ज्ञानेंद्र बरतरिया
आर्यो के भारत पर आक्रमण की कथा कुछ इस प्रकार बताई जाती है। ईसा से करीब 1500 वर्ष पहले, उत्तर भारत पर आर्य नामक नस्ल के लोगों ने हमला किया था। वे गौर वर्ण के, तीखे नाक-नख्श वाले, घुड़सवार, घूमंतू जाति के बर्बर लोग थे, जो संभवत: मध्य एशिया से, या किसी और अज्ञात क्षेत्र से आए थे। उस समय उत्तर भारत में रहने वाले लोग काले वर्ण के थे, शहरी थे और कहीं ज्यादा सभ्य थे। वे सिंधु घाटी और अन्य क्षेत्रों में निवास करते थे। आर्यों ने उन्हें हराकर उन पर अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म थोपा। ये लोग द्रविड़ नाम की नस्ल के थे या आस्ट्रिक थे या शूद्र आदि थे।
यह कथा पूर्णत: कपोलकल्पित और निष्कर्ष पहले निकाल कर बाद में उसकी खातिर गढ़े गए सबूतों का उपन्यास साबित हो चुकी है। यह अलग बात है कि उस उपन्यास पर विश्वास करते हुए भारत में कई राजनैतिक-सामाजिक और दानार्थिक न्यास जड़ें जमा चुके हैं। उस कथा को निर्मूल साबित करने के लिए कोई नया तर्क देने की आवश्यकता अब शायद नहीं बची है। लेकिन यह आवश्यक है कि जो कुछ सामने आया है, उसमें से कुछ चुनिंदा बातें, प्रामाणिकता की पुष्टि के बाद, एक साथ सामने रखी जाएं, ताकि किसी विवचेन में संदर्भ स्रोत का कार्य कर सकें। हालांकि सिर्फ संदर्भ के लिए, सिर्फ स्रोत का नाम देना भी पूरा शब्दकोश रचने जैसा विशाल कार्य है।
विषय पर आगे बढऩे के पहले आर्यों के भारत पर आक्रमण की कथा का महत्व समझना जरूरी है। वास्तव में इस सिद्धांत की परिकल्पना अपनी तत्व-धारणा में यह सिद्ध करती है कि भारत का ऐतिहासिक विकास और उद्भव हुआ ही नहीं, उसकी जो भी विरासत है, उसमें गर्व करने लायक कोई बात है ही नहीं, उसके जो भी ऐतिहासिक सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक संस्थान थे- वे सब संदिग्ध हैं। उसका साहित्य संदिग्ध है। उसकी भाषा (संस्कृत) उसकी नहीं है। उसकी संस्कृति संदिग्ध है। उसका समाज संदिग्ध है। इस सिद्धांत ने भारत के हिन्दू समाज के विभिन्न वर्गों के बीच ऐसी खाई उत्पन्न कर दी है, जिसमें समाज की एकजुटता ही बहुत बड़ा और बहुत दुष्कर कार्य बनकर रह जाती है। चूंकि हिन्दू सभ्यता का उद्गम सप्तसैंधव के किनारे फले-फूले वैदिक साहित्य और वैदिक संस्थानों से होता है, इसलिए सभ्यता के उस मूल स्रोत को ही विदेशी कह देने से पूरी सभ्यता ही खारिज हो जाती है। सिर्फ भारत राष्ट्र ही नहीं, यह सिद्धांत हिन्दुत्व को भी संदिग्ध बना देता है। सबसे अहम तौर पर और सबसे साफ शब्दों में – आर्यों के भारत पर आक्रमण का सिद्धांत भारत के लोगों की भारतीय पहचान को संदिग्ध बना देता है, और इस नाते इस देश पर उनका अपना ही दावा संदिग्ध कर देता है।
एक और पहलू। चूंकि आर्य हमलावर थे, चूंकि सिंधु घाटी सभ्यता को उन्होंने समाप्त किया था, और चूंकि सिंधु घाटी सभ्यता ई. पू. 1500 के आसपास की थी- लिहाजा आर्यों के और हिन्दुओं के सारे प्रतीक, सारा साहित्य, सारी परम्पराएं, सारे पूर्वज, सारे ऋषि-मुनि, राम, कृष्ण, बुद्ध, रामायण, महाभारत- सब सिर्फ कहानियां साबित हो जाते हैं। जिन आर्यों को भारतवंशी अपना पूर्वज मानते हैं, वे गड़रिए और लुटेरे बता दिए जाते हैं। इससे राजनीति के बड़े-बड़े लक्ष्य पूरे होते हैं।
