याकूब मेमन 1993 के मुंबई विस्फोटों का आरोपी था। उस पर बाकायदा मुकदमा चला। उसको अपने बचाव का कोर्ट ने पूरा मौका दिया। उसको आतंकवादी साबित होने पर टाडा कोर्ट ने फांसी की सज़ा सुनाई। मामला हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट के बाद फांसी माफी के लिये गवर्नर से लेकर प्रेसीडेंट तक गया लेकिन उसकी फांसी बरकरार रही। इस दौरान देश में एक वर्ग में पहली बार एक आतंकवादी के पक्ष में सहानुभूति की लहर भी चली। यह लहर तब मज़बूत हो गयी जबकि इसके पक्ष में कई हिंदू पत्रकार पूर्व जज वकील और अभिनेताओं से लेकर बड़े बुध्दिजीवी भी शामिल हो गये।
हैरत की बात यह है कि याकूब की फांसी को उम्रकैद में बदलने की मांग को लेकर जिन 40 लोगों ने प्रेसीडेंट को दया याचिका भेजी उनमें भाजपा सांसद और अभिनेता शत्रुघन सिंहा, राज्यसभा सदस्य और जाने माने वकील राम जेठमलानी, मणिशंकर अय्यर, सीताराम येचुरी, डी राजा, प्रकाश करांत, केटीएस तुलसी, एच के दुआ, टी शिवा, दीपांकर भट्टाचार्य, महेश भट्ट, एम के रैना, तुषार गांधी, नसीररूद्दीन शाह, माजिद मेमन साहित आठ रिटायर्ड जज भी शामिल थे। हालांकि इनमें से कई ने बाद में यह सफाई भी दी कि वे केवल याकूब की फांसी नहीं बल्कि देश की सभी फांसी की सज़ा को उम्रकैद में बदलने की मांग मानवता के आधार पर कर रहे थे लेकिन देश और मुस्लिमों में जो संदेश जाना था वो जा चुका था।
इतना ही नहीं सुप्रीम कोर्ट के डिप्टी रजिस्ट्रार अनूप सुरेन्द्रनाथ के याकूब के मामले को लेकर विरोध में दिये गये इस्तीफे की चर्चा और सॉलिसिटर जनरल टी अंध्यार्जुन व सर्वोच्च न्यायालय की वकील इंदिरा जय सिंह सहित कई ब्लॉगर और पत्रकरों ने तो कोर्ट के फैसले पर ही उंगली उठाते हुए इसे सरकार द्वारा एक ऐसे आरोपी की ‘कानूनी हत्या’ तक करार दिया जिसने भारत सरकार उसकी जांच एजंसियों और न्याय व्यवस्था पर न केवल भरोसा करते हुए आत्म समर्पण किया बल्कि पाकिस्तान, उसकी खुफिया एजंसी आईएसआई और विस्फोट के मुख्य आरोपी दाउूद इब्राहीम और अपने सगे भाई टाइगर मेमन के खिलाफ पुख़्ता सबूत उपलब्ध कराये। इस तथ्य की पुष्टि पूर्व रॉ अधिकारी रमन के दस्तावेजों से भी होने का दावा किया गया लेकिन यह भी बात सामने आई कि इस बारे में कभी भी याकूब के वकील ने कोर्ट के सामने कोई ऐसा दावा नहीं किया।
यह आंकड़ा भी बार बार चर्चा में आया कि पिछले एक दशक में विभिन्न अदालतों द्वारा दी गयीं कुल 1304 मौत की सज़ा में से केवल 4 लोगों को ही फांसी की सज़ा बहाल रखी गयीं जिनमें पश्चिमी बंगाल के एक अपराधी धनंजय के अलावा बाकी तीन लोग अजमल कसाब, अफज़़ल गुरू और याकूब मेमन मुस्लिम थे जबकि सच यह भी है कि मुंबई बम विस्फोटों के मामले में जिन 11 लोगों को फांसी की सज़ा सुनाई गयी थीं उनमें से भी 10 की सज़ा कोर्ट ने कम कर दी थी। याकूब की फांसी को लेकर यह कहा जा सकता है कि कोर्ट ने आतंकवाद के मामलों को लेकर सख़्त रूख़ अपनाया है लेकिन यहां मुस्लिमों का नादान दोस्त बनकर साम्प्रदायिकता की खाई को और चौड़ा बना रहे एमआईएम के देश में उभरते नये फायरब्रांड नेता औवेसी ने सियासी दांव चलकर यह सवाल भी उठा दिया है कि क्या माओवादियों के सामूहिक हत्या और देश के खिलाफ जंग छेडऩे के मामले आतंकवाद से कम ख़तरनाक हैं?
