रयासों और लखीमपुर जैसे मुद्दे पर सर्वाधिक सक्रिय भूमिका निभाने के बावजूद बीजेपी विरोधी दलों की उससे दूरी राजनीति में दूरगामी असर के संकेत हैं। यह कहानी सिर्फ उत्तर प्रदेश की नहीं है। बिहार में भी राष्ट्रीय जनता दल कांग्रेस से अब परहेज कर रहा है।
वास्तव में जब नरेंद्र मोदी के विकल्प की तलाश हो रही है और सभी दलों को एकजुट कर बीजेपी को हराने के प्रयास चल रहे हैं तब क्षेत्रीय दलों का यह रुख आने वाले दिनों की राजनीति की दिशा और दशा बता रहा है। ये वही दल हैं, जो दिल्ली से मोदी सरकार की विदाई तो चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस से दूरी बनाए रखते हुए। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव परिणाम केवल राज्य तक सीमित नहीं होंगे बल्कि यह तय कर देंगे कि मोदी विरोधी मोर्चा किसके हाथ में होगा।
कांग्रेस के उत्साह का एकमात्र कारण यह है कि प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय हो गई हैं। लेकिन क्या कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपना मजबूत आधार साबित कर मोदी विरोधी मोर्चे का नेतृत्व अपने हाथ रख पाएगी? वास्तव में कांग्रेस को चमत्कारों में जीने की आदत पड़ गई है। उसके कई नेता गांधी नेहरू परिवार के चमत्कारों की चर्चा करते नहीं थकते और आज भी इन्हीं कथित चमत्कारों के बल पर सफलता पाने के बड़े-बड़े दावे कर रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव के कुछ पहले कांग्रेस के एक बड़े नेता से मुलाकात हुई तो बोले कि अब तो एसपी-बीएसपी-आरएलडी महागठबंधन की कोई हैसियत ही नहीं बची। ‘ऐसा क्यों?’ ‘क्योंकि प्रियंका गांधी मैदान में उतर गई हैं। लोग उतावले हैं उन्हें वोट देने के लिए।’ उन्होंने सपाट उत्तर दे दिया। परिणाम सामने आए तो यूपी में कांग्रेस केवल एक सीट जीत पाई।
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एक बार फिर कांग्रेस इसी दावे के साथ मैदान में उतरने जा रही है कि राज्य में उसकी पार्टी चमत्कार करने जा रही है। य़ह अलग बात है कि इस बार उसके खाते में कुछ काम भी हैं। लेकिन सांगठनिक दृष्टि से कांग्रेस के पास कुछ भी नहीं है। कांग्रेस क्या इस बात से अवगत नहीं है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्यों में उसकी जमीनी हालात खराब है। बिहार में आरजेडी गठबंधन की हार का ठीकरा उसी के सिर फोड़ा गया था क्योंकि उसने सीटें तो बहुत हथिया ली थीं लेकिन जीत के मामले में पिछड़ गई और गठबंधन को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा।
कांग्रेस के नेता य़ह दावा करते रहते हैं कि देश में कांग्रेस के बिना मोदी विरोधी मोर्चा की कल्पना नहीं की जा सकती। फिर क्यों तमाम क्षेत्रीय दल उससे हाथ नहीं मिलाना चाहते? साफ है कि जमीनी सचाई कांग्रेस के इस दावे पर मुहर नहीं लगाती। बिहार और यूपी जैसी ही स्थिति अन्य राज्यों में भी है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार भले ही संकोच में कहते हों कि कांग्रेस के बिना मोदी विरोधी मोर्चा तैयार नहीं हो सकता, लेकिन उनकी सहयोगी शिवसेना कई बार दावा कर चुकी है कि जब तक शरद पवार मोर्चे का नेतृत्व नहीं करेंगे तब तक मोदी के खिलाफ कोई मजबूत मोर्चा तैयार नहीं हो सकता। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी की भी कांग्रेस से उतनी ही दूरी है जितनी अन्य क्षेत्रीय दलों की। तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव भी कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार कर लेंगे ऐसा कदापि नहीं लगता।
करो या मरो की स्थिति
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि इसका एकमात्र कारण यही है कि कांग्रेस अब कमजोर हो चुकी है और कमजोर का नेतृत्व कोई स्वीकार नहीं करता। यदि कांग्रेस मजबूत होती तो उसके पीछे चलने में तमाम राजनीतिक दल गौरवान्वित महसूस करते। कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में यह साबित करे कि उसका जनाधार मजबूत हो रहा है। उसके लिए यह करो या मरो की लड़ाई है। यदि कांग्रेस अब अपने को मजबूत नहीं साबित करती तो विपक्षी दलों के बीच उसकी पूछ कमजोर पड़ेगी। उसकी आगे की राह और कठिन होगी। बीजेपी और नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने के लिए तैयार बैठे कई बड़े क्षेत्रीय दलों के नेता अगर एक बार आगे बढ़ गए तो फिर कांग्रेस के लिए कोई गुंजाइश शायद ही बचे।
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