आर्यों के भारत पर आक्रमण का सिद्धांत भारत की पाठ्यपुस्तकों में लगभग एक सदी पहले अंग्रेज शासकों ने जोड़ा था। सबसे पहली और उल्लेखनीय बात यह है कि यह मात्र एक सिद्धांत है, कोई वास्तविक या ऐतिहासिक घटना, कोई पुरातात्विक ढंग से सिद्ध की गई घटना नहीं है। इसका कोई परोक्ष-प्रत्यक्ष उल्लेख किसी भारतीय ग्रंथ में नहीं है। यहां तक कि जिन द्रविड़ों को आर्यों से पराजित हुआ बताया गया है, उनके भी किसी ग्रंथ में, परम्परा में, किसी विधा या विज्ञान में उसका जरा भी उल्लेख नहीं है।
दूसरे विश्वयुद्ध से पहले की एक पूरी सदी को अंग्रेजों की सदी कहा जाता है। वास्तव में, अगर गौर से देखा जाए तो, मात्र एक नेतृत्व और एक आत्मविश्वास को छोड़कर- जिसमें विज्ञान-तकनीक की भी बहुत बड़ी भूमिका थी- यह सदी भारत की सदी थी। दुनिया पर अंग्रेजों की हुकूमत भारत की शक्ति के बूते पैदा हुई थी और कायम रही थी। इस बात का उल्लेख सिर्फ इस दृष्टि से किया जा रहा है कि 19वीं सदी की यूरोपियन राजनीति की मजबूरियों को भारत पर थोपना अंग्रेजों की कितनी बड़ी मजबूरी थी। स्वयं भारत पर अपना कब्जा बनाए रखने के लिए अंग्रेजों को वह हर सिद्धांत सही नजर आता था, जो विराट भारतीय समाज में मतभेद, नस्लभेद, वर्णभेद, धर्मभेद पैदा कर सके। ईसाईयत के पौधे जमकर रौंपे गए, लेकिन वे विशाल हिन्दू वृक्ष की जड़ें कमजोर करने के लिहाज से अपर्याप्त रहे थे।
यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि 18वीं और 19 वीं सदी में ईसाई, जो कि प्रमुखत: यूरोपीयन थे, वे अपने ऐसे पूर्वजों की तलाश में थे, जो यहूदी न हों। यूरोप में यहूदियों के विरोध की यह मानसिक-अकादमिक और मनोवैज्ञानिक शुरुआत मानी जा सकती है। वास्तव में यूरोप के अपने तथाकथित पुनर्जागरण के लिए बहुत जरूरी था कि वे अपने मूल को यहूदियों से परे, और हिब्रू में लिखे हिज्जों से कहीं आगे ले जाएं। इसलिए उन्होंने यह थ्योरी गढ़ी कि इंडिया इतिहास में बहुत उन्नत और सभ्य देश था, और वह आर्यों के कारण था, और आर्य वही थे, जो यूरोपीय हैं। उधर अमेरिका पर यूरोपियनों के कब्जे को जायज ठहराने के लिए भी यह थ्योरी बहुत जरूरी थी। वॉल्टेयर, इमेनुएल कांट, कार्ल विल्हें फ्रेटरिक श्लेगेल इस थ्योरी के शुरुआती जनक थे। इधर भारत पर काबिज अंग्रेजों को भी यह सिद्धांत उचित प्रतीत हुआ कि यूरोपीय और भारतीय एक ही पूर्वजों की संतान हैं, जो चीन सीमा पर तुर्कमेनिस्तान में रहा करती थी। उनकी एक शाखा यूरोप की ओर बढ़ गई, और दूसरी होते-होते भारत आ गई (लिहाजा पश्चिम से आने वालों का भारत पर कब्जा करना एक परम्परा ही है)। मैक्समूलर का प्रतिपादन यह था कि ऋग्वेद में वैदिक लोगों ने अपने मूल स्थान की स्तुति की है और स्वयं को आर्य कहा है। यहां से इंडो-आर्यन और यूरोपियन-आर्यन के शब्द गढ़े गए। ।
