अष्टभुजी माता की अष्ट भुजाओं का रहस्य
आज दशहरा का पावन पर्व है। इससे पूर्व 9 दिन तक देवी मां के भिन्न-भिन्न रूपों की पूजा-अर्चना और उपासना हमने की थी। इससे भी पहले 15 दिन तक श्राद्ध पक्ष हमने मनाया था।
अब जानने व समझने की बात यह है कि भारतीय संस्कृति में क्या है श्राद्ध पक्ष का महत्व? क्या है दुर्गा माता ? क्या है गायत्री माता ? और क्या है वैष्णवी माता ?
अभीहमने अपने घर में 8 अक्टूबर से 10 अक्टूबर तक सामवेद पारायण यज्ञ अपनी श्रद्धेया माता श्री श्रीमती सत्यवती आर्या जी की 97 वी जयंती के अवसर पर संपन्न कराया है। तब हमें श्राद्ध , व्रत अथवा संकल्प, नवरात्र आदि पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति समाज के प्रबुद्ध वर्ग के समक्ष करने का सौभाग्य एवं शुभ अवसर प्राप्त हुआ था ।
प्रासंगिक एवं समय अनुकूल विचार करने के योग्य विषय भी है। आज का समाज मां दुर्गा की गोद में जाने के लिए तत्पर हो रहा है। मां काली अष्टभुजी की गोद में जाने के लिए तत्पर हो रहा है। हमारे योगेश्वर आचार्य जन जब इसमें रत रहते थे तो उनके विभिन्न प्रकार के स्वरूप उनके समीप आते रहते थे। जैसे हमारे यहां अष्ट भुजाओं का प्राय: वर्णन आता है। हमारे यहां यौगिक साहित्य में जब योग के ऊपर अनुसंधान करने लगता है तो मानव की योग की आठ प्रवृत्तियां जागृत हो जाती हैं। आठों भुजाओं से वह कल्याण करने वाली अष्टभुजा अष्टम ब्रह्म अष्ट दिशाएं कहलाती हैं।
प्राची दिक ,दक्षिण दिक, प्रतीची, उदीची और ध्रुवा , ईशान कोण ऊर्धवाकृतियों में, दक्षिणाय में यह ईशानकृतिका कहलाती है। यह अष्टभुजा होती हैं।
प्रथम नवरात्र से लेकर आठवें नवरात्र तक यह आठ प्रकार की अष्ट भुजाओं वाली देवी मां की पूजा होती है। नौंवी नवरात्र की पूजा नहीं होती। केवल दुर्गा अष्टमी तक पूजा का विधान किया गया है। जो आठ भुजाओं के पूजा के रूप में माना जाता है। नव दिवस को रामनवमी और दशम दिवस को विजयादशमी की पूजा होती है।
प्रथम नवरात्र में सर्वप्रथम उस दिशा की अथवा भुजा की पूजा होती है जिस दिशा से प्रकाश आता है । वह अदिति सूर्य उदय होता है। प्रकृति या ब्रह्मांड की सर्वोत्तम दिशा पूर्व है। इसलिए प्रातः काल में सूर्योदय की तरफ मुंह करके सर्वप्रथम हम अपनी पूजा और उपासना का प्रारंभ करते हैं। क्योंकि पूर्व की दिशा प्रकाश का भंडार है।
उसके भुज में प्रकाश है। जो उषा और कांति के सहित आता है। उषा और कांति प्रसाद रूप में मानव को प्राप्त होती है। उस प्रसाद को प्राप्त करने वाला मनुष्य को बनना चाहिए। उषाकाल जब होता है। उषाकाल में अंतरिक्ष में लालिमा होती है ।वह लालिमा मानव के प्रकाश का नेत्र बन करके मानव को अमृत पान कराती है। प्रत्येक मानव अमृत का पान करता रहता है। इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा है कि जो साधना करने वाले पुरुष हैं, जो गृह में रहने वाले रहने वाले पुरुष हैं वह पूर्वाभिमुख हो करके अपना ध्यान अथवा साधना करने में सदैव रत रहे ,क्योंकि प्रकाश ही तो मानव का जीवन है ,जो कांति बन करके आती है । इसी को हमारे ऋषियों ने ऊष:पान भी कहा है। ऊष:पान करने वाला अमृत पान करता है। ब्रह्म मुहूर्त की दौलत को लूटता है। ऐसा लुटेरा सचमुच ईश्वरीय संपत्ति अर्थात दिव्यताओं, दिव्य सम्पत्तियों से मालामाल हो जाता है। प्रात: काल में उस समय जो सोता रह गया वह इन दिव्य संपत्तियों से वंचित रह जाता है। इस प्रकार उसके पास बौद्धिक संपदा और दिव्यता का अभाव बना रहता है।
