राघवेन्द्र प्रसाद तिवारी
सामाजिक सांस्कृतिक प्राणी के रूप में भारतीय मानस ने अपनी विकास यात्रा के अंतर्गत न केवल शारीरिक एवं जैविक विकास किया, अपितु बौद्धिक, सांवेगिक, सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण उपलब्धियां अर्जित कीं। सांस्कृतिक दृष्टि से उसने अपनी एक आदर्श जीवनशैली को विकसित किया, जिसमें परस्परता, सहिष्णुता, प्रकृति के साथ सामंजस्य और मूल्याधारित शिक्षा आदि द्वारा सभ्यता और सांस्कृतिक विरासत की निरंतरता को बनाए रखा। इनके द्वारा हमने अपने अस्तित्व के अर्थ को अन्य सभ्यताओं से इतर सर्वथा भिन्न पहचान दी। इससे हमारी सभ्यता के बारे में एक स्पष्ट तथ्य उभरता है कि इसका मूलाधार विश्व-बंधुत्व की भावना एवं प्रकृति के साथ सहजीवन जैसे शाश्वत मानवीय मूल्यों का संरक्षण है। हमारी संस्कृति में इन तत्वों का समावेश गहन मंथन द्वारा दीर्घकालीन सांस्कृतिक विचार-मीमांसा के उपरांत हुआ।
दीर्घकालीन विकास यात्रा के दौरान हमने इन्हीं मूल्यों को अपनी सांस्कृतिक निरंतरता का हिस्सा बनाया। परिणामतः हममें ऐसी अनूठी और समन्वयकारी विश्वदृष्टि का विकास हुआ, जिससे भारतीय होने का अर्थ अपने आप में विशिष्ट हो जाता है। चाहे पहचान की बहुलता हो या सांस्कृतिक अभ्यासों की विविधता, इन सबके साथ भारतीय जनमानस के अन्दर भारतीय होने का भाव हमेशा विद्यमान रहता है। इसका संदेश वेदों, उपनिषदों, वेदांगों, पुराणों, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता, आगम, सुत्तपिटक, श्रीगुरुग्रंथ साहिब और अनेकानेक लोकसंतों द्वारा सृजित साहित्यों में प्रचुरता में उपलब्ध है। इस समृद्ध परंपरा में जड़ता के स्थान पर गतिशीलता रही है। यही कारण रहा है कि हर युग, हर संदर्भ, हर देश काल में हमारे यहां विभिन्न क्षेत्रों एवं समुदायों से समाज सुधारक हुए, जिन्होंने हममें इन जीवन मूल्यों को जीवंत रखने के साथ-साथ समाज को संगठित करने की नई परिभाषाएं एवं दिशाएं दीं। इनमें चार तत्व अति महत्वपूर्ण है—सत्य एक है, उसकी अभिव्यक्ति बहुविधि होती है; अपने-पराए का बोध तुच्छ है, हमें इससे ऊपर उठकर सार्वभौमिक मानवता के बारे में सोचना चाहिए; सभी का कल्याण हमारे उद्यमों का परम लक्ष्य होना चाहिए; और संग्रह के स्थान पर मितव्ययिता और अपरिग्रह हमारा आदर्श होना चाहिए।
इन्हीं सिद्धांतों को अलग-अलग भाषाओं में संतों, गुरुओं और समाज सुधारकों द्वारा दर्शाया गया है। महात्मा गांधी का सत्य और अहिंसा का दर्शन, दीनदयाल उपाध्याय का अंत्योदय का दर्शन, विनोबा भावे का भूदान आन्दोलन, नानाजी देशमुख की ग्रामीण विकास अवधारणा इत्यादि इन्हीं मूलभूत सिद्धांतों का पुनर्नवीकृत रूप है। वस्तुतः देखा जाए तो हमारी क्षेत्रीय, जातीय, धार्मिक अस्मिताओं की विविधताओं के बीच ये एकात्मकता के स्रोत हैं। हम त्याग के साथ उपभोग करने में विश्वास रखते हैं। हमारी संकल्पना ‘कम भी अधिक’ है, को अंगीकार करते हुए न्यूनतम संसाधनों में ही जीवकोपार्जन करके संतुष्ट होने की रही है।
विश्वस्तर पर भी देखा जाए तो लगातार इन मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं का क्षरण हुआ है। यदि हम आने वाली पीढ़ियों के प्रति सचेत रहना चाहते हैं, तो इन मूल्यों को अखंडित रखना परम आवश्यक है। संभवतः मूल्यों का क्षरण हमारी मानवीय विश्व दृष्टि एवं प्रकृति आधारित विकास में हुए परिवर्तन का परिणाम है एवं यह परिवर्तन विदेशी संस्कृति के आगमन और मैकाले प्रदत्त शिक्षा प्रणाली को अपनाने से हुआ। हमने जिस शिक्षा व्यवस्था को अंगीकार किया, उसमें ‘मूल्य आधारित जीवन’ के बदले ‘पूंजी आधारित जीवन’ को श्रेष्ठ माना गया| फलस्वरूप हमारा मूल स्वभाव परिवर्तित हुआ। अब हम एक ऐसी सभ्यता में जी रहे हैं जहां ‘अधिक भी कम है’ की स्वीकृति हो चुकी है। हम लगातार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं, फिर भी हमारे लालच की पूर्ति नहीं हो पा रही है। परिणामतः हम ऐसी स्थिति पर आ चुके हैं, जहां हमें संसाधनों की समस्या के साथ-साथ पर्यावरणीय समस्याओं से भी जूझना पड़ रहा है। हमें भारत की परम्परा और संस्कृति से ऐसे संस्कारों, व्यवहारों, पद्धतियों और शिक्षा के सूत्रों को खोजने की जरूरत है, जहां विश्व-बंधुत्व ही हमारा सर्वोपरि लक्ष्य था, जहां प्रत्येक व्यक्ति की सुख-समृद्धि सबकी सुख-समृद्धि का आधार थी, जहां हर जड़-चेतन की शांति एवं सुख ही जीवन का परम ध्येय था।
हम केवल विषय ज्ञान पर आधारित कक्षा शिक्षण के भरोसे ऐसी मूल्य आधारित शिक्षा पद्धति का विकास नहीं कर सकते हैं। इसका एक और बेहतर ढंग यह होगा कि हम शैक्षणिक संस्थाओं की संस्कृति में भारतीयता के मूल्यों का बीजारोपण करें। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 इस दिशा में महत्वपूर्ण संस्तुति प्रस्तुत करती है। यह शिक्षा नीति अपनी प्रस्तावना में ही मूल्य आधारित समाज व्यवस्था की ओर ध्यान आकर्षित करती है, और यह सुनिश्चित करने की क्षमता रखती है कि इन शाश्वत मूल्यों को कैसे बहुविषयी पाठ्यचर्या, अनुभवजनित अधिगम प्रणाली और कौशल विकास को निष्कर्ष आधारित शिक्षा के साथ एकीकृत किया जाए, जिससे व्यक्तित्व विकास एवं चरित्र निर्माण जैसे शिक्षा के मूलभूत उद्देश्यों को सुनिश्चित किया जा सके।
मुख्य संपादक, उगता भारत