भारत की पुण्य भूमि के विषय में अरबी कवि लवी बिन अख्तर बिन तुरफ़ा ईसा से 1700 – 1800 वर्ष पूर्व कहता है – “हे भारत की प्रशंसित धरती ! तुम सचमुच सम्मान की पात्र हो। क्योंकि परमात्मा ने सच्चे ज्ञान अर्थात वेदों का प्रकाश यहीं पर किया था । ईश्वरीय ज्ञान कही जाने वाली 4 पुस्तकें ( वेद) कितना पवित्र प्रकाश हमें प्रदान करती हैं ? जो हमारे अन्तश्चक्षुओं को प्रशांत तथा आनंद से परिपूर्ण बना देते हैं। परमात्मा द्वारा प्रदत्त यह ज्ञान भारत के ऋषियों के माध्यम से उस संपूर्ण मानवता के लिए दिया गया जो इस धरती के निवासी हैं।
परमात्मा का आदेश है कि तुम अपने जीवन में इसे वेद रूपी ज्ञान को जानो जो मैंने इन ग्रंथों में दिया है । निश्चय ही यह ज्ञान ईश्वर प्रदत्त है।
ज्ञान का यह खजाना साम और यजुर्वेद के रूप में है। जो परमात्मा द्वारा दिए गए हैं ।मेरे भाइयों ! इन वेदों का सम्मान करो । क्योंकि यह मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं ।अन्य दो ऋग्वेद तथा अथर्ववेद हैं । यह विश्व के संपूर्ण मानवों के बीच भ्रातृभाव का पाठ पढ़ाते हैं। यह दीपस्तंभ तुल्य हैं, जो हमें विश्व बंधुत्व की ओर ले जाते हैं।”
भारत की इस विश्व बंधुत्व वाली संस्कृति की उपमा इस धरती पर किसी अन्य संस्कृति से नहीं दी जा सकती । इस दृष्टिकोण से मानव की वास्तविक संस्कृति वैदिक संस्कृति है। इस संस्कृति के निर्माण में हमारे अनेकों पूर्वजों का विशेष योगदान रहा है। जिन्होंने अपने तपोबल, आत्मबल , मनोबल धर्मबल, अध्यात्म बल और पुरुषार्थ बल से इसे पाला पोसा है।
हमारे राजनीतिक मूल्य
राजा ययाति अपनी वृद्धावस्था में जब वनगमन की तैयारी करने लगे तो उन्होंने अपने उत्तराधिकारी को नियुक्त करते समय देशवासियों से कहा था कि -‘जो युवराज तुम्हारे अनुकूल वर्त्ते वही देश का राजा होगा।’
राजा ययाति के इस प्रकार के वचनों को सुनकर उनके सभासदों ने कहा कि – ‘राजन ! जो राजकुमार राजा के योग्य गुणों से संपन्न, माता पिता की आज्ञानुसार सदा प्रजा पालन करने वाला ,प्रजा का हित करने वाला सत्पुरुष है, वही राजकुमार सर्वश्रेष्ठ और कल्याणपद अर्थात राजपद को प्राप्त करने के योग्य है। ऐसा राजकुमार चाहे आयु में दूसरों से छोटा भी क्यों न हो।’
यह है वास्तव लोकतांत्रिक व्यवस्था । जिस पर भारत को गर्व होना चाहिए । इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजा अपनी ओर से अपने उत्तराधिकारी का चयन नहीं कर रहा है, अपितु उसे देशवासियों के ऊपर छोड़ रहा है । लोकतंत्र में संसद और संसद में बैठने वाले सभासदों का बड़ा महत्व होता है। यहां पर भी राजा की संसद और सभासद अपनी पूर्ण बौद्धिक स्वतंत्रता का प्रयोग करते हुए अपनी बात रख रहे हैं।
