इलाहाबाद उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय
18 अगस्त 2015 का दिन भारत के इतिहास के लिए एक स्मरणीय दिवस बन गया है। इस दिन न्यायपालिका के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ते हुए देश में जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपना आदेश देते हुए कहा है कि जनप्रतिनिधियों, नौकरशाहों और अन्य उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों, न्यायाधीशों के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ें। न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि जब तक ऐसा नही होगा तब तक सरकारी स्कूलों की दशा नही सुधरेगी। न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने यह आदेश शिवकुमार पाठक व कई अन्य लोगों की याचिकाओं को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए दिया है।
अपने आदेश में माननीय उच्च न्यायालय ने छह माह के भीतर मुख्य सचिव को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया है कि सरकारी, अद्र्घ सरकारी सेवकों, स्थानीय निकायों के जनप्रतिनिधियों न्यायपालिका एवं सरकारी खजाने से वेतन मानदेय या धन प्राप्त करने वाले लोगों के बच्चे अनिवार्य रूप से बेसिक शिक्षा परिषद के द्वारा संचालित विद्यालयों में ही अपनी शिक्षा प्राप्त करें।
इस आदेश का पालन करने में आनाकानी करने वालों के विरूद्घ दण्डात्मक कार्यवाही किये जाने की बात भी कही गयी है। यदि कोई इसके उपरांत भी अपने बच्चों को कान्वेंट स्कूलों में भेजे तो उस स्कूल में दी जाने वाली फीस के बराबर धनराशि उसके द्वारा सरकारी खजाने में प्रतिमाह जमा कराई जाए। ऐसे लोगों की प्रोन्नति तथा वेतन वृद्घि कुछ समय के लिए रोक दी जाए। कोर्ट ने यह आदेश उत्तर प्रदेश सरकार को अगले शिक्षा सत्र से लागू करने को कहा है।
हमारा मानना है कि इस आदेश को आने से शिक्षा की दयनीय होती जा रही स्थिति में अवश्य ही सुधार होगा। हमारे देश के उच्चाधिकारियों, जनप्रतिनिधियों तथा राजनीतिक पार्टियों के उच्च पदस्थ लोगों ने शिक्षा का अपहरण कर लिया है। देश में एक शिक्षा ‘इंडिया’ के बच्चों को दी जा रही है तो एक शिक्षा ‘भारत’ के बच्चों को दी जा रही है। ‘इंडिया’ के बच्चे ‘भारत’ पर वर्चस्व स्थापित किये रखें तथा भारत को अपने लिए उसी प्रकार भोगने, लूटने और मौजमस्ती करने के लिए प्रयोग करें जिस प्रकार इस देश में कान्वेंट स्कूली शिक्षा के जनक अंग्रेज किया करते थे, यह सारी व्यवस्था इस शिक्षा प्रणाली ने कर रखी है। इस शिक्षा प्रणाली के चलते देश में बड़ी तेजी से गरीब-अमीर के बीच की खाई बढ़ी है, सामाजिक रूप से लोगों के मध्य छुआछूत, ऊंच-नीच आदि बढ़े हैं और एक ऐसा दम्भी और अहंकारी वर्ग देश में तैयार हो गया है जो भारत में रहकर ही भारत के लोगों से घृणा करता है।
यदि इस शिक्षा को ‘शिक्षा सभी के लिए तथा सब के लिए शिक्षा’ के स्तर पर ले आयें और इस देश में पुन: ‘कृष्ण और सुदामा’ एक साथ एक विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने लगें तो आज समाज में व्यक्ति-व्यक्ति के प्रति जिस प्रकार असंवेदनशील तथा अमानवीय होता जा रहा है उसकी उस दुश्प्रवृत्ति पर रोक लगायी जा सकती है।
शिक्षा में समानता इसलिए भी आवश्यक है कि ऐसा करने से हमारे विद्यालयों में अधिक से अधिक सरकारी अध्यापक रखने की आवश्यकता पड़ेगी, जिससे प्रदेश के हजारों-लाखों युवकों को रोजगार मिलेगा। क्योंकि प्रदेश में वर्तमान चालीस हजार प्राथमिक विद्यालय प्रदेश की जनसंख्या के आधार पर आवश्यक और अपेक्षित विद्यालयों के मुकाबले चौथाई भी नही हैं। यदि कान्वेंट स्कूलों को बंद करा दिया जाए तो ज्ञात होगा कि प्रदेश में एकदम कितने स्कूलों की आवश्यकता आन पड़ी है? उससेे प्रदेश के उन लाखों युवकों को रोजगार की गारंटी मिलेगी जो बेचारे अपनी बीएड की डिग्री को अब ‘चाट पकोड़े रखकर खाने’ में प्रयोग आने वाले कागज से अधिक कुछ न समझने की स्थिति में आ चुके हैं। ये डिग्रियां फर्जी कागजात सिद्घ हो चुकी हैं। जिससे एक गरीब का लडक़ा या लडक़ी जब इन्हें प्राप्त करके विद्यालय से बाहर आकर समाज के ‘सच’ का सामना करता है तो उसे पता चलता है कि उसे रोजगार का झांसा देकर बेरोजगारी परोस दी गयी है। इस आपराधिक कृत्य में प्रदेश की सरकारें, प्रदेश की नौकरशाही और प्रदेश में कुकुरमुत्तों की भांति पनप रहा शिक्षा माफियाओं का हाथ रहता है। ये सारे मिलकर भारत की हत्या कर रहे हैं और प्रदेश के गरीब बाप के बेटे-बेटियों को किधर का भी नही छोड़ रहे।
हमारा प्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय अखिलेश यादव से अनुरोध है कि वे लैपटॉप बांटने की बजाए प्रदेश में नौकरी बांटें। बेरोजगारी भत्ता भी एक चुनावी स्टंट था, वह भी युवाओं के भीतर आत्मविश्वास पैदा नही कर पाया है, उससे भी उन्हें राहत नही मिली है। इसके विपरीत उन्हें लगा है कि बेरोजगारी उनके साथ सदा के लिए लगा दी गयी है। युवा को आत्महीनता के इस विनाशकारी भाव से मुक्ति दिलाकर प्रदेश के प्रत्येक ऐसे गांव में कम से कम दो प्राथमिक पाठशालाएं स्थापित कराने की व्यवस्था हो जिसकी आबादी एक हजार की हो।
अनिवार्य शिक्षा, सबके लिए शिक्षा और समान शिक्षा शासन की नीतियों का आधार होना चाहिए। प्रदेश के मुख्यमंत्री एक समाजवादी पिता के पुत्र हैं उन्हें समाजवादी ओर समतावादी बुद्घि का ज्ञान अपने संस्कारों में मिला है। इसलिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि वह माननीय न्यायालय के आदेश की गरिमा, प्रदेश के युवाओं की भावना और समाज में बढ़ रही विषमता और छुआछूत, ऊंच-नीच की भावना से जन्मे समाज के दर्द को समझें, उनके पास अभी समय है, उचित निर्णय लेने का। पर 2017 अब दूर नही है।
मुख्य संपादक, उगता भारत