पुस्तक का नाम : सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा:भगवान श्रीराम
लेखकीय निवेदन का शेष
थाईलैंड का राज परिवार और श्री राम
थाईलैंड के राज परिवार में आज तक भी लोग अपने नाम के साथ राम जोड़कर प्रसन्न होते हैं। वे समझते हैं कि जैसे श्रीराम ने दैवीय शक्तियों के माध्यम से शासन किया था वैसी ही दैवीय शक्तियां उनका भी साथ देती हैं और श्री राम स्वयं उनका मार्गदर्शन करते हैं। उनके प्रति सम्मान प्रकट करते हुए थाईलैंड का राजवंश आज भी उनकी चरण पादुकाओं को सिंहासन पर रखकर वैसे ही शासन करता है जैसे भरत ने श्रीराम के 14 वर्ष के वनवास काल में श्री राम की चरण पादुकाओं को सिंहासन पर विराजमान करके और अपने आपको श्रीराम का प्रतिनिधि बनाकर शासन किया था। इसका अभिप्राय है कि थाईलैंड का राजा अपने आपको श्रीराम का भक्त और प्रतिनिधि मानकर शासन करता है। यह बहुत ही दुख का विषय है कि भारत में स्वाधीनता के पश्चात रामराज्य की कल्पना करने वाले गांधीजी के उत्तराधिकारियों ने अपने आपको राम का प्रतिनिधि न समझकर राम का ‘प्रतियोगी’ या ‘प्रतिस्पर्धी’ मान लिया और उन्हें देश व संसार से विदा करने का मानो प्रण ही कर लिया।
थाईलैंड कर राजवंश श्रीराम के प्रति इतनी श्रद्धा और भक्ति भावना रखता है कि वह स्वयं को श्री राम का वंशज मानता है। थाईलैंड में आज भी अजुधिया अर्थात अयोध्या लवपुरी अर्थात लाहौर और जनकपुर जैसे शहर हैं। यहां पर राम कथा को लोग बड़े चाव से सुनते हैं । जब यह कथाएं होती हैं तो उस समय श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करते हुए लोग व्रत उपवास भी रखते हैं। जिससे श्री राम प्रसन्न हों और उनकी भक्ति सफल हो जाए।
यहां के स्थानीय लोग राम कथा को ‘राम कीरत’ कहते हैं। यह भाषा का थोड़ा सा अंतर है ,जो कि स्वाभाविक भी है । यह शब्द राम की कीर्त्ति कथा को प्रकट करने वाला है। लोगों ने श्रीराम के प्रति अपनी श्रद्धा को व्यक्त करते हुए मंदिरों में रामकथा के अनेकों प्रसंगों को उत्तीर्ण कर लिया है। जिससे उन्हें रामकथा को सुरक्षित रखने और कंठस्थ करने में सुविधा होती है। इन लोगों का रहन सहन वेशभूषा भी कुछ ऐसी ही दिखाई देती है जैसे यह आज भी रामायण काल में ही निवास करते हों। सच ही है कि जैसा जिसका इष्ट देव होता है वैसा ही उसका जीवन बन जाता है। जैसे थाईलैंड और इंडोनेशिया में श्रीराम के प्रति श्रद्धा भाव प्रकट होता है वैसे ही कंबोडिया में भी लोग श्री राम के प्रति अपनी भक्ति भावना प्रकट करते हुए देखे जा सकते हैं। इंडोनेशिया के लोगों का तो यह भी मानना है कि यदि रामायण का पाठ किया जाए तो उन्हें एक उत्कृष्ट मानव अर्थात आर्य बनने में सुविधा होगी। उनके आंतरिक जगत में आर्य बनने की यह उत्कृष्ट भावना भारत के ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ के टूटे-फूटे स्वरूप को प्रकट करती है । जबकि संसार में रामायण के माध्यम से ही शांति स्थापित होने की उनकी भावना संपूर्ण संसार के प्रति ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के पवित्र भाव की हमें याद दिलाती है। यह और भी सुखद आश्चर्य की बात है कि ऐसा मानने वालों में वहां के मुसलमान लोग भी सम्मिलित हैं। उनकी मान्यता है कि संसार में रहकर नेक इंसान अर्थात आर्य बनने से ही सब लोगों का कल्याण होना संभव है।
