१८वीं सदी के रूस में हिन्दू व्यापारी
आज के दौर में वैश्विक व्यापार में भारत के कुछ ही व्यापारिक परिवार विश्व में अपना सिक्का चला पाए है। लेकिन एक समय ऐसा भी था जब भारत के वैश्यों ने बड़े पैमाने पर भारतीय उत्पादों को दूर देशों तक पहुंचाने का कार्य किया था जिस कारण भारतीय उत्पादों व भारतीय संस्कृति के प्रति आज भी सम्मान वहां के नागरिको में है।
वर्ष 2017 में रूस और भारत के बीच राजनयिक सम्बन्धों की स्थापना की 70वीं जयन्ती मनाई जाएगी। लेकिन यह बात आज हम भारतीय को शायद ही पता हो कि रूस से अच्छे सम्बन्ध मात्रा 70 वर्षाे से नही हैं। हमारी मित्राता बहुत पुरानी है। 17-18 वीं सदी में रूस में भारतीय व्यापार खूब फल-फूल रहा था। रूस के अस्त्राखान प्रदेश में तो भारतीय व्यापारियों की एक पूरी बस्ती ही बसी हुई थी। तब चार-सौ के लगभग छोटे-बड़े भारतीय व्यापारी अस्त्राखान में रहा करते थे। भारतीय व्यापारियों के रूस में आकर बसने से पहले अफनासी निकीतिन, सिम्योन मालिन्की और अन्य रूसी व्यापारी भारत की लम्बी-लम्बी यात्राएँ कर चुके थे और इस तरह से रूस और भारत के बीच व्यापारिक सम्बन्धों की शुरूआत हो चुकी थी।
अट्ठारहवीं सदी के शुरू में रूस के अस्त्राखान नगर में बड़ी संख्या में भारतीय व्यापारी बसे हुए थे। वर्ष 1716 में रूस की यात्रा करने वाले अँग्रेज यात्राी जॉन बेल ने ’सेंट पीटर्सबर्ग से एशिया के अग्रिम हिस्से तक’ नामक अपने संस्मरणों की एक किताब लिखी। जिसमें उन्होंने लिखा था “अस्त्राखान और फारस, खीवा, बुखारा व भारत के बीच बड़े स्तर पर व्यापार होता है। इन सभी जगहों के व्यापारियों की अस्त्राखान में बड़ी-बड़ी सराय हैं। इन सरायों में इन जगहों के व्यापारी आकर ठहरते हैं और अपना माल बेचते हैं।”
जॉन बेल आगे लिखते है “अस्त्राखान में बड़ी संख्या में भारतीय वैश्य रहते हैं, जिनके माथे पर (तिलक) लाल सिन्दूर और कोई तेल पुता रहता है। ये सभी लोग बड़े भले और सरल लोग हैं। बड़ी जल्दी दूसरों के साथ घुल-मिल जाते हैं। ये लोग शाकाहारी हैं और सिर्फ सब्जियाँ और फल खाते हैं।” भारतीय वैश्यो के सरल और सौम्य व्यवहार के कारण रूस की तत्कालीन सरकार हर संभव सहायता करती थी और उनको पूरा-पूरा प्रश्रय देती थी।
रूस की सरकार ने तब अस्त्राखान के राज्यपाल (गवर्नर) को यह निर्देश दे रखा था कि “अस्त्राखान में आकर बसे सभी एशियाई व्यापारियों को पूरा-पूरा संरक्षण दिया जाए और उनका व्यापार बढाने में उनकी मदद की जाए तथा उनकी सम्पत्ति की पूरी-पूरी सुरक्षा की जाए। उनके साथ प्रेमभरा व्यवहार किया जाए, उनका स्वागत किया जाए। और इस बात का ध्यान रखा जाए कि कोई उन्हें परेशान न करें।”
