ओ३म्
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हम संसार में अनेक रचनायें देखते हैं। रचनायें दो प्रकार की होती हैं। एक पौरुषेय और दूसरी अपौरुषेय। पौरुषेय रचनायें वह होती हैं जिन्हें मनुष्य बना सकते हैं। हम भोजन में रोटी का सेवन करते हैं। यह रोटी आटे से बनती है। इसे मनुष्य अर्थात् स्त्री वा पुरुष बनाते हैं। मनुष्य द्वारा बनने से रोटी पौरुषेय रचना कहलाती है। रोटी में जो आटा प्रयोग होता है वह गेहूं, मक्की, बाजरा, ज्वार आदि का हो सकता है। हम गेहूं आदि से आटा तो बना सकते हैं परन्तु गेहूं को नहीं बना सकते। गेहूं, गेहूं के बीज से ही उत्पन्न होता है। उस बीज को किसान अपौरूषेय सत्ता (ईश्वर) द्वारा बनाई गई भूमि में बोता है। भूमि व खेत में खाद व पानी देता है तथा खेत की निराई व गुड़ाई करता है। ऐसा करने पर गेहूं की फसल तैयार होती है जिसमें उसके द्वारा बोये गये बीजों से कही अधिक मात्रा में गेहूं प्राप्त होता है। किसान नहीं जानता कि भूमि, बीज, जल, खाद, वायु व सूर्य की धूप से यह गेहूं व अन्य फसलें कैसे बन जाती है? किसान ने अपना काम किया और परमात्मा व उसके विधान अपना कार्य करते हैं। यह गेहूं पौरुषेय नहीं अपितु अपौरुषेय रचना है। अपौरुषेय रचना वह होती है जिसे मनुष्य नहीं कर सकता। हम सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, मनुष्य आदि प्राणी, वनस्पति व प्रकृति के अनेक पदार्थों को देखते हैं जिन्हें मनुष्य नहीं बना सकता। यह अपौरूषेय रचनायें हैं। इन्हें बनाने वाली सत्ता मनुष्य से भिन्न है जो चेतन एवं ज्ञानवान होने सहित सर्वदेशी व सर्वव्यापक भी है। उसे संसार की सभी अपौरूषेय रचनाओं का पूर्ण ज्ञान व बनाने व नष्ट करने का अनुभव है। इससे पूर्व भी अनादि काल से वह ऐसा करता आ रहा है। उसका ज्ञान नित्य है जो कभी न्यून व वृद्धि को प्राप्त नहीं होता है। उस अपौरुषेय सत्ता, जो सत्, चित्त व आनन्दस्वरुप है, उसी को ईश्वर कहते हैं। सर्वातिसूक्ष्म, निराकार व सर्वव्यापक होने के कारण से वह आंखों से दिखाई नहीं देती। हम आंखों से वायु के कणों व जल की वाष्प को भी नहीं देख पाते। कोई वस्तु बहुत दूर हो तो वह भी दिखाई नहीं देती। आकाश में सुदूर कोई पक्षी उड़ रहा हो या विमान बहुत अधिक ऊंचाई पर हो तो वह भी आंखों से दिखाई नहीं देता। दाल व रोटी में नमक मिला दिया जाये तो नमक के सूक्ष्म रूप में होने पर वह भी आंखों से दिखाई नहीं देता। इससे यह ज्ञात होता है कि सूक्ष्म, अत्यन्त निकट व अत्यन्त दूर की वस्तुयें हमें दिखाई नहीं देती हैं।
हम संसार में अनेक पौरुषेय रचनाओं को देखते हैं जैसे की पुस्तक, फर्नीचर, मकान, वस्त्र, घड़ी, टेलीफोन, कार, स्कूटर, कम्प्यूटर, रेलगाड़ी, विमान आदि। यह सभी मनुष्यों द्वारा बनाई गईं पौरुषेय रचनायें हैं। इसके साथ ही हम इस ब्रह्माण्ड में लोक लोकान्तर सहित सूर्य, चन्द्र व पृथिवी आदि को देखते हैं तथा फूलों व मनुष्य आदि प्राणियों को देखते हैं। इन सब विशेष रचनाओं को ज्ञान, बल आदि का प्रयोग कर रचा गया है। यह सब ईश्वर के द्वारा बनी रचनायें हैं। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश में सिद्धान्त दिया है कि रचना विशेष को देखकर रचयिता वा उसके कत्र्ता का ज्ञान होता है। रंग बिरंगे फूल बहुत मनमोहक व चित्ताकर्षक होते हैं। उनमें सुगन्ध भी होती है। सभी फूलों की सुगन्ध व उनका रंग, रूप एवं आंकृति भी भिन्न भिन्न होती है। मनुष्य के वश में नहीं की वह इन फूलों को बना सके। यह रचना विशेष है और इसे किसी गुण व ज्ञानवान् सत्ता द्वारा बनाया गया प्रतीत व अनुभव होता है। जहां रचना होती है वहां रचयिता की उपस्थिति भी अनिवार्य होती है। अतः रचना विशेष फूल को देखकर इसके रचयिता विशेष ईश्वर का ज्ञान हो जाता है। जो इस सिद्धान्त को नहीं मानते उनके पास यह सिद्ध करने के लिए कोई तर्क नहीं होते कि संसार में कोई एक बुद्धिपूर्वक रचना व पदार्थ भी बिना किसी चेतन रचनाकार के बनायें बिना बन सकते हैं। रचना विशेष का स्वमेव बन जाना एक असम्भव काल्पनिक सिद्धान्त है। अतः सभी बुद्धिपूर्वक रची गई अपौरूषेय रचनाओं का रचयिता सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर ही सिद्ध होता है। वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने से इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है।
