नरपतदान बारहठ
पंद्रह सितंबर को हिंदी पखवाड़ा खत्म हुआ, उसके चंद दिनों बाद ही हिंदी के पिछड़ेपन का नमूना सामने आया जब 24 सितंबर को संघ लोक सेवा आयोग ने पीसीएस परीक्षा 2020 का अंतिम परिणाम जारी किया। इस परिणाम में हिंदी माध्यम से सफल अभ्यर्थियों की संख्या नाम मात्र की ही रही। कुल 761 पदों में से मात्र 25 से 30 अभ्यर्थी हिंदी माध्यम से अंतिम रूप से चयनित हुए। यही नहीं, टॉप 100 में हिंदी माध्यम का एक भी अभ्यर्थी शामिल नहीं है। हिंदी माध्यम का टॉपर रैंकिंग में 246 नंबर पर रहा।
यह सिर्फ इस एक साल की बात नहीं है। पिछले 8 साल से लगातार यूपीएससी में हिंदी माध्यम के अभ्यर्थी पिछड़ रहे हैं। खास बात यह कि इसके लिए यूपीएससी की नीति को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। लेकिन यह केवल एकतरफा असफलता नहीं है, इसे ‘सामूहिक असफलता’ का नतीजा कहा जा सकता है। दरअसल हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों की संख्या सन 2013 के बाद से नाटकीय ढंग से कम होने लगी है। यही वह साल था जब यूपीएससी मुख्य परीक्षा के सिलेबस में आमूलचूल परिवर्तन किया गया था। अगर सफलता के ग्राफ की बात करें तो हिंदी माध्यम के चयनित उम्मीदवार 2013 में 17 प्रतिशत थे। 2014 में यह आंकड़ा सीधे 2.11 प्रतिशत पर आ गया। इसके बाद से यह कभी 5 फीसदी तक भी नहीं जा सका। 2015 में यह 4.28 प्रतिशत रहा तो 2016 में 3.45 प्रतिशत। ऐसे ही 2017 में 4.06 प्रतिशत, 2018 में 2.16 प्रतिशत, 2019 में करीब 2 फीसद और हाल ही में जारी 2020 के परिणाम में 2.5 फीसद। इसी तर्ज पर मुख्य परीक्षा के लिए चयनित हिंदी के अभ्यर्थियों की तादाद भी कम रही है।
सन 2017 से 2018 तक भी प्रॉपर आईएएस में शामिल हिंदी माध्यम के परीक्षार्थी 6 से 16 के बीच रहे है। लेकिन 2019 व 2020 में प्रॉपर आईएएस में एक भी हिंदी माध्यम का अभ्यर्थी नहीं है। कम सफल होते हिंदी माध्यम के अभ्यर्थियों के कारणों में पहला तो यह कि 2013 से हुए संरचनात्मक बदलावों के बाद हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों के लिए राह कुछ मुश्किल हो गई है। इससे पूर्व की परीक्षा पद्धति में दो वैकल्पिक विषय होते थे, जिनकी हिस्सेदारी 60% (1200/2000 अंक) की थी और सामान्य अध्ययन की भूमिका सिर्फ 30% (600/2000 अंक) थी। लेकिन 2013 से सामान्य अध्ययन का वजन बढ़कर लगभग 57% (1000/1750) हो गया है, जबकि वैकल्पिक विषय (जो कि अब 2 के बजाय 1 रह गया है) का वजन घटकर सिर्फ 29% (500/1750) हो गया है। हिंदी माध्यम के पिछड़ने का दूसरा कारण यह है कि सामान्य अध्ययन के लिए अंग्रेजी की वेबसाइट और अंग्रेजी जर्नल की सामग्री स्तरीय और विस्तृत रूप में उपलब्ध है, जबकि हिंदी माध्यम के लिए नाम मात्र की स्तरीय सामग्री सहज रूप में उपलब्ध है। इसके साथ ही मॉडल उत्तरों का सिर्फ अंग्रेजी भाषा में होना भी एक बड़ा अवरोध है। वहीं कुछ परीक्षकों का हिंदी व भारतीय भाषाओं के प्रति अस्वस्थ नजरिया भी जिम्मेदार है।
मूल प्रश्नपत्र अंग्रेजी में बनाया जाता है, और फिर हिंदी रूपांतर किया जाता है। और यहीं से ऐसे हिंदी शब्द उभर कर सामने आते हैं जिनका अर्थ समझ से बाहर होता है। एक नजर अगर यूपीएससी की हिंदी शब्दावली पर डालें तो ऐसे अनोखे शब्दों के उदाहरण निकाले जा सकते हैं। वहां सब्सिडी की जगह साहाय्य, दीमक की जगह बरुथी, अर्थ आवर की जगह पृथ्वी काल, स्टील प्लांट की जगह ‘लोहे का पेड़’ हो जाता है। ऐसे में कठिन हिंदी शब्द पहली दफा समझ से परे होते हैं और अभ्यर्थी का समय भी लेते हैं। दरअसल होना यह चाहिए कि मूल प्रश्नपत्र हिंदी में बने और फिर उसका अंग्रेजी अनुवाद हो या फिर हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों पेपर अलग-अलग प्रकाशित हों।
बहरहाल, यूपीएससी में हिंदी माध्यम की असफलता के कई फैक्टर हैं लेकिन इन सबके सूत्र 2013 में हुए संरचनागत बदलावों में देखे जा सकते हैं। इनका हल निकालना जरूरी है। हिंदीभाषी इलाकों के युवाओं के साथ हो रही इस ज्यादती को दूर कर उन्हें समान अवसर मुहैया कराने की अपनी जिम्मेदारी से सरकार और यूपीएससी बच नहीं सकते।
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