भारत-रूस के इन व्यापारिक रिश्तों को शुरू करने में हिन्दू वैश्य अम्बू राम का बड़ा योगदान रहा। अक्तूबर 1722 में अम्बू राम के नेतृत्व में भारतीय व्यापारियों के एक प्रतिनिधिमण्डल ने अस्त्राखान की यात्रा पर आए रूस के जार प्योतर प्रथम से भेंट की। इस भेटवर्ता के बाद रूस के जार ने यह आदेश पारित किया कि, अस्त्राखान में रहने वाले भारतीय व्यापारियों को यह अधिकार दिया जाता है कि वे अपने सम्पत्ति और माल सम्बन्धी झगड़ों का निर्णय अपने नियमों के अनुसार करेंगे। जार का यह आदेश बाद में एक कानून बन गया और उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षाे तक लागू रहा।
जार के आदेश और स्थानीय सरकार के समर्थन तथा सीमाकर कानूनों में दी गई छूट का लाभ उठाकर भारतीय व्यापारी तब अस्त्राखान प्रदेश से नीइनी नोवगरद, सरातफ, मस्क्वा (मास्को) और साँक्त पितेरबुर्ग (सेण्ट पीटर्सबर्ग) प्रदेशों तक अपना माल लेकर व्यापार करने जाते थे। नीइनी नोवगरद की प्रसिद्ध मकारेवस्की हाट में भी भारतीय व्यापारी अपना माल लेकर पहुँचते थे। उत्तरी ध्रुव के पास स्थित अर्खान्गेल्सक नगर में भी भारतीय व्यापारी अक्सर दिखाई देते थे। यहाँ आकर वे यूरोपीय माल खरीदा करते थे। भारत के ये व्यापारी रूस सरकार की सहायता और समर्थन का बड़ा ऊँचा मूल्यांकन करते थे और अक्सर यह बात दोहराते थे कि “रूस में उन्हें ऐसी सुविधाएँ मिली हुई हैं, जैसी सुविधाएँ उन्हें फारस में और दूसरे एशियाई देशों में भी उपलब्ध नहीं हैं।”
इसका प्रमाण यह है कि तब भारतीय व्यापारियों ने पूरे अस्त्राखान के एक चौथाई व्यापार पर कब्जा कर रखा था। वर्ष 1724 में भारत के व्यापारियों ने 1 लाख 4 हजार रूबल का माल बेचा था। रूस में भारतीय व्यापारियों को अपनी धार्मिक गतिविधियों की भी पूरी छूट मिली हुई थी। वे अपने धार्मिक त्यौहार और धार्मिक रीति-रिवाज अपने ढंग से मनाते थे। इसमें किसी का कोई हस्तक्षेप नहीं था। अट्ठरहवीं सदी में अस्त्राखान में भारतीय व्यापारियों की जो सराय बनी हुई थी, उसमें तीन कमरों में उन्होंने अपना मन्दिर बना रखा था। धनवान भारतीय व्यापारियों के साथ उनके पुजारी और पुरोहित भी मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग की यात्रा किया करते थे।
वर्ष 1777 में रूस की यात्रा करने वाले हालैण्ड के एक यात्राी जार्ज हॉटलिब जोहान ने एक किताब लिखी थी, जिसका शीर्षक था – रूस में रहने वाली सभी जातियों के रीति-रिवाज, पहनावा, रहन-सहन, धर्म और अन्य स्मरणीय गतिविधियाँ। अपनी इस किताब में उन्होंने विस्तार से तब अस्त्राखान में रहने वाले भारतीयों के जीवन और रहन-सहन का वर्णन किया है। जार्ज ने लिखा है “जार प्योतर महान् ने भारतीय व्यापारियों को जो विशेषाधिकार दिए थे, उनके आधार पर अस्त्राखान में बहुत से भारतीय व्यापारी रहते हैं। भारतीय व्यापारियों के कुछ परिवार किज्ल्यार और तेरेक में भी बसे हुए हैं। ये सभी व्यापारी पश्चिमी भारत के विभिन्न इलाकों से आकर अस्त्राखान में बस गए हैं। इनकी संख्या चार सौ के करीब है।” जार्ज ने वैश्यो के बारे में लिखा कि काले