बिखरे मोती : जीवन में कितना रहा,सोचो हर्ष – विषाद

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जीवन में कितना रहा,
सोचो हर्ष – विषाद।
शान्त चित्त से बैठकर,
क्या किया प्रभु को याद॥1504॥

व्याख्या:- विवेकशील व्यक्ति को अपने जीवन के भूतकाल की ओर वर्तमान समय की समीक्षा अवश्य करना चाहिए और देखना चाहिए कि मेरा भूत कैसा रहा, वर्तमान कैसा चल रहा है तथा भविष्य कैसा होगा ? क्या मेरा भूतकाल और वर्तमान मुंह लटकाए अर्थात (डिप्रेशन) में बीता अथवा हर्षोल्लास के साथ व्यतीत हुआ। यदि जीवन में विषाद अधिक है, तो आत्मावलोकन करके अपनी आदतों और व्यवहार को सुधारना चाहिए और यदि जीवन सुख – शांति और प्रसन्नता के साथ बीता तो समझो जिंदगी की गाड़ी सही दिशा में चल रही है।कतिपय लोग संपन्न होने के बावजूद भी हताश, निराश और दु:खी रहते है । उनके पास धन है किंतु खर्च हो रहा है मदिरालय और वेश्यालयों में, गाड़ी है किंतु गाड़ी मंदिर के लिए नहीं अपितु दौड़ रही है कोर्ट – कचहरी के लिए। पत्नी और पुत्र हैं,अन्य रिश्ते भी हैं किंतु आपस में अनबन है, बोलचाल तक भी नहीं है। अरे भोले भाई ! रिश्तो को प्यार से सीचों, धन संपदा का सदुपयोग करो, दुरुपयोग नहीं । याद रखो, तुम दूसरों का भला करोगे तो भला को उल्टा करके देखिए लाभ होगा। याद को उल्टा करोगे देखिए दया बनकर लौटेगी। इन सब बातों पर शान्त मन से चिंतन कीजए, और प्रभु का सिमरन कीजिए ,उसके शरणागत बनिए, उसे और उसकी महती कृपाओं को जानिए। इस संदर्भ में बृहदारण्यक – उपनिषद का ऋषि मनुष्य को सचेत करता हुआ कहता है –
“न चेद वेदी: महती विनष्टि”
अर्थात “उसे (ब्रह्म) यदि हमने इस जन्म में भी न जाना, तो महाविनाश है। जो उसे जान जाते हैं, वे अमृत को प्राप्त हो जाते हैं।” आशा है, पाठकवृन्द ऋषि के इस पावन संदेश पर गंभीर चिंतन – मनन करेंगे और अपना शेष जीवन का उद्धार करेंगे।

भगवद भाव में जो जिये,
प्रभु के रहे समीप।
रक्षा – कवच रक्षा करे,
ज्यों मोती की सीप॥1502॥

व्याख्या:- भागवत भाव से अभिप्राय है – भगवान के परायण होना अर्थात “भगवान मेरे हैं, और मैं भगवान का हूँ” भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं – “ऐसा व्यक्ति भगवत -भाव में जीता है,जो मेरा भक्त है, ऐसे भक्त की मैं सर्वदा रक्षा करता हूं।” इसी संदर्भ में रामचरितमानस के सुंदरकांड में भगवान राम की उदारता के संदर्भ में कहते हैं :-
जो सभीत आवा सरनाई।
रखिहऊँ ताहि प्राण की नाई॥
अर्थात जो मेरा भक्त, मेरे शरणागत होता है,मैं उसकी रक्षा प्राणों की तरह करता हूं। भाव यह है कि मुझे प्राणों की तरह प्रिय होता है।
सारांश यह है कि जो साधक भगवद – भाव में जीता है। परमात्मा का रक्षा कवच उसकी ऐसे रक्षा करता है, जैसे सागर में अथाह जलराशि के मध्य मोती की रक्षा सीप करता है। इसलिए भगवद – भाव में जिओं, उस रसों के रस की भक्ति का रस पिओं, मीरा, ध्रुव, प्रहलाद, महर्षि देव दयानंद इत्यादि को अपना आदर्श बनाओ ताकि मानव जीवन सार्थक सिद्ध हो।
क्रमशः

प्रोफेसर विजेंद्र सिंह आर्य
संरक्षक उगता भारत

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