भारत की इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को संसार के पहले राजा मनु महाराज के द्वारा स्थापित किया गया। जिसे आर्य राजाओं ने युग – युगों तक यथावत बनाए रखा।
जब प्राचीन काल में राजा पद की आवश्यकता अनुभव की गई तब राजा का राजधर्म यही नियत किया गया था कि राजा अपनी प्रजा का पालन करते हुए उसकी प्रत्येक प्रकार से रक्षा करेगा। इस प्रकार राजा अपनी प्रजा का संरक्षक नियुक्त किया गया , कोई तानाशाह नहीं। इस प्रसंग में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी संरक्षक स्वयं राजा नहीं बनता है बल्कि उसे राजा बनाया जाता है। जो स्वयं दूसरों पर शासन करने का स्वयं को अधिकारी मानता है वह दूसरों के अधिकारों का हनन करने वाला तानाशाह होता है, राजा नहीं। जो व्यक्ति दूसरों पर शासन करने के लिए बड़े-बड़े नरसंहार करता है, युद्ध करता है, लोगों पर दलन, उत्पीड़न और अत्याचार करता है, वह स्वयंभू और स्वेच्छाचारी शासक होता है, लोकतांत्रिक शासक नहीं । राजा का अर्थ है अपनी निजता को सबके लिए समर्पित कर देना या कहिए कि अपनी निजता में सबका स्वरूप देखना, सब को संरक्षा और सुरक्षा प्रदान करने के लिए अपने आपको प्रस्तुत करना। सबके हित में सोचते – सोचते अपने लिए कोई स्वार्थपूर्ण चिंतन न रखना। यही राजा की गरिमा है। आर्य वैदिक राजाओं के काल में राजा से लेकर नीचे गांव के प्रधान पद पर विराजमान लोग इसी भाव से प्रेरित रहकर कार्य करते थे। इस प्रकार सार्वजनिक जीवन में वही लोग जाते थे जो समाज, राष्ट्र और प्राणिमात्र के प्रति समर्पित रहने को अपने जीवन का व्रत बना लेते थे। राजा की प्रजा प्रत्येक प्रकार से उन्नति करे, उसके लिए अनुकूल परिस्थितियां और अवसर प्रदान करना राजा का धर्म माना गया। इसके लिए अत्याचारी, पापी, अधर्मी, नीच, उग्रवादी, आतंकवादी लोगों से प्रजा को रक्षित करना भी राजा का उद्देश्य या परम कर्तव्य या परम धर्म माना गया।
जो राजपद को प्राप्त कर प्रजा का हित चिंतन करे।
योग्य राजा है वही जो परकल्याण हित जीवन धरे।।
जो राग व अनुराग से सर्वथा और पूर्णतया मुक्त हो।
राजा उसी को मानिये जो न्याय विवेक युक्त हो।।
अब इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए हम अपने परम प्रतापी, परम धैर्यवान, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र जी महाराज और उनके जीवनचरित् पर विचार करते हुए तत्कालीन परिस्थितियों पर विचार करें कि उन्होंने उस समय रावण को क्यों मारा ? क्या केवल सीता हरण को लेकर ही उन्होंने रावण को मार दिया था या रावण में कुछ और भी चारित्रिक दुर्बलताएं थीं, जिनके चलते उसका अंत किया जाना आवश्यक हो गया था ?
