ईसाइयों के लिए मई का महिना मडोना की उपासना का महिना होता है। अगर मडोना नाम अलग लगे, कम सुना हुआ हो तो ऐसे समझ लीजिये कि वो जो चर्च में मदर मैरी की गोद में बच्चा लिए तस्वीरें-मूर्तियाँ दिखती हैं, उसे मडोना कहते हैं। कभी कभी उसे गोद में बच्चे के बिना भी दर्शाया जाता है। मुंबई के बांद्रा में जो बासीलीक ऑफ़ आवर लेडी ऑफ़ द माउंट है, वो भी वर्जिन मैरी यानि मडोना का ही है। विश्व भर में तीस बड़े मडोना के रिलीजियस सेण्टर हैं जैसे नाजरेथ, इसराइल का बासीलीक ऑफ़ एनानसीएशन, या फिर पुर्तगाल का आवर लेडी ऑफ़ फ़ातिमा।
इस महीने की शुरुआत में कैथोलिक पोप ने घोषणा की थी कि इन सब में पूरे महीने कोरोना संकट से लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए प्रार्थनाएँ चलेंगी। किसी चर्च में दिवंगत लोगों के लिए प्रार्थना होगी, कहीं गर्भवती स्त्रियों और छोटे बच्चों के लिए होगी, कहीं प्रवासियों के लिए, कहीं बुजुर्गों के लिए, तो कहीं वैज्ञानिकों और शोध संस्थानों और कहीं डॉक्टर और नर्सों के लिए प्रार्थना की जाएगी। इसकी शुरुआत करते हुए पोप ने प्रार्थना कर के रोजरी यानि जप वाली मालाएं इन सभी जगहों पर भेजी हैं। इस विशेष प्रार्थना के लिए 5 मई को ही, शाम छह बजे का समय भी निर्धारित कर दिया गया था।
भारत में वैसे तो “कोम्परिटिव रिलिजन” यानि धर्म को तुलनात्मक रूप से पढ़ने-समझने का अब चलन बहुत कम ही बचा है (अगर कहीं बचा भी हो तो), फिर भी इसे एक अच्छे उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। माला के जरिये जप करने की परम्परा हिन्दुओं से पहले से किसी में भी नहीं होगी। ऐसा भी नहीं कि आज इस परंपरा का लोप हो गया है। कई लोग अभी भी गोमुखी में हाथ डाले, माला जपते दिख जायेंगे। इसका प्रभाव वैज्ञानिक तौर पर भी माना जाता है। ये एकाग्रता – कंसन्ट्रेशन बढ़ाने का एक अच्छा उपाय होता है। अकाल मृत्यु जैसे भय से बचाने के लिए महा मृत्युंजय मन्त्र का जप किया जाता है, ये भी आबादी के एक बड़े हिस्से को पता होता है।
इसके बाद भी क्या ऐसा कोई प्रयास हुआ? अरे नहीं! ऐसा करने से तो अनर्थ ही हो जाता ना! कहीं जो घर के लोग माला जपने से साधू हो गए तो क्या होगा? वैसे किसी ने माला जपने वालों को साधू हो जाते नहीं देखा है मगर फिर भी रिस्क क्यों लेना? मेरे ही घर कोई हो गया तो? इसके अलावा जो बड़े पीठ हैं, मठाधीश हैं, उनकी ओर से ऐसा कुछ करने का कोई आह्वान भी नहीं सुनाई दिया। घरों में धर्म से जुड़ी किसी रीति का पालन होते देखने पर घर के लोगों की, विशेष कर नयी पीढ़ी की उसमें रूचि जाग सकती थी, लेकिन साधू हो गया तो? रिस्क क्यों लेना? इसलिए न तो आपने खुद किया, ना मठाधीशों ने कोई आह्वान ही किया।
ऐसे ही धीरे-धीरे आपके पास से आपके रीति-रिवाज खिंचकर दूसरों के पास जाते हैं। जैसे वो क्रिसमस ले गए, जप की माला भी बीस-तीस वर्षों में रोजरी हो ही जाएगी। प्रकृति खाली जगह बिलकुल बर्दाश्त नहीं करती। गड्ढा होते ही वो और किसी से नहीं तो पानी से भरने लगता है। वैसे तो गड्ढों को हम लोग कचरे से भर ही देते हैं। बिलकुल वैसे ही जो जगह धर्म से खाली होगी, वो रिलिजन से भरेगी। उसके बाद आप शिकायत करेंगे कि “कूल डूड” की पीढ़ी तो हर महीने बर्थडे मनाती है, मोमबत्ती फूंक कर केक काटती है! इसके लिए खाली जगह आपने ही तो बनाई है!