रोचक बात यह है कि भारत में, भारत की पाठ्यपुस्तकों में भारत पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले अंग्रेजों-जर्मनों में से अधिकांश साधारण इतिहासकार या पुरातत्वकार भी नहीं थे। वे अपने-अपने देशों के राजनैतिक कार्यकर्ता थे, जो अपने यहां के राष्ट्रवाद से ओत-प्रोत थे, या भारत में ईसाईकरण के कार्य से जुड़े हुए थे। इनमें से कइयों ने तो संस्कृत कभी सीखी भी नहीं थी। उनका कहना था कि संस्कृत और भारत का ज्ञान उन्हें स्वत: ही हो गया है। मैक्समूलर का नाम इसमें प्रमुखता से लिया जाता है। ईस्ट इंडिया कंपनी के वेतन पर काम करने वाले मैक्समूलर को वेदों का अनुवाद करने के लिए उस दौर में प्रचलित वेतन से चार गुना अधिक वेतन पर रखा गया था। अनुवाद इस ढंग से करना था कि हिन्दू वेदों से अपनी आस्था समाप्त कर दें। मैक्समूलर कभी भारत नहीं आया था, न ही उसे संस्कृत सिखाने वाले अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने कभी संस्कृत सीखी थी।
मैक्समूलर का 9 दिसम्बर 1867 को अपनी पत्नी को लिखा पत्र है। इस पत्र में मैक्समूलर लिखते हैं- ‘… मैं पूरी तरह निश्चिंत महसूस करता हूं कि मेरा यह संस्करण और वेदों का अनुवाद इसके बाद से बहुत बड़े पैमाने पर भारत का भविष्य और उस देश में करोड़ों आत्माओं की वृद्धि निर्धारित करेगा। यह उनके धर्म की जड़ है और मुझे विश्वास है कि उन्हें यह दिखाना कि यह जड़ क्या है, उस सबको जड़ से उखाड़ फेंकने का एकमात्र तरीका है, जो पिछले 3000 वर्ष में इस जड़ से पनपा है।Ó
वास्तव में मैक्समूलर के लिखे ऐसे कई अन्य पत्र – द लाइफ एंड लैटर्स ऑफ फ्रैडरिक मैक्स मुलर में उपलब्ध है, जो लंदन और न्यूयार्क से 1902 में प्रकाशिथ हुई थी और 1976 में अमेरिका से पुनर्मुद्रित हुई। इंडो-आर्यन और यूरोपियन-आर्यन सिद्धांत का प्रतिपादन करने के बाद मैक्समूलर ने जो भी तर्क गढ़े, वे धीरे-धीरे ढहते चले गए। आखिर में 1888 में मैक्समूलर को खुद स्वीकारना पड़ा कि आर्य शब्द न तो नस्ल से संबंधित है, न नाक-नक्श या शरीर से, यह तो एक विशेष भाषा बोलने वालों का समुदाय था। (मैक्समूलर, बायोग्राफीज ऑफ वड्र्स एक द होम ऑफ द आर्याज, 1888, पृ. 120)
‘आर्यÓ शब्द का अर्थ खोजने की जद्दोजहद आज भी जारी है, लेकिन इतना सर्वसम्मत हो चुका है कि यह शब्द न तो किसी नस्ल से संबंधित था, और न भाषा से। आर्यों का संबंध भी उसी वंशक्रम से है, जिस वंशक्रम से द्रविड़ों का या अन्य भारतीयों का है। अंतर मात्र यह है कि जो मानव बस्तियां भूमध्यरेखा के जितना नजदीक रहती हैं, उनकी त्वचा का रंग उतना श्यामवर्णीय होता जाता है और तेज गर्मी के कारण शरीर का ढांचा भी धीरे-धीरे थोड़ा नाटा हो जाता है। आधुनिक विज्ञान भारतीयों के एक ही नस्ल के होने की पुष्टि बार-बार कर चुका है, इसे , भारत में प्रचलित इतिहास की पुस्तकों को छोड़कर सभी जगह स्वीकारा भी जा चुका है।
आज परिदृश्य में अंग्रेज नहीं हैं। लेकिन उनके कुछ मानसवंशज हैं, जिनके लिए आर्यों के भारत पर आक्रमण का सिद्धांत आज भी बहुत कारगर है। यूरोप, अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र इस थ्योरी को त्याग चुके हैं। यूनेस्को ने तो इसे 1950 में ही खारिज कर दिया था। अब तो कई सैटेलाइट आंकड़े भी उपलब्ध हैं, कई और स्थानों पर सभ्यता के अवशेष मिल चुके हैं, भगवान कृष्ण की द्वारिका मिल चुकी है, जिसका सौष्ठव और रूप सिंधु घाटी सभ्यता से काफी कुछ मिलता जुलता बताया गया है। लेकिन आज भी अगर आप आर्यों के भारत पर आक्रमण के सिद्धांत को चुनौती देने की बात कहते हैं, तो कुछ लोगों को दौरा पडऩे लगता है। ऐसा क्यों है?
पहले इन ‘कुछ लोगों’ को चिन्हित करते हैं। महान समकालीन भारतविद कोएनराड एल्स्ट के अनुसार ये लोग ईसाईयत और इस्लाम के मिशनरीज, उदारपंथी, कुछ पृथकतावादी, समान विचारों वाले भारत विरोधी या हिन्दू विरोधी होते हैं। ये कथित ‘आक्रमणकारी आर्योंÓ की वंशज उच्च जातियों के खिलाफ निचली जातियों के लोगों को लामबंद करते हैं। मजेदार बात यह है कि यह सारा दुष्प्रचार डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के नाम पर किया जाता है, जबकि डॉ. अम्बेडकर ने स्वयं आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत का न केवल पुरजोर खंडन किया था, बल्कि जातिगत श्रेष्ठता के नस्लीय आधार की धारणा से भी पूर्ण इंकार किया था। भारतीय जाति प्रथा के यूरोपीय छात्र सामान्यत: इस सिद्धांत को ही आगे रखकर सारा अध्ययन करते हैं या करना चाहते हैं। इसी प्रकार द्रविड़ भाषियों को उत्तर भारतीयों के विरुद्ध खड़ा करने में, उनके नाम पर पृथकतावादी आंदोलन चलाने में इस सिद्धांत का प्रयोग किया जाता है, जिसके लिए नए मिथक गढ़े जाते हैं, जैसे कि द्रविड़ रावण के खिलाफ आर्य राम का युद्ध। जबकि रावण न केवल वेदों का ज्ञाता, उच्च कुल का ब्राह्मण और वैदिक कर्मकांडों में पारंगत था और इसके विपरीत आर्य राम श्याम वर्ण के थे। इसी सिद्धांत के आधुनिक सिद्धांतकार कई कदम आगे बढ़कर गणेश, हनुमान और शिव को अनार्य करार देते हैं और राक्षसों में से अपने लिए उपयुक्त चरित्र तलाश कर उन्हें द्रविड़ करार दे देते हैं। इसके लिए न किसी ग्रंथ को पढऩे की आवश्यकता होती है, न किसी साक्ष्य की।
इस सिद्धांत से एक और बड़ा लक्ष्य आदिवासियों को हिन्दुओं के खिलाफ इस्तेमाल करने में पूरा किया जाता है। उन्हें बताया जाता है कि वे ‘आदिवासीÓ यानी भारत के मूल निवासी हैं और आर्यों ने उन पर उसी तरह कब्जा किया हुआ है, जैसे अंग्रेजों ने आस्ट्रेलिया और अमेरिका पर किया है। हालांकि, संदर्भ के लिए, तथ्य यह है कि मुंडा कबीले का उद्गम पूर्वी एशिया होना वैज्ञानिक तौर पर साबित हो चुका है, और अधिकांश वनवासी बोलियां तिब्बती-बर्मी मूल की पाई गई हैं। आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत का प्रयोग आर्य विरोध के नाम पर ब्राह्मण विरोध, ब्राह्मण विरोध के नाम पर हिन्दू विरोध और अंतत: हिन्दू विरोध के नाम पर इस्लाम का और यहां तक कि मुस्लिम आतंकवाद तक का बचाव करने में किया जाता है। भारत इस्राइल संबंधों का विरोध करने का एक तर्क इस सिद्धांत से उपजता है कि यह मुसलमानों के खिलाफ आर्यों (हिन्दुओं) यहूदियों का षडय़ंत्र है।
भारत पर आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत अब अंतिम सांसें गिन रहा है। उसे भारत की राजनीति की कायरता भर ने जीवित बनाए रखा है, जिसे इतिहास पर बहस करने के नाम से मिर्गी के दौरे आने लगते हैं। लेकिन संतोष की बात यह भी है कि मिर्गी के मरीजों की यह पीढ़ी अब अपनी थ्योरी के साथ ही तेजी से रिटायर होती जा रही है।
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