इंडोनेशिया और श्री राम
इंडोनेशिया और मलेशिया के जनजीवन को राम और रामायण ने बड़ी गहराई से प्रभावित किया है। यह बहुत ही प्रसन्नता का विषय है कि यहां के लोग युगों के गुजर जाने के बाद भी श्री राम और रामायण से जुड़े हुए हैं और उनका नाम लेकर प्रसन्न होते हैं । हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान फादर कामिल बुल्के ने 1982 में अपने एक लेख में लिखा था, ’35 साल पहले मेरे एक मित्र ने जावा के किसी गांव में एक मुस्लिम शिक्षक को रामायण पढ़ते देखकर पूछा था कि आप रामायण क्यों पढ़़ते हैं? उत्तर मिला था, ‘मैं और अच्छा मनुष्य बनने के लिए रामायण पढ़ता हूं।’
इससे जहां इंडोनेशिया के लोगों की श्री राम और रामायण के प्रति श्रद्धा भक्ति का पता चलता है वहीं यह बात भी स्पष्ट होती है कि मानव चाहे कहीं का भी हो, वह आज भी बेहतर से बेहतर प्रदर्शन कर आर्य बनने की इच्छा रखता है। निश्चित रूप से उसकी यह इच्छा उसके भीतरी जगत की इच्छा है । आत्मिक जगत की इच्छा है। उसकी आत्मा की आवाज है। इसी को सुनकर और इसी के अनुसार आचरण करके हमारे ऋषि महान बना करते थे । आत्मा की आवाज से धर्म की अभिव्यक्ति होती है । जो लोग धर्म की इस अभिव्यक्ति को यथावत सुन लेते हैं, और उसके अनुसार जीवन बना लेते हैं वह निश्चित रूप से अच्छे इंसान बन जाते हैं। वास्तव में यह भारतीय वैदिक संस्कृति का ही चमत्कार है कि उसने मनुष्य को अपने भीतरी जगत की इस इच्छा को सुनने के लिए प्राचीन काल से प्रेरित किया है। इंडोनेशिया के लोग यदि आज भी ऐसा करने और बनने की इच्छा रखते हैं तो इससे पता चलता है कि वह मूल रूप में आर्य वैदिक संस्कृति के उपासक रहे हैं।
राम की महिमा जावा में भी गाई जाती है ।।वहां तो एक नदी का नाम भी सरयू रखा गया है। जावा के मंदिरों में बाल्मीकि रामायण के श्लोक हमें पढ़ने को मिल जाते हैं। इसी प्रकार बाली द्वीप में भी रामायण के प्रति अत्यधिक श्रद्धा भाव रखने वाले लोग आज भी देखे जा सकते हैं।
श्री राम जैसे आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम व्यक्तित्व के कारण भारत की महान संस्कृति की विदेशी विद्वानों ने भी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है ।डब्लू डी ब्राउन लिखते हैं – “सावधानीपूर्वक परीक्षण करने से एक निष्पक्ष व्यक्ति यह स्वीकार करेगा कि संसार के साहित्य तथा अध्यात्म के जन्मदाता हिंदू हैं । इसी समय भारत में सर्वत्र बोली जाने वाली संस्कृत भाषा के बारे में जिन मैक्समूलर जाकेल्यो, सर विलियम जॉन्स आदि विद्वानों ने जो शोध तथा अन्वेषण किया है उनका कहना है कि कालांतर में प्रचार पाए धार्मिक विश्वासों का आदि मूल भारत के ग्रंथों में मिलता है। विचारशील अध्येताओं को इस बात के भी