प्रमोद भार्गव
पाश्चात्य इतिहास लेखकों की स्वार्थपरक और कूटनीतिक विचारधारा से कदमताल मिलाकर चलने वाले कुछ भारतीय इतिहास लेखकों के चलते आज भी इतिहास की कुछ पुस्तकों और ज्यादातर पाठ्य-पुस्तकों में यह मान्यता चली आ रही है कि 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजी मान्यता के खिलाफ बर्बरतापूर्ण संघर्ष था। यह संग्राम तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत से अपदस्थ राजा-महाराजाओं,जमींदारों तथा कुछ विद्रोही सैनिकों तक सीमित था। जबकि इसी संग्राम को विद्रोह की संज्ञा देने वाले इतिहास लेखक यह निर्विवाद रूप से स्वीकारते हैं कि उस समय के शक्तिसंपन्न राज-घराने ग्वालियर,हैदराबाद,कश्मीर,पंजाब और नेपाल के नरेशों तथा भोपाल की बेगमों ने फिरंगी सत्ता की मदद नहीं की होती तो भारत 1857 में ही दासता की गुंजलक से मुक्त हो गया होता ? अंग्रेजी-सत्ता के लोह-कवच बनने वाले इन सामंतों को अंग्रेजों ने स्वामिभक्त कहकर दुलारा भी था।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के महानायक तात्या टोपे के बलिदान दिवस 18 अप्रैल को प्रतिवर्ष शिवपुरी में दो दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े पत्रों एवं हथियारों की एक प्रदर्शनी भी लगाई जाती है। इन पत्रों को पढऩे से पता चलता है कि इस संग्राम से खास ही नहीं आम आदमी भी जुड़ा हुआ था। मूल रूप में ये पत्र भोपाल में राजकीय अभिलेखागर में सुरक्षित हैं। दुर्लभ होने के कारण पत्रों की छाया प्रतियां ही प्रदर्शनी में लायी जाती हैं। सत्तर के दशक में इन पत्रों के संग्रह का प्रकाषन डॉ परशुराम शुक्ल ‘विरही‘ के सम्पदाकत्व में नगर पालिका परिषद्,शिवपुरी द्वारा प्रकाशित किया गया था,लेकिन अब इस शोधपरक दुर्लभ पुस्तक की प्रतियां उपलब्ध नहीं हैं।
‘1857 की क्रांति‘ शीर्षक से प्रकाशित इस किताब में इस संग्राम से संबंधित कुछ पत्र संग्रहीत हैं। ये पत्र महारानी लक्ष्मीबाई,रानी लड़ई दुलैया,राजा बखतवली सिंह,राजा मर्दनसिंह,राजा रतन सिंह और उस क्रांति के महान योद्धा,संगठक एवं अप्रतिम सेनानायक तात्या टोपे द्वारा लिखे गए हैं। इन पत्रों की भावना से यह स्पष्ट होता है कि प्रथम स्वंतत्रता संग्राम का विस्तार दूर-दराज के ग्रामीण अंचालों तक हो रहा था। स्वतंत्रता की इच्छा से आम व्यकित क्रांति के इस महायज्ञ में अपने अस्तित्व की समिधा डालने को त्तपर हो रहे थे।
किताब की भूमिका के अनुसार,1857 के स्वतंत्रता-संग्राम से संबंधित इन पत्रों की प्राप्ति का इतिहास भी रोचक है। आजादी की पहली लड़ाई जब चरमोत्कर्ष पर थी,तब तात्या टोपे अपनी फौज के साथ ओरछा रियासत के गांव आश्ठौन में थे। अंग्रेजों को यह खबर लग गई और अंग्रेजी फौज ने यकायक तात्या टोपे के डेरे पर हमला बोल दिया। उस समय तात्या मोर्चा लेने की स्थिति में नहीं थे। लिहाजा,ऊहापोह की स्थिति में तात्या अपना कुछ बहुमूल्य सामान यथास्थान छोड़ नौ दो ग्यारह हो गए।
उस दौरान ओरछा के दीवान नत्थे खां थे। तात्या द्वारा जल्दबाजी में छोड़े गए सामान की पोटली नत्थे खां के विश्वनीय सिपाही ने उन्हें लाकर दी। इस सामान में एक बस्ता था। जिसमें जरूरी कागजात और चि_ी पत्री थीं। इसी सामान में एक तलवार और एक उच्च कोटी की गुप्ती भी थी। नत्थे खां के यहां कोई पुत्र नहीं था,इसीलिए यह धरोहर उनके दामाद को मिली। दामाद के यहां भी कोई संतान न थी,लिहाजा तात्या के सामान के वारिस उनके दामाद अब्दुल मजीद फौजदार बने,जो टीकमगढ़ के निवासी थे।