इस प्रश्न के उत्तर पर विचार करते हुए हमें यह सोचना चाहिए कि जब आप कोई बड़ा कार्य करते हैं तो उसका दैव शक्तियों द्वारा, अपनी बुद्धि द्वारा और अपने अनुभवजन्य ज्ञान से सम्पन्न बड़े बुजुर्गों के आशीर्वाद द्वारा अनुमोदन कराया जाना आवश्यक होता है। यदि आपका निर्णय इन तीनों में से कहीं से भी खंडित है तो वह निर्णय लोकानुमोदन प्राप्त करने में असमर्थ रहता है । लोकवासी अर्थात प्रजाजन उस निर्णय को उतने ही अनुपात में स्वीकार नहीं करते। इस पर विचार करते हुए हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जब हम यज्ञ करते हैं तो उस समय हम जलप्रसेचन करते हुए 4 मंत्रों का उच्चारण करते हैं। पहला मंत्र है :-
ओ३म् अदितेऽनुमन्यस्व॥
मन्त्र का भावार्थ- इस मंत्र में हम अखंड सत्ता परमपिता परमेश्वर से अपने किसी भी यज्ञीय कार्य की पूर्वानुमति, स्वीकृति या अनुमोदन चाहते हुए कहते हैं कि हे सर्वरक्षक अखण्ड परमेश्वर! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुमोदन कर अर्थात मेरा यह यज्ञानुष्ठान अखिण्डत रूप से सम्पन्न होता रहे।
दूसरा मन्त्र है –
ओ३म् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥
मन्त्र का भावार्थ- इस मंत्र में हम परमपिता परमेश्वर और उसके दिव्य गुणों से संपन्न अपने अनुभवजन्य ज्ञान संपन्न विद्वानों अर्थात बड़े बुजुर्गों से अपने कार्य को करने की स्वीकृति और अनुमोदन चाहते हुए कहते हैं कि – ”हे सर्वरक्षक यज्ञीय एवं ईश्वरीय संस्कारों के अनुकूल हमारे पूर्वजों की और हम सबकी बुद्धि बनाने में समर्थ परमात्मन! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुकूलता से अनुमोदन कर अर्थात यह यज्ञनुष्ठान आप की कृपा से सम्पन्न होता रहे। ‘ कहने का अभिप्राय यह हुआ कि जो परमपिता परमेश्वर की यज्ञमय संस्कारों के अनुकूल बुद्धि से संपन्न लोग हैं उनकी आज्ञा और अनुमोदन को हम ईश्वरीय आज्ञा और अनुमोदन स्वीकार कर अपने कार्य का आरंभ करें।
तीसरा मन्त्र है –
ओ३म् सरस्वत्यनुमन्यस्व॥
मन्त्र का भावार्थ – इसमें हम परमपिता परमेश्वर के नाम जप से शुद्ध और पवित्र हुई अपनी बुद्धि से अपने कार्य का अनुमोदन कराने की प्रार्थना करते हुए परमपिता परमेश्वर से कहते हैं कि हे सर्वरक्षक प्रशस्त ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानदाता परमेश्वर! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुमोदन कर अर्थात आप द्वारा प्रदत्त उत्तम बुद्वि से मेरा यह यज्ञनुष्ठान सम्यक विधि से सम्पन्न होता रहे। ‘
और अंत में चौथे मंत्र की व्यवस्था की गई है :-
ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।दिव्यो
गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥
मन्त्र का भावार्थ – हे सर्वरक्षक दिव्यगुण शक्ति सम्पन्न सब जगत के उत्पादक परमेश्वर! मेरे इस यज्ञ कर्म को बढाओ अर्थात मैंने आप जैसी अखंड दिव्य सत्ता से, ज्ञानसंपन्न अपने बड़ों से और आपके नाम जप से शुद्ध और पवित्र हुई अपनी बुद्धि से जिस कार्य की अनुमति चाही है उसमें किसी प्रकार का विघ्न या बाधा कहीं पर ना आए ,ऐसा वरदान मुझे दीजिए। आपकी अखंड सत्ता का दिव्य स्मरण करते हुए मैं निरंतर अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ता रहूं और अपने बड़ों के द्वारा आप द्वारा प्रदत्त अपनी बुद्धि द्वारा अनुमोदित अपने कार्य को अंजाम तक पहुंचाऊँ , मुझे इतनी शक्ति दो।
