प्रस्तुति : श्रीनिवास आर्य
तूने तो ऐसे निर्दोष योद्घाओं को रात की वेला में उस समय मार डाला जब वे सर्वथा निश्चिंत होकर सोये थे। उनकी हत्या करके तूने कौन सी वीरता दिखाई़ निद्रा में अचेत पांचाली के सुकुमार बालक तो शव की भांति निश्चल पड़े थे। पांचाली के उन पुत्रों की निर्ममतापूर्वक हत्या करवा के तूने घोर अपराध किया है। यदुवंशी तुझ जैसे नृशंस हत्यारे को कभी क्षमा नही कर सकते।
उस समय रूक्मिणीनंदन अतिरथी प्रद्युम्न भी मदिरा के आवेश में थे। वह कृतवर्मा की भत्र्सना करते सात्यकि की सराहना करने लगे।
कृतवर्मा स्वयं भी मदिरा पीकर आवेश में अपनी सुधबुध खो बैठा था। उसने सात्यकि की ओर बाएं हाथ की अंगुली उठाकर उनका तिरस्कार करते हुए कहा अरे तू तो इतना बड़ा वीर बनता है लेकिन तुझे क्या याद नही कि युद्घ में जब महाबली कौरव योद्घा भूरिश्रवा की बांह कट गयी थी और वे मरणांतक उपवास करने का निश्चय करके निश्चेष्ट होकर पृथ्वी पर बैठ गये थे उस समय तूने आततायी की भांति नृशंसता पूर्वक उनकी हत्या कर दी थी।
युद्घभूमि में भूरिश्रवा ने सहसा ही सात्यकि को अपनी बांहों में जकड़ लिया था और उनको बलिपशु की भांति घसीटते हुए ले जाने लगे थे, तब अर्जुन ने ही शर संधान करके भूरिश्रवा की बांह काटकर सात्यकि की प्राणरक्षा की थी और उसी समय भूरिश्रवा ने शस्त्र त्यागकर अनशन द्वारा प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया था।
कृतवर्मा की बात सुनकर कृष्ण ने रोषपूर्वक उसकी ओर देखा।
उसी समय सात्यकि ने कृष्ण को बताया कि इस नीच दुरामा कृतवर्मा ने ही स्यमंतक मणि के लालच से अपने भाई शतधन्वा से महाभागा सत्यभागा के पिता आर्य सत्राजित की हत्या करवा दी थी।
यह सुनते ही सत्यभामा ने पितृघाती कृतवर्मा की ओर विशाक्त दृष्टि से देखा और रोती हुई पति के अंक में चली गयी।
उनका कातर विलाप सुनकर सात्यकि ने सहसा ही क्रोध से भरकर अपना खडग़ उठा लिया और बोले तुम विलाप मत करो सुमध्यमे मैं अभी इस पापी को इसके समस्त अपराधों का दंड देता हूं। रात को गहरी नींद सोये असावधान वीरों की हत्या करने वाले इस नीच को जीवित रहने का अधिकार नही।
युयुधान किसी से कुछ कर पाने के पहले ही सहसा दौड़े और उन्होंने कृतवर्मा का सिर काट दिया। मदिरा के आवेश में उन्मत सात्यकि कृतवर्मा के साथ बैठे उन लोगों का भी वध करने लगे जो कृतवर्मा के समर्थक थे। फिर तो भोज तथा अंधकवंश के योद्घाओं ने सात्यकि को घेरकर उन पर आघात करना आरंभ कर दिया। मदिरा के आवेश से उन्मत्त यादवों में उस समय मानों महाकाल के संकेत पर भीषण युयुत्सा जाग उठी और देखते ही देखते वे एक दूसरे का संहार करने लगे।
यादव वहां मनोरंजन और तीर्थ पर पुण्यलाभ की कामना से आये थे। फिर इस समय तो महापान ही चल रहा था, अत: यादवसंघ की महाशक्ति का डंका सारे लोक में बजाने वाले वे महारथी यादव उस समय युद्घ के लिए तो तत्पर नही थे। उन्होंने अपने शरीर पर आत्मरक्षा के लिए कवच आदि भी नही धारण कर रखे थे। उन्होंने क्रोधावेश में जो कुछ भी मिला, उसी को ले-लेकर एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। आसपास जो जूठे बर्तन तथा मदिरापान के लिए रखे चषक और कोशिकाएं आदि मिलीं, वे उनसे ही प्रहार कर रहे थे। सात्यकि अब अंधक तथा भोजकुल के योद्घाओं से घिर गये थे।
कुछ के पास सात्यकि की ही भांति खडग़ तथा असि आदि शस्त्र भी थे। सात्यकि उनके प्रहार से आहत होकर थकने लगे। उनको घिरा देखकर वासुदेव कृष्ण के समान ही पराक्रमी रूक्मिणीनंदन प्रद्युम्न सात्यकि की रक्षा करने के लिए उस ओर झपटे। किंतु उस समय तो सबके सब मानो काल के वश में हो गये थे। सात्यकि को बचाने के लिए आये प्रद्युम्न पर भी मदमत यादवों ने घातक प्रहार करना आरंभ कर दिया। फिर तो मानो युद्घ की घोषणा ही हो गयी। दोनों पक्षों के और भी कितने ही योद्घा झपटकर दूसरे पक्ष की हत्या करने लगे। उस समय किसी को यह भी याद नही रहा कि यादवकुल के शिरोमणि और वृष्णिवंश के दोनों महाबली योद्घा कृष्ण और बलदेव उस समय वही उपस्थित हैं। किसी को न तो किसी की सुधि रह गयी थी न किसी मर्यादा की चिंता।
उस भीषण गृहयुद्घ में देखते ही देखते अनेक महाबली योद्घा काम आ गये। कृष्ण ने देखा कि युयधान सात्यकि गिर गये फिर उनका पुत्र महाबली प्रद्युम्न भी वीरगति पा गये। तब तो उनको भयानक क्रोध आया। उन्होंने उठकर तत्काल समुद्र के किनारे उगे एरका नामक बांस जैसे पौधे को ही उखाड़ लिया और उसी से यादवों का संहार करने लगे। कृष्ण अपने प्रिय सखा सात्यकि तथा अपने पुत्र अतिरथी प्रद्युम्न की हत्या हो जाने से स्वयं भी आपा खो बैठे थे। जो भी उनके सामने पड़ जाता, वे एरका नामक उस दंड के प्रहार से ही मार मारकर उसका अंत कर देते थे।
(सुशील कुमार के उपन्यास ‘पांचाली’ से साभार)