जहां अंधकार अज्ञान समाप्त हो जाता है। ज्ञान के आने पर, प्रकाश के आने पर अंधकार रूपी अज्ञान नहीं रहता, क्योंकि अंधकार अज्ञान का प्रतीक है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक माना गया है। इसलिए सबसे पहले हमारे पास ज्ञान होना चाहिए। ,प्रकाश होना चाहिए ।यह देवी की एक भुजा कहलाती है।
द्वितीय भुजा दक्षिण दिक कहलाता है ।दक्षिण दिक उसे कहते हैं जिसमें पूर्व से दक्षिण को विद्युत की तरंग चलती हैं, क्योंकि अध्यात्मिकता में विज्ञान की तरंगें उत्पन्न रहती हैं। दक्षिण में शब्द विद्यमान होता है ।एक मानव शब्द का उच्चारण करता है उच्चारण करके उसका जो शब्दों का भंडार है वह दक्षिण दिक कहलाता है। वह द्वितीय चरण अथवा दितीय भुज कहलाता है ।
प्रतिची पश्चिम दिशा को कहते हैं यह जो पश्चिम हैं यह मां का तृतीय भुज कहलाता है ।पश्चिम दिशा में अन्न का भंडार होता है। प्रभु का दिया हुआ अन्न होता है जब पश्चिम दिशा से वायु वेग से गति करती है, विद्युत को साथ में लेकर के आती है तो मां पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार की आभा को परिणित कर देती है। नाना प्रकार का खाद्य और खनिज पदार्थ इसी से उत्पन्न होने लगता है।
प्रकृति मां काली का यह भुज कहलाता है, जो नाना प्रकार के खनिज को प्रसाद रूप में प्रदान करती है। इसलिए प्रतिचि दिक कही जाती है । प्रतिची दिक आभा में रमण करने वाला है।
चतुर्थ भुजा उदीची दिक कहलाती है। जिसका अभिप्राय है उत्तरायण को। जितने साधकजन हैं वह उत्तरायण को मुख करके साधना करते हैं, योगाभ्यास करते हैं, प्राण की गति को लेते हैं ,क्योंकि जितना भी ज्ञान का भंडार है वह उत्तरायण में रहता है। दो प्रकार का ज्ञान होता है, एक उत्तरायण दूसरे दक्षिणायन ।और एक माह में 2 पक्ष होते हैं ,एक उत्तरायण दूसरा दक्षिणायन।
एक शुक्ल होता है तो एक कृष्ण होता है ।कृष्ण अंधकार को कहते हैं और शुक्ल प्रकाश को कहते हैं।जब साधक चारों भुजाओं को जान लेता है तो इस प्रकृति में वह दिगविष्णु अर्थात दिग्विजय बन जाता है। विष्णु के स्वरूप को जानने में कुछ-कुछ सफलता को प्राप्त करने लगता है। ऐसा साधक ध्रुवा गति में रहने वाला होता है। वैज्ञानिक इस में रमण करने लगता है। साधक ध्रुवा में प्रभु को दृष्टिपात करता है, और महाकाली का, जो वह ध्रुवा मां, काली धुर्वा में भी ,ऊर्ध्व में भी, प्राची में भी ,दक्षिण में भी, प्रतिची में भी और उदीची में भी। माँ ही मां दृष्टिपात होने लगती है,कि तू कैसी भोली है ,तू कैसी महान है। मां तो अंधकार को समाप्त करके प्रकाश में लाने वाली है। तू प्रत्येक मानव को प्रकाश में ला रही है। और वह प्रकाश ही मानव को प्रतिष्ठित बनाता है ।तेरी ममता का जो महत्व है ,मानव के हृदय में ओतप्रोत हो जाता है। इसलिए यह मां की पांचवी भुजा कहीं जाती है।
छटा जो भुज है वह ऊर्ध्वा गति में रहता है ,जो बृहस्पति लोकों में रमण करने वाले प्राणी होते हैं। उनको मां बृहस्पति गति देती है। मां की ऊर्ध्वा शक्ति साधक को प्राप्त हो जाती है।मां की ऊर्ध्वा में आभा को ,साधक दृष्टिपात कर रहा है। मानव मात्र का कल्याण कर रहा है, शिव बन रहा होता है। नाना प्रकार के सुखों की आनंद की वृद्धि कर रहा होता है।
