वैश्विक बीमारी से तो बच गए लेकिन महंगाई से कैसे बचें

डॉ. वेदप्रताप वैदिक

दुकानदार हाथ मल रहे हैं कि उनके फल अब बहुत कम बिकते हैं और पड़े-पड़े सड़ जाते हैं। लोगों ने सब्जियाँ और फल खाना कम कर दिया लेकिन दालों के भाव भी दमघोटू हो गए हैं। आम आदमी की जिंदगी पहले ही दूभर थी लेकिन कोरोना ने उसे और दर्दनाक बना दिया है।

देश में कोरोना की महामारी घटी तो अब महंगाई की महामारी से लोगों को जूझना पड़ रहा है। कोरोना घटा तो लोग घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर बाहर जाना चाहते हैं लेकिन जाएं कैसे ? पेट्रोल के दाम 100 रु. लीटर और डीजल के 90 रु. को पार कर गए। कार-मालिकों को सोचना पड़ रहा है कि क्या करें ? कार बेच दें और बसों, मेट्रो या आटो रिक्शा से जाया करें लेकिन उनके किराए भी कूद-कूदकर आगे बढ़ते जा रहे हैं। पेट्रोल और डीजल की सीधी मार सिर्फ मध्यम वर्ग पर ही नहीं पड़ रही है, गरीब वर्ग भी परेशान है। तेल की कीमत बढ़ी तो खाने-पीने की रोजमर्रा की चीजों के दाम भी आसमान छूने लगे हैं। सब्जियां तो फलों के दाम बिक रही हैं और फल ग्राहकों की पहुंच के बाहर हो रहे हैं।

दुकानदार हाथ मल रहे हैं कि उनके फल अब बहुत कम बिकते हैं और पड़े-पड़े सड़ जाते हैं। लोगों ने सब्जियाँ और फल खाना कम कर दिया लेकिन दालों के भाव भी दमघोटू हो गए हैं। आम आदमी की जिंदगी पहले ही दूभर थी लेकिन कोरोना ने उसे और दर्दनाक बना दिया है। सरकारी नौकरों, सांसदों और मंत्रियों के वेतन चाहे ज्यों के त्यों रहे हों लेकिन गैर-सरकारी कर्मचारियों, मजदूरों, घरेलू नौकरों की आमदनी तो लगभग आधी हो गई। उनके मालिकों ने कोरोना-काल में हाथ खड़े कर दिए। वे ही नहीं, इस आफतकाल में पत्रकारों-जैसे समर्थ लोगों की भी बड़ी दुर्दशा हो गई। कई छोटे-मोटे अखबार तो बंद ही हो गए। जो चल रहे हैं, उन्होंने अपने पत्रकारों का वेतन आधा कर दिया और दर्जनों पत्रकारों को विदा ही कर दिया। जो सेवा-निवृत्त पत्रकार लेख लिखकर अपना खर्च चलाते हैं, उन्हें कई अखबारों ने पारिश्रमिक भेजना ही बंद कर दिया।

बेचारे दर्जियों और धोबियों की भी शामत आ गई। जब लोग अपने घरों में घिरे रहे तो उन्हें धोबी से कपड़े धुलाने और दर्जी से नए कपड़े सिलाने की जरूरत ही कहां रह गई? भवन-निर्माण का धंधा ठप्प होने के कारण लाखों मजदूर अपने गांवों में ही जाकर पड़े रहे। यही हाल ड्राइवरों का हुआ। बस मौज किसी की रही तो डॉक्टरों और अस्पताल मालिकों की रही। उन्होंने नोटों की बरसात झेली और मालामाल हो गए लेकिन वे डॉक्टर, वे नर्सें और वे कर्मचारी हमेशा श्रद्धा के पात्र बने रहेंगे, जिन्होंने इस महामारी के दौरान मरीजों की लगन से सेवा की और उनमें से कइयों ने अपनी जान की भी परवाह भी नहीं की। वे मनुष्य के रूप में देवता थे। लेकिन यह न भूलें कि महंगाई के इस युग में लाखों ऐसे मरीज भी रहे, जिन्हें ठीक से दवा भी नसीब नहीं हुई। हजारों की जान इलाज के अभाव में चली गई। केंद्र और राज्य सरकारों ने कोरोना को काबू करने का भरसक प्रयत्न किया है लेकिन यदि वह इस महंगाई पर काबू नहीं कर सकी तो ये मुनाफाखोर लोग उसे ले डूबेंगे। महंगाई की मार कोरोना की मार से ज्यादा खतरनाक सिद्ध होगी। कोरोना को तो भगवान का प्रकोप मानकर लोगों ने किसी तरह सह लिया लेकिन महंगाई का गुस्सा मुनाफाखोरों पर तो उतरेगा ही, जनता सरकार को भी नहीं बख्शेगी।

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