बाकी खाली जगह हमने-आपने और हमसे-आपसे पहले की पीढ़ियों ने छोड़ी ही क्यों, ये जवाब हमें और आपको खुद ही सोचना है। जो गलतियाँ पहले हो गयी उन्हें दोहराते जाना है, या कम से कम एक माला जुटा लेना है, ये भी खुद ही सोच लीजियेगा!
जैसे जैसे कथावाचकों के अहो-महो वाले आयोजनों का प्रभाव बढ़ा, वैसे वैसे उत्तरी भारत से घरों में कथा-कहानियां सुनाने की परंपरा भी जाने लगी। इसके अपने नुकसान होने थे, वो हुए भी। इससे सबसे पहले जो नुकसान हुआ वो ये हुआ कि कहानियों से जो नैतिक सन्देश जाता था, उसके बारे में किसी ने पूछा ही नहीं। दूसरा कि आप अगर शुरूआती बातें नहीं जानते तो आगे के प्रमेय-सिद्धांत भी समझ में नहीं आयेंगे। इसका एक अच्छा सा उदाहरण है “फल श्रुति”। अचानक अगर पूछ लिया जाए तो थोड़ा सोचकर लोग बता देंगे की इसका मोटे तौर पर अर्थ “सुनने का फल” होगा। अब सवाल है कि सिर्फ सुन लेने का कैसा फल? या सिर्फ किसी की बात, कोई कथा-कहानी सुन लेने का कोई फल क्यों मिले?
इसके जवाब में सबसे पहला तो होता है “मनोरंजन”। अगर कथा मनोरंजक न हो तो आप उसे पूरी सुनेंगे ही क्यों? बीच में ही छोड़कर कुछ और करने, व्हाट्स एप्प या सोशल मीडिया चलाने के, टीवी देख लेने के, कितने ही विकल्प तो हैं ही। दूसरे फायदे के लिए हमें फिर से एक कथा ही देखनी होती है। ये कथा एक कामचोर व्यक्ति की है जो कभी कहीं किसी गाँव में रहता था। कामचोर था तो रोटी-दाल का प्रबंध कैसे होता? तो थोड़े ही दिनों में इस आदमी ने चोरी करना शुरू किया। रात गए किसी वक्त वो निकलता और आस पास के गाँव में किसी खेत से कुछ अनाज काट लाता। जीवन ऐसे ही चलता रह। इस चोर का विवाह हुआ, एक बच्चा भी हुआ। बच्चा भी पिता जैसा, मुफ्त के माल के चक्कर में पड़ गया।
गाँव में ही एक मंदिर था। वहाँ पंडित जी कथा सुनाने के बाद बताशे बांटते थे। शाम की आरती के बाद बच्चा रोज वहाँ जाकर बैठ जाता और बताशे के लालच में पूरी कथा भी सुन आता। बच्चा थोड़ा बड़ा हुआ तो चोर ने सोचा इसे अपना काम भी सिखा दिया जाए। एक रात वो बच्चे को साथ लिए चला। एक खेत के पास पहुंचकर चोर ने इधर उधर देखा। जब कोई रखवाला नहीं दिता तो वो बेटे से नजर रखने को कहकर फसल काटने में जुट गया। अचानक बच्चा बोला, पिताजी आपने एक ओर तो देखा ही नहीं। घबराकर चोर ने अपना झोला और हंसिया हथौड़ा फेंका। जल्दी से वो बेटे के पास आया और बोला, क्या हुआ? कहीं से कोई आता हुआ दिखता है क्या?