देवी संपदाओं का स्वामी हो करके देववत हो जाता है और अपने देवत्व को प्राप्त कर लेता है। यह मां का छटा भुजा होता जिसमें ऊर्धवा गति को प्राप्त कर के नाना प्रकार के मंडलों में साधक पहुंच जाता है। लोकों का रमण करने लगता है।
देवी के इसी रूप को कहीं दुर्गे, दुर्गा मां के रूप में प्रकट करने लगते हैं ।कहीं इसको वसुंधरा कहते हैं ।कहीं इसको धेनु कहते हैं ।कहीं इसको गो रूप में परिणत करने लगते हैं। देवी संपदा वालों ने इनको भिन्न-भिन्न रूपों में माना है। देवी याग प्राणी को करना चाहिए । ऊर्ध्वा गति में गमन करने वाला उपस्थान को प्राप्त होता है। इस गति में जो पहुंच जाता है वह ब्रह्मवेता बनने जा रहा होता है ।जो ब्रह्म का चिंतन करने वाला होता है। साधक योगीजन अपनी उड़ान में उड़ रहा होता है। प्रकृति की गोद में वैज्ञानिक चला जाता है। विज्ञान के युग में गति करने लगता है। वैज्ञानिक यंत्रों पर विद्यमान होकर के लोक लोकांतरों की यात्रा करने लगता है। इसलिए मनुष्य को इस गति में रमण करना चाहिए।
मां की सातवीं भुजा ईशान कोण वाली है।ईशान में कलश और ज्योति का प्रकाश होता है। ईशान में गति करने वाला जब योगाभ्यास करने वाला प्राणी मूलाधार में बंद को लगा देता है। मूलबंध को लगा करके उसके पश्चात वह नाभि केंद्र में ज्योति का प्रकाश दृष्टिपात करता है। उसके पश्चात वह जालंधर बंद को लगाकर के हृदय चक्र में अपने में ज्योति का दृष्टिपात करता है। उसके पश्चात वह कंठ में और स्वाधिष्ठान चक्र में और जहां त्रिवेणी का स्थान अर्थात जहां इडा, पिंगला, सुषुम्णा इनका मिलन होता है ,वहां त्रिभुज कहलाता है।
तीनों गुणों तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण को दृष्टिपात करके आत्मा ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करता है। ब्रह्मरंध्र में जब योगेश्वर जाता है तो वह सर्व ब्रह्मांड को दृष्टिपात करता है।
ईशान कोण में कलश होता है, यज्ञशाला में और ईशान कोण में ज्योति विद्यमान होती है ।ज्योति को योगी ध्यान अवस्थित करता है।उसे कहते हैं जो कुंभकार बनाता है जहां इसमें जल होता है, इसमें अमृत होता है। अमृत पान की वृद्धि कर रहा है ।ज्ञान की वृद्धि कर रहा है। वह सरस्वती का देने वाला है। उसको पान करने से सरस्वती आती है। अमृत के ही पान करने वाले सरस्वती को अपने में धारण करते हैं। वह ईशान मां काली का सातवीं भुजा इसीलिए कहीं जाती है ।
आठवां जो भुज है वह दक्षिणायन कृति कहलाता है ।जिसमें विद्युत प्रवाहित होकर के और पश्चिम दिशा से अन्न का भंडार लेकर के मानव का भरण करती है।
हे मां तू हमारा कल्याण करने वाली है। तू दुर्गा बन करके हमारे दुर्गुणों को शांत करती है। जब तू ध्रुवा में रहती है तो पृथ्वी बन करके ,वसुंधरा बन करके हमारा कल्याण करती है। ऊर्ध्वा गति में रहती है तो हमारे ऊपर अपनी अमृत की दृष्टि कर देती है, मेघा उसे वृष्टि करती है। उससे वनस्पति उत्पन्न होती है ।प्राची में रहती है तो प्रकाश देती है ।एक भुज तेरा प्राची में रहता है तो प्रकाश में अगरतम दक्षिणाय में रहता है। विद्युत तरंग देता है ,और उदीची में रहता है तू प्रकाश ज्ञान देती है। यह आभा मे, प्रतिची में यह अन्न का भंडार बनकर के प्राण शक्ति का आधार है ।क्योंकि अनादि मन और प्राण के सहयोग से यह मानव का शरीर चलता है। संसार गति कर रहा है ।ब्रह्मांड गति कर रहा है। प्राण भोक्ता बनकर के भोगवस्तु को प्रदान कर रहा है।
