प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद नगा नेता ने भारत सरकार और नगाओं के बीच एक नए रिश्ते की शुरुआत के अलावा आगे आने वाली बड़ी चुनौतियों की बात कही।
ये विद्रोही नगा नेता हैं टी मुइवा, जो ‘स्वतंत्र संप्रभु ग्रेटर नगालिम राष्ट्र’ (राज्य नहीं) की मांग को लेकर भारत की आजादी के समय से ही खूनी संघर्ष चला रहे हैं। नगालैंड में इनकी अपनी भूमिगत ‘संघीय नगालिम सरकार’ है, जिसके स्वयंभू प्रधानमंत्री हैं, मुइवा। अपने संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (एनएससीएन) के मुइवा महासचिव हैं। संगठन के दूसरे संस्थापक इशाक चिशी स्वू अध्यक्ष हैं और अपनी ‘सरकार’ के स्वयंभू राष्ट्रपति।
इन दोनों ने हमेशा भारत सरकार से ऐसा संबंध रखा, मानो यह ‘नगालिम सरकार’ और भारत सरकार के बीच हो। 1997 में भारत सरकार से हुए संघर्ष विराम समझौते के बाद से अस्सी दौर की बेनतीजा वार्ताओं में भी नगा नेता ने अपने को उसी रूप में पेश किया। लेकिन दिल्ली से लेकर नगालैंड तक भारत सरकार के खुफिया अधिकारियों से मुइवा की जितनी वार्ताएं हुईं, उनमें किसी का भी मजमून स्पष्ट नहीं किया गया। सारे मुद्दे गोपनीय रखे गए। वार्ताकार से लेकर केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधिकारियों ने सारा कुछ गोलमोल रखा। ‘नगालिम सरकार’ बाजाप्ता टैक्स वसूलती है, उसकी अपनी ‘पुलिस’ है।
नगा नेता प्राय इस बात पर जोर देते रहे हैं कि नगाओं का गौरवशाली इतिहास रहा है, कि वे कभी किसी के अधीन नहीं रहे, इसलिए कोई सम्मानजनक समझौता तभी होगा जब भारत सरकार इस बात को नजरअंदाज न करे ।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से आरएन रवि नगा नेताओं से वार्ता चला रहे हैं। प्रधानमंत्री ने ही आगे बढ़ कर समझौते को ‘ऐतिहासिक’ बताया। उन्होंने एक और बात कही कि महात्मा गांधी को नगाओं से बहुत प्रेम था। प्रधानमंत्री ने शायद इसलिए ऐसा कहा क्योंकि नगा नेता मुइवा जब पहली बार अगस्त, 1997 में संघर्ष विराम समझौते के लिए दिल्ली आए तो राजघाट जाकर बापू को श्रद्धासुमन अर्पित करने के बाद प्रचार किया कि ‘महात्मा गांधी नगा आजादी के समर्थक थे’।
1997 की सहमति के बारे में तो तुरंत पता चल गया था, संघर्ष विराम के लिए दोनों पक्ष राजी हुए थे। लेकिन ताजा समझौते के किसी पहलू का खुलासा नहीं हुआ। समझौता किस बिंदु पर हुआ, किस-किस पेचीदा मुद्दे पर सहमति बनी, वे कौन-सी बातें हैं जिनके कारण सोलह वर्षों से सारी वार्ताएं बेनतीजा चल रही थीं। इस समझौते के अंतर्गत नगा नेताओं का भारत सरकार से संबंध कैसा होगा और वे चुनौतियां कौन-सी होंगी, जो मुइवा दस्तखत के बाद बोल गए। मुइवा ने अगर भारतीय संविधान के दायरे में आने वाली कोई व्यवस्था स्वीकार की है, तो वह किस तरह की होगी।
बेनतीजा वार्ता के दौर में पूर्वोत्तर की नगा आबादी वाले इलाकों को मिलाकर ‘ग्रेटर नगालिम’ बनाने की बात प्रचारित की जा रही थी। लेकिन असली मुद्दे पर दोनों पक्षों ने चुप्पी साध रखी थी कि इसका स्वरूप क्या होगा- यह ‘स्वतंत्र संप्रभु’ होगा या ‘स्वायत्त’। अभी तो कहना मुश्किल है कि दो अगस्त को हुए समझौते से इस जटिल समस्या के स्थायी समाधान का रास्ता निकलेगा या नहीं। क्योंकि मुइवा ने अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है कि ‘स्वतंत्र संप्रभु’ वाला मुद्दा उन्होंने छोड़ दिया है या नहीं। इसके बिना समझौते की बात बेमानी है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए नगा समझौता ‘ऐतिहासिक’ हो सकता है, लेकिन कुल मिलाकर यह राजनीतिक है। जिन नेताओं से प्रधानमंत्री ने नगा समझौते के लिए बात की, वे सब के सब उनसे संसद में गतिरोध दूर करने वाला समझौता चाहते थे, ताकि संसद चले।
भारत सरकार ने ऐसे समय एनएससीएन के एक गुट से समझौता किया है, जब दूसरा गुट सुरक्षा बलों के लिए कठिन चुनौती बना हुआ है। एनएससीएन के खापलांग गुट से 2001 में तत्कालीन राजग सरकार ने ही संघर्ष विराम समझौता किया था, क्योंकि उससे मोर्चा लेना भी सुरक्षा बलों को महंगा पड़ता था। खापलांग गुट को मुइवा की तरह कभी वार्ता के लिए नहीं बुलाया गया। खुफिया अधिकारी मुइवा की तरह खापलांग से कभी नहीं मिले।
खापलांग के साथ हुए संघर्ष विराम समझौते को ताक पर रख मुइवा को नगाओं का एकमात्र प्रतिनिधि मान कर समझौता करना पूर्वोत्तर की जनता के गले नहीं उतर रहा है। स्वागत से ज्यादा इस समझौते को लेकर आशंकाएं जताई जा रही हैं, जो बेबुनियाद नहीं हैं। सबसे पहली आशंका मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकरम इबोबी सिंह और बाहरी मणिपुर सीट से लोकसभा सदस्य थांग्सो बइते ने उठाई है।
दोनों नेताओं ने समझौते का स्वागत करते हुए चेतावनी दी है कि इससे पड़ोसी राज्यों की सेहत पर कोई असर नहीं पडऩा चाहिए। थांग्सो मणिपुर की सबसे ज्यादा नगा आबादी वाली सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं और एनएससीएन नेता मुइवा का जन्मस्थान मणिपुर के सेनापति जिले में है। इसलिए थांग्सो ज्यादा सशंकित हैं। चूंकि प्रस्तावित नगालिम में नगालैंड के अलावा मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश के नगा बहुल इलाके हैं, इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने पहले से ही चेता रखा है कि वे अपने राज्य की एक इंच जमीन से छेड़छाड़ नहीं होने देंगे।
असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने साफ कह दिया कि नगा समझौता स्वागत-योग्य है, पर अगर असम के हित प्रभावित हुए तो जबर्दस्त विरोध होगा। उन्होंने समझौते के प्रावधानों को अंधेरे में रखने पर भी सवाल उठाया।
जाहिर है, प्रधानमंत्री ने नगा समझौते से जमीनी स्तर पर प्रभावित होने वाले इन मुख्यमंत्रियों से बात नहीं की। 2011 में इन्हीं मुख्यमंत्रियों के विरोध के कारण यह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था। इस संबंध में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की प्रतिक्रिया इसलिए दरकिनार नहीं की जा सकती, क्योंकि असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकारें हैं।