बालों और काली आँखों वाले ये सभी भारतीय पतले-दुबले और लम्बे हैं। इनके दाँत मोतियों की तरह एकदम सफेद हैं। छोटी-छोटी दाढियों और खूबसूरत चेहरे वाले इन भारतीयों का रंग हलका पीला या साँवला है। वे बहुत धीमी आवाज में और सोच-सोचकर बोलते हैं। उनकी चाल ऐसी है, जैसे कोई प्रतिष्ठित और आदरणीय व्यक्ति चलता है। वे बेहद ईमानदार, विनम्र और धीर-गम्भीर हैं और बेहद सतर्क रहते हैं। ये व्यापारी आम तौर पर सन के बने कपड़े का व्यापार करते हैं, जिसे वे मुंगरू कहते हैं। इसके अलावा वे भारत, फारस और बुखारा का बना सूती, रेशमी और अर्ध-रेशमी कपड़ा भी बेचते हैं।
ये भारतीय व्यापारी सूद पर पैसा चढाने का धन्धा भी करते हैं और अपने देनदारों के साथ बड़ा अच्छा व्यवहार करते हैं। ये हमेशा उतना ही ब्याज लेते है, जो कानून सम्मत होता है। ये भारतीय व्यापारी अपनी बेवकूफियों के कारण मुसीबत में फँस गए लोगों की भरपूर मदद करते हैं। आम तौर पर वे गुप्त रूप से सहायता करते हैं क्योंकि उनके धर्म के अनुसार किसी की सहायता करना अच्छी बात है। वैश्यो के इन्ही उच्च मापदंड के व्यवहार ने भारत का नाम विश्व में ऊँचा किया।
✍🏻भारतीय धरोहर
प्राचीन काल से ही भारत मसालों का मुख्य निर्यातक रहा है | पुराने समय में मसाले मिडिल ईस्ट तक तो समुद्री रास्ते से जाते थे लेकिन वहां से आगे यूरोप की तरफ थल मार्ग से जाते थे | पुर्तुगाल के King John II ने अपने समुद्री कप्तानों को अफ्रीका के गिर्द घूम कर भारत तक का समुद्री मार्ग ढूँढने कहा | वास्को द गामा इसी समुद्री रास्ते को ढूंढता हुआ भारत पहुंचा था |
20 मई 1498 को वास्को द गामा का बेड़ा जब कालीकट पहुँचा तो उसने स्थानीय राजा ज़मोरिन से मुलाकात की | उसका अच्छा स्वागत हुआ लेकिन कोई व्यापार समझौता नहीं हुआ | वास्को द गामा जो मसाले भारत से ख़रीद कर ले गया उसकी कीमत जब लगाई गई तो पता चला की यात्रा के खर्च से करीब साठ गुना ज्यादा का सौदा वो लेकर आया है | अपनी कामयाबी से प्रसन्न वास्को 1502 C.E. में दोबारा भारत आया, इस बार उसके साथ पंद्रह जहाज और करीब 800 आदमी थे | इसके बाद से पुर्तगाली बेड़े अक्सर भारत आने लगे और धीरे धीरे पश्चिमी तट पर पुर्तगालियों के चार किले भी बनकर तैयार हो गए | भारत में पुर्तगाली शासन की ये शुरुआत थी |
उन इलाकों में 1510 C.E. और 1544 C.E. के बीच तिरुमल राय (तृतीय) का शासन था | अब्बक्का उनकी भतीजी थी | वो अपने समय की अन्य राजकुमारियों की तरह ही तलवारबाजी, घुड़सवारी, युद्ध और राजनीति की कलाओं में दक्ष थी | जब उनसे अपने लिए योग्य वर के चुनाव के लिए पुछा गया तो चोव्टा वंश की अन्य कन्याओं की तरह ही उन्होंने साहसी, आजाद ख़यालों वाले और अपने लिए उपयुक्त वर ढूँढने को कहा | लक्ष्मप्पा जो की बंग वंश के शाषक थे उनसे अब्बक्का का विवाह तय हुआ | लक्ष्मप्पा अपनी राजधानी मंगलोर से शासन करते थे | ये उल्लाल से थोड़ी ही दूरी पर था |
तिरुमल राय (तृतीय) की मृत्यु के बाद 1544 C.E. में अब्बक्का ने शासन की बागडोर अपने हाथ में ली, हालाँकि शासन का काम काज वो 1525 C.E. से ही देख रही थीं | उनके पति लक्ष्मप्पा की 1556 C.E. में मृत्यु होने के बाद उनके दामाद कामराय ने बंग वंश का काम काज मंगलोर में संभाला | इस समय तक पुर्तगाली अपने काफी ठिकाने पश्चिमी तट पर बना चुके थे | वहां से उन्होंने समुद्री रास्तों और लगभग पूरे गोवा पर अधिकार कर लिया था |ज़मोरिन की राजधानी उन्होंने अपने कब्ज़े में ले ली और 1525 CE में तुलुनादु के मंगलोर बंदरगाह पर हमला करके उसे ध्वस्त कर दिया | उल्लाल से शासन देखती रानी अब्बक्का इन हमलों से चौकन्नी हुई और फ़ौरन उन्होंने युद्ध और अचानक हमलों से निपटने की तैयारी शुरू कर दी |
एडमिरल डोम अल्वारो डा सिल्वेइरा से युद्ध
उस समय उल्लाल मसालों के व्यापार का प्रमुख केंद्र था | पुर्तुगाली चाहते थे की रानी उन्हें कर दे और स्वयं को उनके अधीन माने | रानी अब्बक्का ने ऐसा करने से इंकार कर दिया, मसालों का व्यापार करने का एकाधिकार भी पुर्तुगालियों को नहीं दिया | पुर्तुगालियों के विरोध की परवाह किये बिना रानी अब्बक्का ने मसालों से लदे चार जहाज मिडिल ईस्ट के अरब देशों के लिए रवाना कर दिए |
इस से नाराज पुर्तुगालियों ने एडमिरल डोम अल्वारो डा सिलेवेइरा को रानी को सबक सिखाने भेजा | एडमिरल के जहाजों ने उल्लाल के बंदरगाह के आस पास रात में डेरा जमाया | रात के वक्त वो लोग भौचक्के रह गए जब उनके जहाजों को अब्बक्का की नौसैनिक टुकड़ियों ने घेर लिया ! आग के कई गोले पुर्तगाली जहाजों पर दागे गए | थोड़ी ही देर चली लड़ाई में पुर्तगालियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा | चार पुर्तगाली जहाजों को अब्बक्का की नौसेना ने अपने कब्ज़े में ले लिया | जमोरिन ने कालीकट से और राजा वेंकटप्पा नायक ने केलाड़ी से अब्बक्का की इस अभियान में मदद की थी |
पुर्तगालियों ने हारने की बात सपने में भी नहीं सोची थी | इस हमले में बुरी तरह नाकाम होने पर उनकी कमर ही टूट गई | इसके बाद वो बारह साल तक उल्ल्लाल की तरफआँख उठाने की भी हिम्मत नहीं कर पाए | काफी दिनों बाद 1557 और 1558 में पुर्तगालियों ने उल्लाल पर दो बार हमला किया और बूढ़े बच्चों को भी क़त्ल कर दिया |उल्लाल शहर में उन्होंने आग भी लगा दी | मगर रानी अब्बक्का के जवाबी हमले ने फिर से उनके पांव उखाड़ दिए और पुर्तगालियों को पीछे हटना पड़ा |
उल्लाल बंदरगाह पर पुर्तुगालियों ने दूसरा हमला 1567 में किया | लेकिन इस बार भी रानी अब्बक्का युद्ध के लिए तैयार थीं और पुर्तगालियों को हारकर पीछे हटना पड़ा |