इस प्रकार प्रथम नवरात्र से लेकर 8 में नवरात्र तक परमात्मा रूपी दैवीय शक्ति की उस देवी की जिसको ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के महरिशी दयानंद ने दिव्य गुणों से ओतप्रोत होने के कारण देवी कहा है यह उसी देवी ईश्वर के कारण सारी शक्तियां प्राप्त होती हैं इन्हें ऑटो शक्तियों की ऑटो भुजाओं की आठों दिशाओं की पूजा 8 दिन तक की जाती है।
नवरात्रों को 9 माह के बराबर भी माना गया है ।जिसमें 1 दिन को एक माह के बराबर मानते हुए गर्भ में स्थित बच्चे का निर्माण जो मां करती है इसलिए उस मां की निर्माण शक्ति को नमन किया जाता है ,क्योंकि माता निर्माता होती है।
इसी प्रकार देवी की वैष्णवी शक्ति भी होती है, जो दुर्गा का ही पवित्र भाव है ,जो काली का पवित्र भाव है ,जो चामुण्डा का पवित्र भाव है। वैष्णो नाम भी दिशाओं का है इसलिए सरकार की जो आठवां दिशाएं हैं जिनका उल्लेख ऊपर आ चुका है, यह भी वैष्णवी शक्ति कही जाती है।
इसके अतिरिक्त गायत्री देवी होती है ।गायत्री का नाम है गान गाने का, जो गान प्रभु के निकट ले जाने वाला हो ,उसको गायत्री के कहते हैं ।जैसे जटा पाठ, घन पाठ,माला पाठ , मधु पाठ: और नाना प्रकार के पाठ हैं। गायत्री उसको कहते हैं जो संसार का कल्याण करती है। जिसमें संसार समाहित है। उस गायत्री का नाम आता है।इसी प्रकार वेदों ने तुझे माता कहा है ।तेरे जीवन में भी तीन अच्छी आदतें हैं, जिनमें सबसे ऊंची है कि तू बालक का पालन-पोषण करती है । द्वितीय यह है कि तू बालक को अपने राष्ट्र का और संसार का विचित्र बालक बनाती है और तृतीय यह है कि तेरे में संसार के कल्याण की भावनाएं होती हैं। अपने पुत्र को ऊंचा बनाकर ही नहीं, संसार के पुत्रों को ऊंचा बनाने की ही नहीं अपितु संसार के पुत्रों को भी ऊंचा बनाने की जब तेरे में भावनाएं होती हैं, तो माता तेरा मानवत्व और मातृत्व ऊंचा कहलाता है। इसलिए ही प्यारी माता वेदों ने तुझे गायत्री कहा है।
आज के संदर्भ में हमें इस बात को विशेष रूप से समझना चाहिए कि हमारी माताएं मानवत्व अथवा और मातृत्व के प्रति कितनी समर्पित है ? विशेष रूप से तब जब वे अपने अपने पुत्रों को बड़े होकर संसार के धन को लूट कर अपने घर में भरने की प्रेरणा देते हुए उनका पालन पोषण कर रही होती हैं। कार कोठियों के उन्हें सपने दिखाती हैं ? भ्रष्टाचार लूट या किसी भी तरीके से संसार के पैसे को घर में लाने का परिवेश देती हैं। वास्तव में आज की पथभ्रष्ट संतान के पीछे माता का ऐसा दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण कारण है । जिसे हमें निसंकोच स्वीकार करना चाहिए। मैं किसी पर दोषारोपण नहीं कर रहा हूं। परंतु वर्तमान की शिक्षा नीति पर विशेष रूप से मैं कहना चाहूंगा कि यह दोष पूर्ण है और माता के दिव्य भावों और गुणों का विकास करने में अक्षम सिद्ध हो चुकी है।
संकलनकर्ता : देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत समाचार पत्र