बेटे ने कहा, अरे नहीं पिताजी! आपने सब तरफ देखा मगर ऊपर की ओर तो देखा ही नहीं! ईश्वर तो अभी भी आपको देख ही रहे हैं। बच्चे ने रोज मंदिर की कथाओं में सुन रखा था कि ईश्वर ऊपर से सभी के कर्म देखते रहते हैं। चोर हिचकिचाया, मगर उसकी समझ में बात आ गयी थी। जब कोई नहीं देखता, तो भी आप स्वयं को तो देखते ही हैं। इसलिए आपकी हरकत सबकी नजरों से छुप गयी ऐसा कभी नहीं होता। अगर “अहं ब्रह्मास्मि” के सिद्धांत को मान लिया जाए, जिसके लिए मंसूर-सरमद जैसे लोग काट दिए गए, तो आपने स्वयं को देखा, यानी ईश्वर ने भी देख लिया है। केवल सुनने से जो असर बेटे पर हुआ था, वो इस कथा में फैलकर चोर पर भी अपना प्रभाव डालता है। इसे “फल श्रुति” कहते हैं।
आप जो बार बार सुनते हैं, देखते हैं, उसका आपके जीवन पर भी प्रभाव पड़ता है। अगर समाचारों में बैंक डकैतों का पकड़ा जाना पढ़ा होगा, तो ये भी पढ़ा होगा कि कई बार ये लोग फिल्मों से प्रभावित होते हैं। उसकी नक़ल में ये डाका डालने, या ऐसे दूसरे अपराध करने निकले थे। पहले देखा-सुना, फिर विचारों में वो आया, फिर वो कर्म में उतरा और अंततः कर्म का फल भी भोगना पड़ा। इसे भगवद्गीता के हिसाब से देखें तो दूसरे अध्याय में इसपर जरा सी चर्चा है –
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63
इसका अर्थ है – विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
विषयों के बारे में जानकारी सुनने-देखने से ही आएगी। भारत में रहने वाले किसी व्यक्ति का चमगादड़ या कुत्ता खाने का मन करे, इसकी संभावना कम है। चीन में जिन लोगों ने ऐसे जीव चख रखे हों, उनको पता है की इनका स्वाद कैसा है, उनका मन कर सकता है। किसी जापानी ने रसगुल्ले या पूड़ी का नाम सुना ही नहीं, तो उसका खाने का मन क्यों करेगा? भारत में प्रेमचंद अपनी कहानी “कफ़न” में लिख जाते हैं कि उसके मुख्य पात्र किसी भोज में खायी पूड़ी को याद कर रहे थे। उसे सुनने वाला सोच सकता है कि ये क्या होगा? “फल श्रुति” भी इसी तरह काम करती है।
इसे लेकर सोशल मीडिया पर चलने वाला मजाक भी आपने खूब देखा है। कई बार आप “इसे पढ़कर डिलीट करने वाले का ये व्यापार में भारी नुकसान हुआ, इसे दस लोगों को भेजने वाले को नौकरी में सफलता मिली” जैसे वाक्य आप मजाक में पढ़ चुके हैं। इसे आप “हिन्दूफोबिया” की श्रेणी में डाल सकते हैं। ऐसे मजाक करने के लिए किसी को कोई सजा नहीं मिलती मगर तुलनात्मक रूप से “हालेलुइया” मजाकिया लिहाज में कहने के लिए तो हृतिक रौशन भी माफ़ी मांग चुके हैं! कभी जब “फल श्रुति” के बारे में सोचिये तो “हिन्दूफोबिया” के बारे में भी सोच लीजियेगा।
बाकी घरों में कथा न कहने के कारण बच्चों को पता नहीं होता कि अयोध्या किसी सरयू नाम की नदी के किनारे है, या वाराणसी, गंगा के अलावा किन्ही वरुणा और असी जैसी नदियों के किनारे भी होती है। हो सके तो कथाओं की परंपरा दोबारा जीवित करने पर भी सोचिये!
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित