प्रधानमंत्री का यह कहना भी सही है कि संयुक्त अरब अमीरात में पुन: आने में भारत के प्रधानमंत्री को 34 वर्ष लग गये हैं। जबकि भारत से सबसे अधिक उड़ानें इसी क्षेत्र के लिए होती हैं। विश्व के इतने प्रमुख क्षेत्र को 34 वर्ष तक छोड़े रखना या उसमें अपने कदम ही न रखना वास्तव में ही भारत सरकार की उपेक्षा वृत्ति को दर्शाता है।
प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान यह भी तय हो गया है कि यूएई भारत में साढ़े चार लाख करोड़ का निवेश करेगा। वहां की सरकार हिंदुओं के लिए एक विशाल मंदिर बनवाने पर भी सहमत हो गयी है, इसे निश्चित ही भारत के लिए एक अच्छी खबर माना जा सकता है।
आज के परिपे्रक्ष्य में यह सच है कि आप विश्व में अकेले नही चल सकते, और यह भी कि किसी देश विदेश के साथ संबंध बनाकर केवल उन्हीं पर निर्भर होकर भी नही रह सकते।
आपको अपने हाथ खोलने पड़ेंगे और मित्रों को निरंतर खोजते रहना पड़ेगा। जब संपूर्ण विश्व एक ग्राम में परिवर्तित हो गया हो, तब किसी भी प्रकार की संकीर्णता मार्ग को कंटकाकीर्ण ही बनाएगी। इसलिए संकीर्णताओं और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर हमें सोचना पड़ेगा। छोटी हो गयी दुनिया में सोच बड़ी करनी पड़ेगी। वैसे भी जब विश्व का साम्प्रदायिकता (इस्लाम और ईसाइयत) के आधार पर तेजी से धु्रवीकरण हो रहा हो, तब हमें अपने मित्रों की खोज तो करनी ही पड़ेगी। विश्व माने या न माने पर यह सच है कि आतंकवाद के रूप में संपूर्ण संसार इस समय एक ‘अघोषित विश्वयुद्घ’ से जूझ रहा है। जिसमें बड़ी तेजी से समीकरण बदल रहे हैं। अमेरिका आतंकवाद से एक ‘मुखिया’ के रूप में जूझ अवश्य रहा है, परंतु इस समय उसकी लड़ते-लड़ते सांस फूल रही है। इतने लंबे संघर्ष की परिकल्पना उसने भी नही की थी कि आतंकवाद उसे इतनी देर तक दुखी करेगा। वह अपनी शक्ति के मद में आतंकवाद से भिड़ गया था। अमेरिका को कुछ देर पश्चात पता चला कि वह आतंकवाद की छाया पर ही गोलाबारी कर रहा था और उसी में उसने अपनी बहुत सी ऊर्जा का अपव्यय कर लिया है। आतंकवाद को पकडक़र उसकी धुनाई करने में अमेरिका असफल रहा है।
माना जा सकता है कि अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को समाप्त कर दिया। पर यह कम आश्चर्य की बात नही है कि अमेरिका ने भी लादेन के मारे जाने पर उतनी खुशी नही मनाई जितनी मनायी जानी चाहिए थी। क्योंकि अमेरिका को तब तक पता चल गया था कि यह भी ‘लादेन की छाया’ ही मरी है, उसका वास्तविक रूप तो विश्व में अनेकानेक लादेनों को पैदा कर चुका है। जितनी ऊर्जा अमेरिका लादेन को समाप्त करने में लगा रहा था उतनी से अत्यंत कम ऊर्जा में लादेन ने अपने उत्तराधिकारी उत्पन्न कर दिये। आज अमेरिका हृदय से अपने मित्र खोज रहा है कि कोई मिले जो इस अंतहीन क्रम से उसे उबारे।
अब यदि ऐसे में भारत आई.एस. का निशाना बनता है, तो उस समय भारत की स्थिति क्या होगी? भारत के साथ उतनी दुनिया भी खड़ी नही होगी जितनी इस युद्घ में अमेरिका के साथ खड़ी थी या खड़ी रही है। भारत को अमेरिका उस समय आतंकवाद से लडऩे वाला ‘मुखिया’ घोषित कर सकता है। कहने का अभिप्राय है कि अमेरिका अपनी चादर को भारत पर फेंककर दूर खड़ा हो सकता है।
तब भारत अनिच्छा से आतंकवाद के विरूद्घ विश्वव्यापी अभियान का नेता बन जाएगा, अमेरिका आदि देश भारत को पीछे से सहायता कर सकते हैं, पर सामने नही आएंगे। क्योंकि अमेरिका आतंकवाद के विरूद्घ चल रही अपनी लड़ाई से अब अपना ‘पिण्ड छुड़ाना’ चाहता है। उसे यदि भारत एक नेता के रूप में मिल जाए तो उसकी ‘बल्ले बल्ले’ हो जाए। इसलिए अमेरिका से भी हमें यह अपेक्षा नही करनी चाहिए कि वह भारत में आतंकवाद के विरूद्घ है। आईएस यदि भारत में आकर अपना काम करती है तो इससे अमेरिका को प्रसन्नता ही होगी। इससे अमेरिका को दो लाभ होंगे-एक तो आईएस के रूप में छद्म आतंकवाद का वास्तविक स्वरूप भारत में दिखायी देने लगेगा। दूसरे तीसरे विश्वयुद्घ का क्षेत्र एशिया अपने आप बन जाएगा। परिणामस्वरूप अमेरिका पंच की भूमिका में आ जाएगा।
ऐसे में यू.ए.ई. जैसा देश भारत के साथ दिखाई देना आवश्यक है। उसका भारत में विशाल पूंजी निवेश उसे भारत के साथ खड़ा रहने पर विवश करेगा। सारे देश को मोदी के बढ़ते कदम और दूरदृष्टि वाली सोच की प्रशंसा करनी चाहिए। उन्हें अपने पांवों के नीचे की रेत तो दिखाई दे ही रही है साथ ही लंबे सफर में बिछी बारूदी सुरंगें भी दिख रही हैं। नेता ऐसा ही होना चाहिए।
मुख्य संपादक, उगता भारत