जी. पार्थसारथी
हालिया वक्त में दुनिया के ध्यान का केंद्र ज्यादातर अफगानिस्तान में तालिबान शासन द्वारा महिलाओं पर थोपे गए कड़े और क्रूर प्रतिबंधों से उत्पन्न मानवाधिकार हनन पर अधिक रहा है। जिस तरह बाइडेन प्रशासन ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी की बेढंगी योजना बनाई और क्रियान्वित किया है, उससे अमेरिकियों के अंदर खासा रोष है। यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि अमेरिकी सैनिकों के पलायन से दुनिया ने जो अफरातफरी मचते देखी और जिस बेतरतीब तरीके से इसको अंजाम दिया गया, वह सबको चौंकाने और झटका देने वाला रहा है। निकलते समय जैसी जिल्लत अमेरिकी फौज और नागरिकों को झेलनी पड़ी है, उससे अमेरिकी जनता खासतौर पर खफा है। पाकिस्तान के साथ गलबहियां डालने वाली नीति, वह भी उस वक्त, जब आईएसआई तालिबान को सुरक्षित पनाहगारें, हथियार और प्रशिक्षण मुहैया करवा रही हो, इससे कभी न खत्म होने वाला संकट बन चुका है।
अब यह ज्यादातर महसूस किया जा रहा है कि अफगानिस्तान से जल्दबाजी में हुए सैन्य पलायन के पीछे राष्ट्रपति बाइडेन को मिली गलत सलाह है। अमेरिकी लोगों को यह समझ नहीं आ रहा है कि अफगानिस्तान पर चढ़ाई, जिसकी कीमत अमेरिकी खजाने को 8 ट्रिलियन डॉलर और कुल मिलाकर लगभग 90000 जानों से चुकानी पड़ी है, उसका अंत क्या इस तरह जलील होकर करना बनता था। जले पर नमक तब और हुआ, जब आईएसआई प्रमुख ने काबुल पहुंचकर अपेक्षाकृत नर्म मुल्ला बरादर के नेतृत्व वाली सरकार में आईएसआई के प्रिय, किंतु कट्टरवादी, हक्कानी परिवार का प्रभुत्व बड़ी आसानी से बनवा डाला। इतिहास में ‘दहशत के खिलाफ दुनिया की जंग’ के नाम पर अफगानिस्तान में अमेरिकी फौज की आमद को अब कूटनीतिक, सैन्य और आर्थिक रूप से एक गलत सलाह पर किए गए दुस्साहस की तरह देखा जाएगा।
वाशिंगटन में संपन्न हुई क्वाड शिखर वार्ता, जो कि अमेरिकी पलायन के बाद जल्द हुई थी, उसमें यूं तो चर्चा का मुख्य विषय उत्तरोतर दबंग होते चीन से पैदा होने वाली चुनौतियों के मद्देनजर हिंद-प्रशांत महासागरीय क्षेत्र में आवाजाही को मुक्त, खुला और नियम-प्रचालित बनाने पर था। लेकिन इसमें म्यांमार को लेकर हुई चर्चा भी गौरतलब है। क्वाड ने कहा ‘हम म्यांमार में हिंसा बंद करने का आह्वान जारी रखे हुए हैं, पुरानी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहाल किया जाए, साथ ही आसियान संगठन के ‘पांच सूत्रीय आम समहति वाले समझौता उपायों’ पर अमल किया जाए’। यह पहली मर्तबा है कि भारत ने अपने किसी पड़ोसी के मानवाधिकार हनन पर विशेष रूप से नाम लेकर की गई ताड़ना पर अन्य मुल्कों, यहां तक कि अमेरिका का भी, साथ दिया हो।
म्यांमार की भारत के साथ 1640 किमी लंबी थलीय सीमा रेखा है, जो हमारे विद्रोह प्रभावित राज्यों— मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश से लगती है। सीमापारीय विद्रोहियों से निपटने में भारत और म्यांमार की सेना के बीच सहयोग दोनों देशों के परस्पर संबंधों का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है। दूसरी ओर, चीन ने म्यांमार से बरतने में ‘इनाम अथवा दंड’ की नीति अपना रखी है, गोया वह सेवक हो।