गुण और गुणी के सिद्धान्त से भी हम ईश्वर का साक्षात कर सकते हैं अर्थात् उसे समझ व जान सकते हैं। हम जो भी पदार्थ देखते हैं उन पदार्थों में कुछ गुण निहित होते हैं। हम उन पदार्थों के द्वारा उस पदार्थ के गुणों का साक्षात् करते हैं उन गुणों के स्रोत गुणी का नहीं। यह गुणी जिसकी विद्यमानता से किसी पदार्थ में गुण प्रकाशित होते हैं वह ‘गुणी’ दृष्टिगोचर नहीं होता। विशेष रचनाओं का रचयिता जो गुणी होता है उसे ही परमेश्वर कहा जाता है। यह गुणी रचनाकार आंखों से दिखाई नहीं देता परन्तु वह पदार्थों में विद्यमान रहता है। उसके रचना विशेष आदि गुण तो प्रकाशित होते हैं परन्तु उन रचनाओं का रचयिता गुणी जिसके की वह गुण हैं, वह दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार संसार की सभी अपौरुषेय पदार्थ ईश्वर कृत रचनायें हैं और उनका रचयिता ईश्वर है। इन अपौरुषेय रचनाओं से ईश्वर का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।
ईश्वर की संसार में विद्यमानता मनुष्य के सुख व दुःखों को देखकर भी होती है। कोई मनुष्य नहीं चाहता कि वह दुःखी हो। सभी मनुष्य सुख चाहते हैं। इस पर भी कुछ मनुष्य सुखी और कुछ दुःखी देखे जाते हैं। इस दुःख का कारण क्या है? कौन हमें यह कायिक व मानसिक दुःख देता है? सुख व दुःख देने वाली सत्ता चेतन व व्यापक ही हो सकती है। इसका कारण जानने पर हमारे कर्म ही हमारे सुख व दुःखों का कारण विदित होते हैं। यह सारा संसार व इसकी सारी व्यवस्था परमात्मा के वश में है। वही हमारे कर्मों के अनुसार हमें सुख व दुःख देता है व उनका भोग कराता है। दुःख का कारण हमारे पाप व अशुभ कर्म होते हैं। यदि हम दुःख प्राप्त करना नहीं चाहते तो हमें अपने जीवन में अशुभ व पाप कर्मों से दूर रहना होगा। यह सुख व दुःख क्या अज्ञानी और ज्ञानी सभी को प्राप्त होते हैं। अज्ञानी दुःख आने पर विचलित हो जाता है, रोता व चिल्लाता है, विलाप करता है, माता, पिता व ईश्वर को याद करता है और ज्ञानी दुःखों को अपने अतीत व पूर्वजन्म के कर्मों का फल मानकर धैर्यपूर्वक सहन करते हैं। मन में ईश्वर के मुख्य नाम ओ३म् व गायत्री मन्त्र आदि का जप करता है। इससे दुःख सहन करने में ईश्वर से शक्ति प्राप्त होती है और कर्म भोग पूरा व समाप्त होने पर वह दुःख समाप्त हो जाता है।
अतः अनेक प्रकार से ईश्वर का होना सिद्ध होता है। वेद भी ईश्वर का ज्ञान कराते हैं। वेदों में जो ज्ञान है वह ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है। वेदों का ज्ञान निश्चयात्मक ज्ञान है। सृष्टि के आरम्भ में यदि ईश्वर न होता तो भाषा का आविष्कार वा उपलब्धि भी कभी न होती। सृष्टि के आरम्भ में संस्कृत जैसी उत्कृष्ट भाषा व ईश्वर, जीव व प्रकृति का यथार्थ व निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त होना ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है। हमें वेदाध्ययन कर ईश्वर व आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर वेदविहित कर्म ईश्वरोपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र, माता-पिता-आचार्यों व अतिथियों की सेवा, परोपकार व दान आदि सहित देश व समाज की उन्नति हेतु अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड आदि के खण्डन एवं कुरीतियों को दूर करके अपने जीवन को सुखी व कल्याणप्रद बनाना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य