पितर, श्राद्ध और तर्पण के सत्य वैदिक स्वरूप
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अनुसार,
“श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा,
श्रध्दया यत्क्रियते तच्छ्राध्दम् |”
अर्थात जिससे सत्य को ग्रहण किया जाये उसको ‘श्रद्धा’ और जो-जो श्रद्धा से सेवारूप कर्म किये जाए उनका नाम श्राद्ध है ।
“तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितृन् तत्तर्पणम् |”
अर्थात जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान मातादि पितर प्रसन्न किये जायें, उसका नाम तर्पण है ।
उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि श्रध्दा से सेवाकर पितरों को तृप्त करना ही श्राद्ध और तर्पण कहलाता है |
जिसकी सेवा द्वारा श्राध्द और तर्पण किया जा सके, उसे पितर कहते हैं |
महर्षि मनु के अनुसार,
“जनकश्चोपनेता च यश्च विद्यां प्रयच्छति ।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चेते पितरः स्मृतः ।।
अर्थात पितर पाँच है…
(१) जन्म देने वाले ‘माता-पिता’ ।
(२) उपनयन की दीक्षा देने वाला ‘आचार्य’ ।
(३) विद्या पढ़ाने वाला ‘गुरू’ ।
(४) अन्न देने वाला ।
(५) रक्षा करने वाला ।
यदि थोड़ी सी बुद्धि लगाए तो ये पाँचों ही ‘जीवित पितर’ है न कि मृतक ।
अतः श्रद्धा से उपर्युक्त आये पाँचो यथा माता पिता, आचार्य आदि जीवित जनों की प्रति दिन सेवा करना ही श्राद्ध कहलाता है ।
तथा वो सेवा ऐसी हो जिससे ये जीवित पितर तृप्त अर्थात् संतुष्ट हो जाये इसी का नाम तर्पण है ।
जब तक माता पिता जीवित रहते हैं, तब तक तो सन्तान प्रायः उनकी उपेक्षा करता है । सेवा आदि की बात तो दूर उनको जल और भोजन भी समय पर नहीं दिया जाता । गुरूओं के साथ भी विद्यार्थी प्रायः अभद्र व्यवहार ही करते हैं ।
और मृतक श्राद्ध को करना अपने कर्त्तव्य की मूर्ति मान रहे हैं । यही कारण है कि वर्तमान में प्रत्येक गृहस्थी दुःखी है ।
अतः मृतक श्राद्ध रूपी पाखण्ड का त्याग करो और जीवित माता पिता आचार्य आदि की सेवा करो यही सच्चा और श्राद्ध का वैदिक स्वरूप है ।