आखिर क्या है प्राचीन अरब में हिन्दू संस्कृति का इतिहास ?*

अखण्ड सनातन समिति🚩🇮🇳


१२०० वर्षीय विदेशी शासन काल में भारतीय इतिहास न केवल बुरी तरह विकृत कर दिया गया है, अपितु इसे पंगु भी बना दिया गया है। भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक और सैनिक दिग्विजयों के अनेक महत्वपूर्ण अध्याय पूर्ण रूप से विलुप्त एवं विस्मृत हो चुके हैं। भारतीय पुराणों में दिग्विजयों के संदर्भों को पवित्र कल्पनाएं मानकर उपेक्षित नही करना चाहिये, वे सब सत्य हैं क्योंकि कुछ साक्ष्य आज भी उपलब्ध हैं कि सम्पूर्ण पश्चिमी एशिया के साथ-साथ अरब, इराक और ईरान भी किसी समय हिन्दू धर्म के अनुयायी थे।

प्राचीन ग्रंथावली “सेअरुल-ओकुल” के २५७वे पृष्ठ पर एक महत्वपूर्ण कविता है। इसका रचियता “लबी बिन-ए अख्तब बिन-ए तुरफ़ा” है। वह पैगम्बर मोहम्मद से लगभग २३०० वर्ष पूर्व हुआ था। इतने समय पूर्व भी अर्थात लगभग १८०० ई. पू. भी लबी ने वेदों की अनन्य, काव्यमय प्रशंसा की है तथा प्रत्येक वेद का अलग-अलग नामोच्चार भी किया है।

वेदों की प्रशंसा में कही गयी कविता अरबी भाषा में कुछ इस प्रकार से है…

अया मुबारेकल अरज युशैये नोहा मिनार हिन्दे।
व अरादकल्लाह मंयोनज्जेल जिकरतुन।। १।।

वहलत जल्लीयतुन ऐनाने सहबी अरबे यतुन जिकरा।
वहाजेही योनज्जेलुर्रसुल मिनल हिन्तुन।। २।।

यकूलूनल्लाह या अहलल अरज आलमीन कुल्लहुम।
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालम योनज्जेलतुन।।३।।

वहोवा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहे तनजीलन।
फए नोमा या अरवीयों मुत्तवेअन योबसौरीयोन जातुन।।४।।

वईसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का-अ-खुवातुन।
ब असनात अलाऊढ़न व होवा मश-ए-रतुन।।५।।

ऊपर लिखित कविता का अर्थ निम्न प्रकार है एवं इसका सार नई दिल्ली में मंदिर मार्ग पर बने लक्ष्मीनारायण मंदिर (बिड़ला मंदिर) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर के खंभे पर काली स्याही से लिखा गया है।

(१) हे भारत की पुण्य भूमि! तू धन्य है क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना है।

(२) वह ईश्वर का ज्ञान-प्रकाश, जो चार प्रकाश स्तम्भों (चार वेद) के सदृश सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है, यह भारतवर्ष में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुए।

(३) और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद, जो मेरे ज्ञान हैं, इनके अनुसार आचरण करो।

(४) वह ज्ञान के भंडार साम और यजुर हैं, जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए, हे मेरे भाइयों! मानो क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते हैं।

(५) और दो उनमें से रिक व अतर (ऋग्वेद और अर्थववेद) हैं, जो हमको भातृत्व की शिक्षा देते हैं, और जो इनके शरण में आ गया, वह कभी अंधकार को प्राप्त नही होगा।

उपरलिखित अरबी कविता इस्लाम पूर्व समय के अरेबिया में सर्वोत्तम पुरुस्कार विजेता और मूल्यवान थी। यह कविता काबा देवालय के भीतर स्वर्ण अक्षरों में उत्कीर्ण होकर टंगी थी। उस देवालय के चारो ओर वर्तमान विखंडित स्मारक मंदिर था, जिसमें ३७० हिन्दू देवगणों की मूर्तियां थी। इस कविता में स्पष्ट रूप से दर्शाया गया है कि अरब लोगो के हृदय में भारत और वेद के प्रति और उसी के फलस्वरूप संस्कृत भाषा तथा भारतीय संस्कृति के प्रति अनन्य, अगाध श्रद्धा इस्लाम पूर्व काल में विधमान थी।

प्राचीन अरबवासी वैदिक परंपरा का अनुसरण करते थे। सम्पूर्ण अरेबिया में हिन्दू पूजा की विद्यमानता मख-मेदिनी के संस्कृतनामों से और भी पुष्ट होती है। आज जिन्हें मक्का-मदीना कहा जाता है, वह स्थान कभी मख (यज्ञाग्नि) और मेदिनी (भूमि) अर्थात यज्ञ की भूमि के नाम से जाना जाता था। स्वयं पैगम्बर मोहम्मद कुरु परिवार से थे और ३७० हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं को संग्रह करने वाले काबा देवालय के वंशानुवंश पुरोहित थे। ईरान और इराक, ये दोनों शब्द “जल” के द्योतक संस्कृत के “इर” शब्द से व्युत्त्पन्न हैं। संस्कृत भाषा में “ईरानम” शब्द का अर्थ लवणयुक्त, निर्जन-शुष्क प्रदेश है।

अठारह सौ ई.पू. एक अरबी-कवि द्वारा रचित वेदों के नामोल्लेखवाली कविता, क्या वेदों की प्राचीनता उनकी श्रेष्ठता व हिंदुओं के अंतरराष्ट्रीय प्रसार को सिद्ध नहीं करती..??
क्या यह कविता उन तथाकथित इतिहासकारों के मुँह पर तमाचा नहीं लगाती, जो वेदों को १५००-१२०० ई.पू. के अत्यंत संकुचित दायरे में ठूँसते रहे हैं..?? इस विषय पर निष्पक्षतापूर्वक शोधाध्ययन की आवश्यकता है। उक्त तथ्य के आलोक में यह धारणा भी निर्मूल सिद्ध हो जाती है कि अरब लोग अपरिचितों की भाँति यदा-कदा भारत आते रहे, यहाँ की पुस्तकों का अनुवाद करते रहे और यहाँ की कला एवं विज्ञान के कुछ रूपों को अनायास ही धारण करके उन्हें अपने देशों में प्रचलित करते रहे। बहुविध ज्ञान यदा-कदा यात्रा करने वालों को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकता। पांडित्य के लिए गम्भीर अध्ययन, निष्ठापूर्वक प्रयत्नों तथा ध्यानपूर्वक बनाई गई योजना की आवश्यकता होती है।

सन्दर्भ श्रोत : पी एन ओक (शोध पत्र)

साभार -सचिन त्यागी
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