अब तक पुर्तगालियों की ताकत भारत में काफी बढ़ चुकी थी और तीसरी बार उन्होंने 1568 में उल्लाल के बंदरगाह और शहर पर एक साथ हमला करने के ठानी | वाइसराय अंटोनियो नोरोन्हा ने एडमिरल मस्कारेन्हास के नेतृत्व में नौसेना और जनरल जो पेक्सेटो के कमान में थल सेना को हमला करने भेजा | इस बार पुर्तुगाली काफी तैयारी के साथ आये थे | उन्होंने बंदरगाह पर कब्ज़ा जमा लिया और घरों को जलाते हुए राजभवन की तरफ बढ़े | जनरल जो पिक्सेटो जब तक राजभवन पहुँचता रानी वहां से निकल चुकी थी |रात रानी ने पास के एक गाँव में शरण ली | सवेरा होने से पहले ही अपने दो सौ जांबाज़ सिपाहियों के साथ रानी ने एक गुप्त मार्ग से महल पर धावा बोल दिया |
जनरल जो पिक्सेटो और उसके करीब सत्तर सिपाही राजमहल में ही मारे गए | जान बचाकर भागते जनरल जो पेक्सेटो के सिपाहियों को रानी और उनकी सैन्य टुकड़ी ने खदेड़ खदेड़कर मारा | उधर जहाजों में बैठे एडमिरल मस्कारेन्हास और उसके आदमी शराब पी कर जीत का जश्न मना रहे थे | करीब 500 नौसैनिकों की टुकड़ी ने उनपर अचानक ही धावा बोल दिया| एडमिरल और उसकी लगभग पूरी नौसेना इस लड़ाई में मारी गई |
ये इतिहास के उन बहुत कम युद्धों में से है जिसमे जनरल और एडमिरल एक ही लड़ाई में मार गिराए गए हों | वो भी 1000 से कम के फौज़ी टुकड़ी से |
अब्बक्का का मंगलोर के किले पर हमला (1568)
इस समय तक पुर्तुगालियों ने मंगलोर के किले पर कब्ज़ा जमा लिया था | अपने साथ 6000 की फौज़ लेकर रानी ने किले पर हमला कर दिया | पुर्तुगाली आक्रान्ताओं की फौज़ रानी के सामने ज्यादा देर नहीं टिक पायी | थोड़ी ही देर में रानी ने मंगलोर के किले पर दोबारा अधिकार कर लिया |
रानी अब्बक्का जनश्रुतियों में
रानी अब्बक्का की मृत्यु 1575 में हुई, उनके बाद उनकी बेटी ने चोव्टा वंश का शासन संभाला | वो भी अपनी माँ जितनी ही बहादुर महिला थीं और उनकी बहादुरी के भी कई किस्से प्रचलित हैं| तुलुनाडू के लोक कथाओं और कविताओं में रानी अब्बक्का आज भी जिन्दा हैं | उनके किस्सों को कई पुर्तुगाली दस्तावेज़ भी प्रमाणित करते हैं | कुछ इतिहासकार मानते हैं की उन्हें 1570 में कैद कर लिया गया था लेकिन इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता | किस जेल में रखा गया था ये भी नहीं पता चलता |
तटीय कर्णाटक के लोक गायन यक्षगान और लोक नाट्य भूटा कोला में उनके कई युद्धों का वर्णन आता है | अग्निबाण का प्रयोग करने वाली वो अंतिम योद्धा मानी जाती हैं | यहाँ ध्यान देने योग्य ये भी है की वो जैन धर्म में विश्वास करती थी | उनकी दो पुत्रियों को अक्सर युद्धों में उनके साथ ही बताया जाता है |
वीर रानी अब्बक्का उत्सव हर साल उनकी याद में मनाया जाता है, इस अवसर पर वीर रानी अब्बक्का प्रशस्ति उल्लेखनीय कार्य करने वाली महिलाओं को दिया जाता है | उल्लाल में उनका एक धातु का स्मारक है | भारत के पहले Inshore Patrol Vessel ICGS Rani Abbakka का नाम भी उन्ही के नाम पर है | ये जहाज चेन्नई से निकलता है और 20 जनवरी, 2012 से सेवारत है |
✍🏻आनन्द कुमार