फिर से लौटें जलसंरक्षण की परंपरा की ओर
प्रस्तुति – देवेंद्र सिंह आर्य
‘जलमेव जीवनम्’ जल ही जीवन है। जल है तो कल है। प्रकृति प्रदत्त संसाधनों में जल का महत्व सर्वाधिक है। मानव शरीर की संरचना में प्रकृति के पांच तत्वों का समायोजन है। भूमि, जल, आकाश वायु और तेज (अग्नि)। प्रकृति के सभी तत्वों का सन्तुलन प्राणिमात्र की रक्षा के लिए आवश्यक है। आज सम्पूर्ण विश्व में जिस प्रकार का वातावरण दिखाई दे रहा है, वह भयावह है। एक भयानक संकट जो विश्व में अशान्ति के महासमर की ओर ले जा सकता है। यह संकट है, जल का संकट। विद्वानों का तो यहां तक मानना है कि जल समस्या आने वाले समय में विश्व युद्ध का भी कारण बन सकती है। 29 अप्रैल को अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी जल की समस्या पर चिन्ता व्यक्त की। साथ ही उन्होंने देशवासियों को जल संरक्षण एंव जल प्रबन्धक की भारत की प्राचीन पद्धति को अपनाने का आह्वान भी किया।
भारतीय समाज जल संरक्षण एवं प्रबन्ध के लिए पूर्वकाल में अधिक जागरूक एवं कुशल था परन्तु आज का समाज यद्यपि स्वयं को अधिक शिक्षित और योग्य मानता है, परन्तु जल प्रबन्धन में आज भी कम पढ़े-लिखे ग्रामीण समाज से बहुत पीछे है। भारत का ग्रामीण समाज आज भी वैदिक जीवन पद्धति के अधिक निकट है जिसमें प्रकृति के सन्तुलन बनाये रखने का विधि विधान था। प्रत्येक गाँव की संरचना में तीन महत्वपूर्ण बातों का ध्यान अवश्य रहता था – देवालय, तालाब और पीपल का वृक्ष। यह तीनों भारतीय गाँवों की पहचान थे। गाँव का प्रत्येक व्यक्ति इन तीनों के संरक्षण एवं संवर्धन का विशेष ध्यान रखता है। वर्ष में एक बार तालाब का स्वच्छता, उसकी गहराई को बनाये रखने के लिए मिट्टी की निकासी, यह अनिवार्य कार्य था और प्रत्येक ग्रामीण इसमें अपना सहयोग देता था। वर्षा से पूर्व इस कार्य को पूर्ण किया जाता था ताकि वर्षा का जल ठीक प्रकार से तालाब में संग्रहित हो सके। सम्पूर्ण गाँव की नालियों को इस प्रकार से बनाया किया जाता था कि समस्त जल तालाब में आकर एकत्रित हो। इस एकत्र किए गए जल के कारण ही गांवों में वर्षभर जल का अभाव नहीं होता था। आज गांवों सिमट रहे हैं। शिक्षा का अवैज्ञानिक तरीका लोगों की चिन्तनधारा को दूषित कर रहा है। वर्तमान भारतीय शिक्षा व्यवहारिक जगत से बहुत दूर है।
इतना ही नहीं, ग्रामीण समाज कृषि को प्यास से मुक्त रखने का भी उपाय करता था। नालियों का रख-रखाव, नहरों की सफाई, यह सभी नियमित वार्षिक कार्य थे जिसके कारण जल का उचित रूप प्रबन्धन एवं संरक्षण होता था। नदियों को स्वच्छ रखने के उपाय जीवन के आवश्यक अंग थे। उक्त सभी कार्यों को प्रत्येक व्यक्ति अपना धर्म मानता था। यह सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के आवश्यक अंग माने जाते थे। परन्तु आधुनिकता की अवैज्ञानिक जीवन-पद्धति ने इन सभी परम्पराओं को ध्वस्त कर दिया। इसी का दुष्परिणाम हम देख रहे है। इस समस्या के निराकरण के लिए हमें पुन: अपनी वैदिक जीवन पद्धति को अपनाने की आवश्यकता है। प्राचीन भारतीय गुरुकुलीय शिक्षा व्यवस्था में इस प्रकार के व्यवहारिक शिक्षण की व्यवस्था थी परन्तु वर्तमान शिक्षा ने हमारे सन्तुलित विकास के मॉडलों को ध्वस्त कर दिया। अभी भी समय रहते यदि हम अपनी चिन्तन धारा को नहीं बदलेंगे तो निश्चित ही भयंकर दुष्परिणाम भुगतने होंगे। आज आवश्यकता अपने प्राचीन गौरव की ओर लौटने की। सभी के साथ सह अस्तित्व की भावना दृढ़ करके सर्वेभवन्तु सुखिन: के भाव को अपने जीवन में धारण करके तदनुरूप अपनी जीवन रचना का निर्माण करके हम विश्व को बचा सकते है। भारत ही यह काम कर सकता है क्योंकि उसके पास हैं अपने ऋषियों की सर्वकल्याण की पूंजी है।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।