स्वतंत्र भारत में 1976 में टीकमगढ़ के राजा नरेंद्र सिंह जूदेव को इन पत्रों की खबर अब्दुल मजीद के पास होने की लगी। नरेंद्र सिंह उस समय मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री थे। उन्होंने इन पत्रों के ऐतिहासिक महत्व को समझते हुए तात्या की धरोहर को राष्ट्रीय धरोहर बनाने की दिषा में उल्लेखनीय पहल की। इन पत्रों की वास्तविकता की पुष्टि इतिहासकार दत्तात्रेय वामन पोद्धार से भी करायी। पोद्धार ने पत्रों के मूल होने का सत्यापन करते हुए इन्हें ऐतिहासिक महत्व के दुर्लभ दस्तावेज निरुपित किया। झांसी के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार डॉ वृन्दावनलाल वर्मा ने भी इन्हें मुल-पत्र बताते हुए सुनिश्चित किया कि पत्रों के साथ मिला हुआ सामान,तलवार तथा गुप्ती भी तात्या के ही है। डॉ वर्मा ने यह भी तय किया कि जिस स्थान और जिस कालखंड में इस साम्रगी का उपलब्ध होना बताया जा रहा है,उस समय वहां तात्या के अलावा अन्य किसी सेनानायक ने पड़ाव नहीं डाला था।
तात्या के बस्ते से कुल 225 पत्र प्राप्त हुए थे,जो देवनागरी एवं फारसी लिपी में थे। हिंदी पत्रों की भाषा ठेठ बुंदेली है। इन पत्रों में 125 हिंदी में और 130 उर्दु में लिखे गए हैं। तात्या की तलवार और गुप्ती भी अनूठी है। तलवार सुनहरी नक्काषी में मूठ वाली है,जो मोती बंदर किस्म की बतायी गई है। इस तलवार की म्यान पर दो कुंदों में चार अंगुल लंबे बाण के अग्रभग जैसे पैने हथियार हैं। इन हथियारों पर हाथी दांत की बनी षेर के मुंह की आकृतियां जड़ी हुई हैं। इसी तरह जो गुप्ती प्राप्त हुई है वह विचित्र है। गुप्ती की मूठ सोने की है। इसके सिरे पर एक चूड़ीदार डिबिया लगी हुई है,जिसमें इत्र-फुलेल रखने की व्यवस्था है। तात्या की यह अमूल्य धरोहर अब राजकीय अभिलेखागार भोपाल का गौरव बढ़ा रही है।
पत्रों को पढऩे से पता चलता है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम किस गहराई से आम जनता का संग्राम बनता जा रहा था और आदमी किस दीवानेपन में राष्ट्र की बलिवेदी पर आत्मोत्सर्ग के संस्कारों में ढल रहा था। समर के इस अछूते अध्याय की बानगी इन पत्रों में टृश्टव्य है-
तात्या टोपे के नाम लिखे पत्र में राजा बखतवली लिखते हैं,‘एजेंट हैम्लिटन ने गोरी फौज को लेकर राहतगढ़ पर आक्रमण किया है। खुरई,बानपुर की हुई लड़ाई में मानपुर के करीब 700 और अंग्रेजों के करीब 500 सैनिक मारे गए। अंग्रेजों ने बलपूर्वक पन्ना,बिजावर,टेहरी,चरखारी और छतरपुर के राजाओं को अपनी ओर मिला लिया है। अंगे्रज फौज से मुकाबला करने के लिए सहायता भेजी गई।‘ तात्या के नाम लिखे अन्य पत्र में महाराजा रतनसिंह लिखते हैं, ‘हमने तीन लाख रुपया जमा करा दिया है,मगर हमसे कौलनामा किसी पंडित को भेजकर लिखा लिया जाए। हमारी इज्जत रखी जाए। अब हम फौज सहित कूच करते हैं। हमारी ओर से किसी बात पर तकरार नहीं होगी‘।
तात्या के नाम लिखे पत्र में श्रीराम शुक्ल और गंगाराम लिखते हैं ‘सिरौली के घाट पर अंग्रेज कैप्टन और नवाब बांदा की भीड़ रोकने के लिए सेना की सहायता एवं तोप चाहिए। चांदपुर के थानेदार भी दो सौ बंदूक लेकर हमारे साथ हैं।‘ एक अन्य पत्र में मनीराम और गंगाराम ने तात्या को लिखा है, ‘सिरौली, चुखरा, भांैरा, चांदपुर और गाजीपुर के जींदार अंग्रेजों से मोर्चा लेने को तैयार हैं। अंग्रेजों द्वारा गोली चलाने पर वे धावा बोलेंगे। गोरी पलटन को कालपी न पहुंचने देने के लिए कम्पू का बंदोबस्त भी किया जाए।