क्या बाबरी मस्जिद को सुप्रीम कोर्ट में बचाने का हलफनामा देकर एक साजि़श के तहत शहीद करा देना आतंकवाद से कम वीभत्स था? क्योंकि उस विवादित ध्वंस से देश में जो दंगे हुए उसमें भी हजारों लोग नहीं मरे थे क्या? मुंबई में शिवसेना और गुजरात में जिन लोगों पर दंगों के आरोप थे वे ज़मानत पर छोड़ दिये गये या उनपर कभी केस दर्ज ही नहीं किया गया? सिखों के हत्याकांड में किसी को फांसी क्यों नहीं दी गयी? एक्स पीएम और एक्स सीएम के हत्यारों को क्यों नहीं दी गयी फांसी? ईसाई धर्मगुरू सेंट स्टैंस और उनके दो मासूम बेटों के हत्यारे दारा सिंह को क्यों नहीं दी गयी फांसी? हालांकि कोर्ट ने वही फैसला दिया जो सरकार और जांच एजेंसियों ने उसके सामने सबूत और गवाह पेश किये लेकिन जहां कोर्ट की निष्पक्षता और ईमानदारी पर शक नहीं किया जा सकता वहीं हमारी कोई भी सरकार और जांच एजेंसियां कितनी ईमानदार और निष्पक्ष हैं यह सच किसी से छिपा नहीं है।
जो कुछ भी हुआ उसमें यह बात भुला दी गयी कि जब पाकिस्तानी आतंकवादी अजमल कसाब को फांसी की सज़ा दी गयी तब मुस्लिम समाज ने न केवल इसका समर्थन किया बल्कि उसकी लाश को हिंदुस्तान के कब्रिस्तान में जगह देने और उसकी नमाज ए जनाज़ा पढ़ाने से भी इनकार कर दिया था। जब संसद पर हमले के आरोपी अफज़़ल गुरू को चोरी छिपे मौत की सज़ा दी गयी तब भी औपचारिकता और कानून व्यवस्था की दुहाई देकर तत्कालीन कश्मीर सरकार ने एक दो बार सवाल ज़रूर उठाये लेकिन मुस्लिम समाज से उसके पक्ष में कोई आवाज़ नहीं उठी आखिऱ ऐसा क्यों? औवेसी जैसे कट्टरपंथी भडक़ाउू नेता की ओछी सियासत को इस मुद्दे पर अगर तवज्जे न भी दें तो उनके इन आरोपों पर तो सोचना ही पड़ेगा कि इस बार मुस्लिम समाज से ही नहीं खुद हिंदू और अन्य गैर मुस्लिमों के भी बड़े वर्ग ने क्यों याकूब की सज़ा पर दया की अपील की?
यह तो चिंता की बात है ही कि देश का एक अल्पसंख्यक वर्ग यह महसूस कर रहा है कि उसके मामलों में न्याय नहीं हो रहा क्योंकि समझौता एक्सप्रैस विस्फोट, अजमेर दरगाह विस्फोट और मालेगांव बम ब्लास्ट जांच में सरकार का नरम रूख उसके आरोपी हिंदू होने के कारण तथा यूपी के हाशिमपुरा और मलियाना में उनका कत्लेआम करने वाले पीएसी वाले बरी हो चुके हैं, और प्रदेशों के अधिकांश दंगाई खुले घूम रहे हैं और सिर्फ मुंबई विस्फोटों के मामले में चुनचुनकर सज़ा दी जा रही हैं। यह अपने आप में रिकार्ड है कि इस मामले में कुल 129 में से 100 आरोपियों को सज़ा हो चुकी है जबकि अन्य हत्याकांडों में कनविक्शन रेट काफी कम पाया गया है।
यह ठीक है कि कोई आतंकवादी मुस्लिमों ही नहीं किसी भी वर्ग का ‘हीरो’ नहीं बनाया जाना चाहिये चाहे वो याकूब हो दाउूद हो या फिर ओसामा या लिट्टे प्रमुख प्रभाकरण लेकिन यह भी हकीकत है कि उन हालात को बदला जाना चाहिये जिन में किसी वर्ग विशेष को ऐसा आभास हो कि ‘न्याय सबको, तुष्टिकरण किसी का नहीं’ का दावा करने वाले बिना संविधान में संशोधन किये व्यवहारिक रूप से देश को हिंदू राष्ट्र के रास्ते पर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं।
हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता ।।