पश्चिमी ताकतों द्वारा संयुक्त राष्ट्र में म्यांमार को लेकर पेश किए जाने वाले प्रस्तावों पर चीन उसकी ढाल बन जाता है लेकिन बाकी जगह उसके प्रति रवैया मनमानी और दोहन करने वाला है। इसका सीधा संबंध म्यांमार के विद्रोही संगठनों से उसके गहरे नाते से है, इसमें विशेष रूप से शान प्रांत के अत्यधिक हथियारों से लैस यूनाइटेड वास स्टेट आर्मी और अन्य सशस्त्र विद्रोही गुट हैं। म्यांमार पर काबिज सैनिक शासन के खिलाफ मुखालफत लगातार बढ़ रही है, लेकिन चीन पर निर्भरता इस कदर है कि अनेकानेक द्विपक्षीय और राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों पर ज्यादा चीन की चलती है। इसी बीच चीन को म्यांमार से होकर गुजरती अपनी 800 किमी लंबी तेल एवं गैस आपूर्ति पाइप लाइन, जिसका एक छोर बंगाल की खाड़ी में क्याकपऊ बंदरगाह स्थित टर्मिनल में है तो दूजा चीन के युन्नान प्रांत तक है, उसकी विशेष सुरक्षा सुनिश्चित करने को म्यांमार का साथ चाहिए। म्यांमार की सेना को फिलवक्त जितना विरोध अब सहना पड़ा रह है वह उम्मीद से परे है और सौदेबाजी से शांत करना कठिन है।
म्यांमार में जारी हिंसा को लेकर विश्वभर में रंज है, वहीं पड़ोसी आसियान संगठन के देश फौजी निजाम पर लगातार दबाव बढ़ा रहे हैं। आसियान मुल्कों के राष्ट्राध्यक्षों ने ‘पांच सूत्रीय आम सहमति वाले समझौता उपाय’ वाला फार्मूला तैयार किया है। इसके तहत हिंसा पर तुरंत रोक, सभी पक्षों को अधिकतम संयम बरतना पहला काम है। साथ ही, नागरिक हित में, शांतिपूर्ण हल हेतु संबंधित पक्षों में रचनात्मक संवाद की शुरुआत करना है। ब्रुनेई के अतिरिक्त विदेश मंत्री एरिवान यूसुफ को म्यामांर मामलों पर आसियान का विशेष दूत नियुक्त किया गया है। संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि टीएस कृष्णमूर्ति ने इसी बीच म्यामांर सरकार से संयम बरतने और आंग सान सू की समेत सभी नजरबंद राजनीतिक कैदियों को रिहा करने की मांग की है। अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकेन ने भी इन प्रयासों का स्वागत किया है, जिन्हें दुर्भाग्यवश फौजी शासकों ने रोक रखा है। इस दौरान म्यांमार ने आसियान के विशेष दूत द्वारा आन सान सू की को रिहा करने वाले सुझाव को खारिज कर दिया है।
म्यांमार के हालात जड़ता की ओर अग्रसर हैं, परिणामवश और अधिक जानें जाएंगी, भारत को सुनिश्चित करना होगा कि इन घटनाओं का असर म्यांमार के साथ लगते हमारे इलाकों की शांति और स्थायित्व पर न होने पाए। म्यांमार के सैनिक शासकों द्वारा अपनाए अड़ियल रुख से आसियान संगठन में गुस्सा और मायूसी है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में म्यांमार के सैनिक शासन पर दंडात्मक उपाय लागू करने वाले प्रस्तावों का न तो चीन और न ही रूस ने समर्थन किया है। इस बीच, यह सुनिश्चित करने को कि म्यांमार में बने हालातों से हमारे उत्तर-पूरबी राज्यों में बड़े पैमाने पर शरणार्थियों की आमद न बनने पाए, भारत को म्यांमार की सरकार से निकट संवाद बनाए रखना होगा।
अगरचे म्यांमार से भागे शरणार्थियों को शरण देनी भी पड़े, तो पूरे मामले से बड़ी संवेदनशीलता से बरतने की जरूरत है। यह बात दिमाग में बनाए रखनी होगी कि म्यांमार भारत के विद्रोहियों के खिलाफ अभियानों में बहुत सहयोग करता आया है लिहाजा भारत की उत्तर-पूरबी सीमा पर शांति और सुरक्षा बनाए रखने को म्यांमार सेना के साथ विमर्श कायम रखना जरूरी है।
आसियान संगठन के राष्ट्राध्यक्ष इस बात को लेकर ऊहापोह में हैं कि जिस तरह उनके शांति प्रस्तावों को म्यांमार ने खारिज किया है और इस राह पर कोई प्रगति नहीं हो पाई, उसके चलते इस महीने के अंत में होने वाले वार्षिक शिखर सम्मेलन में सैनिक शासक को आमंत्रित किया जाए या नहीं। हाल ही में विशेष दूत एरिवान यूसुफ ने एक पत्रकार वार्ता में कहा था कि सैन्य पंचाट ने पहले आसियान के सुझाए पांच सूत्रीय आम सहमति समझौता प्रपत्र पर हामी भरकर अप्रैल माह से अमल करना माना था, लेकिन फिर पीछे हट गया, इसको ‘वादे से मुकरना’ माना जाएगा। भारत को आसियान के विशेष दूत और म्यांमार सरकार के साथ निकट संवाद कायम रखते हुए क्षेत्रीय आम सहमति बनाने वाले उपायों पर काम जारी रखना होगा। हमारे पूरबी पड़ोस में स्थायित्व एवं शांति कायम रहे, इसलिए यह करना जरूरी है।