पक्के प्रमाण मिले हैं कि प्राचीन हिंदू न तो मूर्ति पूजा करते थे ,न उन्हें कोई अपढ़, असभ्यअथवा बर्बर जाति समझता था । इसके विपरीत वे ऐसे प्रेरणाशील व्यक्ति थे जिनसे अनेक दंभी और अहंकारी जातियां ईर्ष्या करेंगी। मुझे इसमें थोड़ा भी संदेह नहीं है कि हिंदू साहित्य के ये अनुवाद यह सिद्ध कर देंगे कि भारत की सभ्यता एक सुगंधिपूर्ण पुष्पगुच्छ है ,जो अपनी मादक सुरभि को सर्वत्र प्रसारित कर रही है।”
भारत के विषय में ऐसे प्रशंसनीय शब्दों का प्रयोग करने वाले विदेशी विद्वान जब ऐसा कहते हैं तो समझ लो कि वे श्रीराम के भारत के बारे में ऐसा कह रहे हैं।
इस प्रकार राक्षसों के संहारक श्रीराम का विश्वव्यापी स्वरूप हमें देखने को मिलता है । जिससे उनकी महानता का बोध होता है।
इस पुस्तक में हमने भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा के रूप में श्री राम को स्थापित करने का प्रयास किया है। जिन्होंने हमारी सांस्कृतिक चेतना को अपने महान कार्यों से बल प्रदान किया। उन्होंने अब से लाखों वर्ष पूर्व जिस परंपरा का श्रीगणेश किया उसे भारत ने बड़ी गहराई से अपना लिया। यही कारण रहा कि कालांतर में जब जब विदेशी आक्रमणकारी भारत में आए तो भारत के लोगों ने उनका श्री राम की शैली में ही प्रत्युत्तर दिया। भारत ने प्रत्येक विदेशी आक्रमणकारी को अपनी एकता अखंडता और संप्रभुता का शत्रु मानकर उसका प्रतिकार किया। जिससे भारत अपनी राष्ट्रीय एकता और अखंडता के साथ-साथ स्वाधीनता को बचाए रखने में सफल रहा।
पुस्तक प्रकाशन में डायमंड पॉकेट बुक्स के चेयरमैन श्री नरेंद्र वर्मा जी का विशेष सहयोग रहा है। जिन्होंने इसे यथाशीघ्र आपके कर कमलों पहुंचाने में अपनी उत्कृष्ट क्षमताओं का प्रदर्शन किया है। मैं उनका हृदय से आभार व्यक्त करता हूं और उन सभी दिव्य शक्तियों, सहयोगियों ,बड़ों और अपने सहकर्मियों का भी हृदय से आभार और धन्यवाद ज्ञापित करता हूं जिनके शुभाशीर्वाद ,सहयोग और प्रेम के चलते यह पुस्तक यथा समय आपके पास उपलब्ध हो सकी है।
अंत में ईश्वर की असीम अनुकंपा को सिर झुकाते हुए यह पुस्तक आप तक पहुंचाने में मुझे असीम प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है । आशा है आपको मेरा यह प्रयास सार्थक और समयानुकूल प्रतीत होगा। आपके आशीर्वाद की प्रतीक्षा में ….
भवदीय
डॉ राकेश कुमार आर्य
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(हमारी यह लेख माला मेरी पुस्तक “ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा : भगवान श्री राम” से ली गई है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा हाल ही में प्रकाशित की गई है। जिसका मूल्य ₹ 200 है । इसे आप सीधे हमसे या प्रकाशक महोदय से प्राप्त कर सकते हैं । प्रकाशक का नंबर 011 – 4071 2200 है ।इस पुस्तक के किसी भी अंश का उद्धरण बिना लेखक की अनुमति के लिया जाना दंडनीय अपराध है।)
- डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष : भारतीय इतिहास पुनर्लेखन समिति
मुख्य संपादक, उगता भारत