हे दयानिधान ! आनन्द, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए यज्ञकर्त्ता को यज्ञकर्म की अर्थात संसार में दिव्य और पवित्र कार्यों को करने के लिए अथवा उसके इस प्रकार के दिव्य संकल्पों में अभिवृद्धि के लिए और अधिक प्रेरित करो।आप विलक्षण ज्ञान के प्रकाशक हैं, आपके मार्गदर्शन में जो भी कार्य किया जाता है वह कभी भी गलत नहीं होता । पवित्र वेदवाणी अथवा पवित्र ज्ञान के आश्रय हैं, ज्ञान-विज्ञान से बुद्धि मन को पवित्र करने वाले हैं, अतः हमारे बुद्धि-मन को पवित्र कीजिये। मैंने जो भी संकल्प लिया है उसमें मेरी वाणी का महत्व मुझे निश्चित रूप से आगे बढ़ाएगा, उसके साथ – साथ मेरे मन की पवित्रता भी मुझे दिव्य और पवित्र कार्य करने के लिए प्रेरितकरेगी इसलिए आप हमारी वाणी को मधुर बनाइये।
कर्म कोई भी करो अनुमन्य बुद्धि युक्त हो ।
अखंड सत्ता ईश का आशीष भी संयुक्त हो ।।
विवेकी जन जिसको कहें वेद के अनुकूल भी।
करने की उसको ठान लो जग हो प्रतिकूल भी।।
हमने इन चारों मंत्रों पर विशेष चिंतन किया। इसका उद्देश्य केवल एक है कि संसार में जो लोग दिव्यता और भव्यता को प्राप्त होते हैं वह अपने जीवन के व्रतों, संकल्पों और कार्यों का इसी प्रकार निर्धारण करते हैं ।ऐसे लोग संसार में देव कहलाते हैं । इसके विपरीत जो लोग इस प्रकार का आचरण न करके अहंकार के वशीभूत होकर अपने हर निर्णय को लिए चले जाते हैं और यह मान लेते हैं कि वह जो कुछ भी कर रहे हैं ,वही उत्तम है- ऐसे लोग संसार में असुर कहलाते हैं।
अब आइए अपने मूल प्रश्न पर । श्रीराम का जीवन यज्ञमय था । क्योंकि उनका सारा जीवन यज्ञ की इसी मर्यादा में बंधा हुआ था ।उन्होंने अपने जीवन में कोई भी ऐसा कार्य नहीं किया जो यज्ञ की इस पवित्र भावना से बंधा हुआ न हो । वह बंधे हुए थे और सधे हुए थे। इसलिए ही उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी महाराज के नाम से महर्षि दयानंद जैसी महान विभूति ने भी सम्मानित किया।
इसके विपरीत रावण ने अपने जीवन में अनेकों ऐसे कार्य किए जो ईश्वरीय आज्ञा के विपरीत थे ,उसके बड़ों अर्थात पूर्वजों के नाम और यश को कलंकित करने वाले थे, इसके साथ ही साथ वे यह भी प्रकट करते थे कि उसकी बुद्धि ईश्वर के नाम जप से पवित्र और शुद्ध बुद्धि नहीं है। राम अपने आदर्श मर्यादा पथ पर चलते हुए उस समय देव संस्कृति के प्रतीक बने तो रावण अपने अहंकारी आचरण से उस समय असुर संस्कृति का प्रतीक बन गया।
रावण ने आर्यावर्त के राजाओं की उस परंपरा का तनिक भी निर्वाह नहीं किया जो लोक अनुमोदित संस्कारों पर आधारित थी। वह अहंकार के वशीभूत हो संपूर्ण मंडल को जीतने की अभिलाषा से प्रेरित होकर आगे बढ़ता रहा । परंतु लोगों के मौलिक अधिकारों का उसे तनिक भी ध्यान नहीं रहा।
कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी जी ने अपने प्रवचनों में रावण के विशाल साम्राज्य का वर्णन करते हुए कहा है कि
“बेटा ! तुमने सुना होगा रावण चारों वेदों का ज्ञाता और वैज्ञानिक था ।परंतु उसके पश्चात भी उसे दैत्य और यवन की श्रेणी में चुना जाता है ,और इसीलिए कि वह अक्षरों का बौद्धिक था।जो मानव संसार में अक्षरों का बौद्धिक होता है उस मानव का या वेद का उत्थान नहीं करता ।वह तो एक प्रकार का पक्षी होता है और वह रटन्त विद्या को अपने में धारण करता है, और उससे यदि अपने मानवत्व को ऊंचा नहीं बनाता तो संसार में मानव नहीं कहलाता है। मुनिवरो !रावण का राष्ट्र कहां तक था ?
इस आर्यावर्त में था। पातालपुरी में था। इंद्रपुरी में था, जिसको हम त्रिपुरी भी कहते हैं,जिसको भवनेति राज्य और चिरांगित राज्य कहते हैं ।इन सभी राष्ट्रों में विस्तार से रावण का राज हो चुका था। राजनीतिज्ञ था। केवल नीति जानता था। परंतु इस नीति के साथ-साथ यदि धर्म होता तो रावण की पताका संसार में सबसे उच्च कहलाती। परंतु उसके राष्ट्र में नीति थी कि दूसरों का हनन करो, और राज करो ।रावण के पुत्र मेघनाथ ने इंद्र को विजय किया और त्रिपुरी के राष्ट्र का स्वामी बनाया। रावण के पुत्र अहिरावण ने सुरिखी की नाम के राजा को नष्ट किया, और वह पातालपुरी का स्वामी बना, और रावण के पुत्र नरांतक ने सनभूमित नाम के राजा को नष्ट किया और वहां अपना राज्य किया। जिसे सोमकेतु नाम का राष्ट्र कहते थे। और भी उनके संबंधी जैसे खर दूषण इत्यादि थे। उनका राष्ट्र आर्यावर्त में भी प्रसार होता चला आ रहा था ।राजा रावण के आततायीपन से यह संसार व्याकुल था। रावण के राष्ट्र में नीति थी, धर्म नहीं था ।नीति भी क्या अधर्म की अनीति थी ।यदि उसके साथ धर्म भी होता तो निश्चित था कि रावण की पताका सबसे ऊंची कहलाती।”
सर्वत्र हाहाकार थी और त्राहिमाम था।
अन्यायी क्रूर दुष्ट रावण का ऐसा राज था।
पाप पूर्ण नीति का अवलंब उसे प्राप्त था।
धर्म के स्थान पर अधर्म में अनुरक्त था।।
इस वर्णन से पता चलता है कि रावण उस समय एक बहुत बड़ा आततायी शासक बन चुका था। वह लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन कर रहा था और संसार में उसके पापाचरण के कारण सर्वत्र ‘त्राहिमाम’ मच चुकी थी ।रावण की अनीति और अधर्म के विनाश के लिए उस समय ऋषिमंडल बहुत अधिक चिंतित था । इन परिस्थितियों ने राम का निर्माण किया। जिनमें उस समय के सभी ऋषियों का आशीर्वाद और शुभकामनाएं उनके साथ थीं। रावण के अंत के लिए विश्व स्तर पर सभी सात्विक शक्तियां कार्य कर रही थीं। उन सबने प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष रूप से श्रीराम के उत्थान का स्वागत किया। क्योंकि उन्हें पता था कि श्रीराम का उत्थान ही रावण के पतन की कहानी लिखेगा। यही कारण था कि श्रीराम अपने वनवास के समय जिन – जिन ऋषियों से मिले ,उनमें से अधिकांश ने उन्हें ऐसे अस्त्र शस्त्रों का ज्ञान प्रदान किया जो आगे चलकर उन्हें रावण के अंत करने में सहायता करते।
रावण के आतंकवादी स्वरूप के संदर्भ में हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत की प्राचीन संस्कृति यह रही है कि जो व्यक्ति राजा के रूप में शक्तिसंपन्न होकर प्रजा पर आतंकपूर्ण शासन करे, उसका विनाश करना सबका सामूहिक उद्देश्य बन जाता है। भारत की सांस्कृतिक की मान्यता है कि सभी लोग शांतिपूर्ण सह अस्तित्व में ही अपना आत्मिक, आध्यात्मिक, मानसिक और बौद्धिक विकास कर सकते हैं। इसलिए शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना को बलवती बनाए रखने के लिए सर्वत्र शांति व्याप्त हो – ऐसा प्रयास हमारी सामूहिक चेतना का विषय है । इसी दृष्टिकोण से प्रेरित होकर रामचंद्र जी की समकालीन सभी सात्विक शक्तियां उनके साथ आ चुकी थीं।
महर्षि बाल्मीकि का कथन है कि श्रीराम ने रावण के उस अत्याचार को नष्ट किया जिसके चलते संपूर्ण भूमंडल की प्रजा त्राहिमाम कर रही थी। कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी जी ही हमें बताते हैं कि श्रीराम जब अपनी पताका को लेकर चले तो सबसे प्रथम निषाद के राज्य में जाकर उन्होंने अपनी संस्कृति का प्रसार किया।
मुनिवर देखो ! बाली बहुत ऊंचा और वेद का पंडित था , परंतु क्या करें वह भी संस्कृति से दूर चला गया था। अपने छोटे भ्राता की पत्नी को अपने गृह में प्रविष्ट कर लिया था। श्रीराम ने उन्हें नष्ट किया और अपनी ऊंची संस्कृति का प्रसार किया।’
रामचंद्र जी ने यहां पर यह नहीं देखा कि शक्ति संपन्न बाली को वह साथ लेकर अपनी सीता की खोज के अभियान में आगे बढ़ें। इसके विपरीत रामचंद्र जी ने बाली का वध किया और उसके स्थान पर सुग्रीव को राजा बनाया। ऐसा उन्होंने केवल इसलिए किया कि मर्यादा की स्थापना हो सके और पापाचारी व अत्याचारी बाली का वध होने से सात्विक शक्तियों को बल मिले। अपने प्राणान्त होने से पहले बाली ने स्वयं रामचंद्र जी से यह कहा था कि यदि तुम्हें अपनी पत्नी के खोज अभियान में सुग्रीव की सहायता लेनी थी तो उससे अधिक बलशाली तो मैं था , आपको मुझसे यह सहायता लेनी चाहिए थी।
मैंने आपका क्या बिगाड़ा था ,जो आपने मेरा वध कर दिया? इस पर रामचंद्र जी ने बड़ा सधा हुआ मर्यादित उत्तर दिया था कि आततायियों का वध करना रघुवंशियों का प्रथम कर्तव्य है। तुम क्योंकि अपनी प्रजा का उत्पीड़न कर रहे थे, पापाचरण करते हुए दूसरों की नारियों का हरण कर रहे थे, इसलिए तुम्हारा वध करना मेरा कर्तव्य था। यदि रामचंद्र जी यहां पर सुग्रीव की उपेक्षा कर बाली का सहाय्य प्राप्त करते तो निश्चय ही वे स्वार्थी कहलाते । तब वह मर्यादा पुरुषोत्तम भी नहीं बन पाते।
रामचंद्र जी ने राक्षसों का संहार कर सात्विक वृत्ति के लोगों को राज्य करने का अवसर उपलब्ध कराया। यह केवल आर्य राजाओं की ही परंपरा रही है कि उन्होंने तुर्कों ,मुगलों या अंग्रेजों की भांति राज्यों का विस्तार कर अपने लिए साम्राज्य स्थापित नहीं किए अपितु राक्षस वृत्ति के लोगों का संहार कर अच्छे लोगों को राजनीति में आने और जनसाधारण का कल्याण करने का उन्हें अवसर उपलब्ध कराया।
राजनीति में रहकर इतना बड़ा त्याग करना हर किसी के वश की बात नहीं है। आर्य राजाओं की वंश परंपरा में जन्मे रामचंद्र जी ही ऐसा कर सकते थे कि विशाल साम्राज्य की स्थापना करने के उपरांत भी अलग-अलग देशों के अलग-अलग राजा उन्होंने नियुक्त किए। वह भी अपने परिवार के न होकर जनसाधारण के बीच से नियुक्त किए गए।
रामचंद्र जी ने राक्षसों का सफाई अभियान चलाते हुए रावण के पुत्र नरांतक को नष्ट किया और वहां के सौमभाम नाम के राजा को राज्य दिया । जिसको सोमकेतु नाम का राज्य कहते थे। कृष्ण दत्त ब्रह्मचारी जी हमें बताते हैं कि पातालपुरी में अहिरावण को नष्ट कर हनुमान के पुत्र मकरध्वज को वहां का राज्य दिया, और रावण को नष्ट कर रावण के भ्राता विभीषण को वहां का राष्ट्र दे करके उसके पश्चात वह अपनी अयोध्यापुरी में आ पहुंचे। उच्चारण करने का अभिप्राय है कि मेघनाथ आदि सब को नष्ट किया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत