संसार में सफल व्यक्ति किसको कहा जाए ? यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो जिस व्यक्ति ने अपने जीवन को जीने के लिए जो उद्देश्य निर्धारित किया यदि वह व्यक्ति अपने उस निर्धारित उद्देश्य को पाने में सफल हुआ तो उसे निश्चय ही सफल माना जाना चाहिए।
जीवन को सफल बनाने के लिए एक व्यक्ति गुफा में बैठकर ईश्वर का ध्यान लगाता है, मोक्ष प्राप्ति की घोर साधना करता है तो एक क्षत्रिय योद्धा शत्रु संहार के लिए तलवार को उठा लेता है। दोनों के क्षेत्र अलग-अलग हैं । आप तलवार उठाने वाले व्यक्ति की सफलता या असफलता का निर्धारण इस बात से करेंगे कि वह उस क्षेत्र में सफल हुआ या नहीं हुआ ? यदि कोई व्यक्ति या ऐसा क्षत्रिय योद्धा अपने समकालीन और समकक्ष योद्धाओं से उत्कृष्ट प्रदर्शन कर सका तो उसे निश्चय ही आप अपने समय का सफलतम व्यक्ति कह सकते हैं। उसकी यह सफलता ही उसका व्यक्तित्व है जो उसे अपने समकक्षों से अलग करती है। इतिहास में ऐसा व्यक्ति विशेष व्यक्तित्व के रूप में देखा जाता है । उसका आकर्षक व्यक्तित्व देर तक और दूर तक लोगों का मार्गदर्शन करता है, उनके लिए प्रेरणा का स्रोत बन जाता है।
इसी प्रकार गुफा में बैठने वाले के बारे में भी आप ऐसा ही कुछ करेंगे। जो तलवार लेकर रण क्षेत्र में लड़ रहा है ,उसके लिए आप यह नहीं कह सकते कि उसने जंगल में जाकर किसी गुफा में बैठकर ध्यान नहीं लगाया इसलिए उसे असफल कहा जाए और जो ध्यान लगाने वाला है उसके लिए आप यह नहीं कह सकते कि उसने रण क्षेत्र में जाकर तलवार नहीं चलाई। वास्तव में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र केवल इसीलिए बनाए गए कि इस प्रकार की वर्ण व्यवस्था में हर एक व्यक्ति अपना जीवनोद्देश्य निर्धारित कर सकता है। इनसे अलग कोई उद्देश्य संसार में हो ही नहीं सकता। राजा दाहिर सेन की वीरता या सफलता का अनुमान लगाने के लिए भी हमें इसी प्रकार उसका मूल्यांकन करना चाहिए।
राजा दाहिर के साथ हमारी कृतघ्नता
राजा दाहिर की वीरता,देशभक्ति ,देश प्रेम और शौर्य को उपेक्षित कर उसे इतिहास के एक कलंकित और अपमानित नायक की भान्ति स्थापित करने का कार्य किया गया है । यदि हम भारत के लोगों ने अपने इस इतिहास नायक के साथ हुए इस अपमान को स्वीकार कर लिया है तो इससे बड़ी कृतघ्नता और कोई नहीं हो सकती। अपने इतिहास नायक के साथ ऐसा अपमान भारत से अलग संभवत: किसी अन्य देश में होता भी नहीं होगा।
दाहिर के साहस की थाह मिलेगी किसको ।
जीवन भर काल भी नाप सका न जिसको ।।
राष्ट्र वेदी पर जिसने सर्वस्व किया समर्पण ।
उस महानायक को क्या राष्ट्र करेगा अर्पण ।।
उस पुण्यात्मा राजर्षि का कैसे होगा तर्पण।
देशहित किया समर्पित जीवन का हर क्षण।।
काल ने भी से स्वयं शीश झुकाया जिसको ….
हम यह बार-बार कहते रहे हैं कि भारत के इतिहास नायकों के साथ ऐसा व्यवहार जानबूझकर किया गया है । जिससे भारत के लोग भारत के महानायकों को समझ ना सकें और उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रेरणा न ले सकें। जब चारों और हमारे इतिहास नायकों के ऊपर इस प्रकार के अत्याचार किए जा रहे हों और जो लोग हमारे लिए किसी भी स्थिति में पूजनीय नहीं हो सकते उनकी पूजा करवाने का एक घिनौना प्रयास किया जा रहा हो तब राजा दाहिर सेन के जीवन का उचित मूल्यांकन किया जाना बहुत आवश्यक है। हम सभी यह भली प्रकार जानते हैं कि राजा दाहिर सेन सिन्ध के सेन राजवंश के अन्तिम शासक थे । यह एक अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि राजा दाहिर सेन के बारे में समकालीन भारत के लेखकों के लेख या किसी अन्य प्रकार के दस्तावेजों को प्रमाणिक न मानकर विदेशी लेखकों द्वारा लिखे गए 'चचनामा' को आधार बनाया जाता है । 'चचनामा' हमारी स्वाधीनता के महानायक राजा दाहिर सेन के विषय में कितना निष्पक्ष और न्यायपूर्ण हो सकता है ? इस पर विचार किया जाना बहुत आवश्यक है । यह बात तब और भी अधिक विचारणीय को जाती है जब इस ग्रंथ का लेखक विदेशी हो और इसकी भाषा भी विदेशी हो। जिस पुस्तक का लेखक विदेशी और भाषा विदेशी हो उसकी सोच भी विदेशी होती है और जिसकी सोच विदेशी हो उसमें आपके राष्ट्र नायकों को कितना बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता है ? - यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
‘अतिथि देवो भव:’ और राजा दाहिर
विद्वानों का मानना है कि राजा दाहिर के समकालीन ओमान के माविया बिन हारिस अलाफ़ी और उसके भाई मोहम्मद बिन हारिस अलाफ़ी ने ख़लीफ़ा के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। इस विद्रोह में हुए संघर्ष में अमीर सईद मारा गया। ‘चचनामा’ के अनुसार मोहम्मद अलाफ़ी ने ऐसी परिस्थितियों में राजा दाहिर की शरण लेना उचित माना। फलस्वरूप वह अपने साथियों के साथ मकरान आ गया। मकरान उन दिनों राजा दाहिर सैनिक के राज्य क्षेत्र का एक भाग था । राजा ने इस विदेशी शरणार्थी को अपने यहां सहर्ष शरण दे दी । हो सकता है कि राजा दाहिर सेन उस समय यह नहीं जानते हों कि इस विदेशी व्यक्ति को अपने यहाँ शरण देने के परिणाम कितने गम्भीर हो सकते हैं ? उन्होंने जो कुछ भी किया, वह 'अतिथि देवो भव:' - की परम्परा के निर्वाह के वशीभूत होकर किया। अतिथि का सम्मान और स्वागत करना भारत की प्राचीन परम्परा है। इसके अतिरिक्त शरणार्थी के जीवन की रक्षा करना भी भारत की प्राचीन परम्परा रही है। राजा दाहिर सेन भारत की इस वैदिक परम्परा में विश्वास रखते थे । यही कारण था कि उन्होंने शरणार्थी को बहुत सहजता से अपने यहाँ शरण दे दी।
शरणागत को शरण में लेना जिसने धर्म बनाया।
दांव लगाकर निज प्राणों का जिसने व्रत निभाया ।।
युद्ध में भी जिसने अपना सद्गुण नहीं भुलाया ।
अधर्माचरण को जिसने पाप अतुल्य बतलाया।।
बताओ ,कौन सी धर्मतुला पर तोलोगे तुम उसको …
कहा जाता है कि उस समय बग़दाद के शासक ने सिन्ध के शासक राजा दाहिर सेन को कई पत्र लिखकर इन बागियों को अपने यहाँ से निकालने का अनुरोध किया। साथ ही यह चेतावनी भी दी कि यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया तो उन्हें इसके गम्भीर परिणाम भुगतने होंगे। वीर राजा दाहिर सेन पर बगदाद के शासक की इस प्रकार की धमकियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने शरणागत की रक्षा करना अपना दायित्व और धर्म समझते हुए उन्हें बगदाद के शासक को सौंपने से मना कर दिया। 'चचनामा' के अनुसार मोहम्मद बिन कासिम या उस समय के अन्य अरब आक्रमणकारियों का भारत पर आक्रमण करने का एक कारण यह भी था कि राजा ने इन बागियों को उनके शासकों को सौंपने से इंकार कर दिया था।
घटना के दो पक्ष
इस घटना को दो दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। एक तो यह कि भारत के शासकों ने अपने परम्परागत आदर्शों को अपनाए रखकर गलतियां कीं। उन्हें इस प्रकार विदेशी अतिथि को अपने यहाँ पर शरण नहीं देनी चाहिए थी। विशेष रूप से यह बात तब और भी अधिक विचारणीय हो जाती है जब कि पिछले 70 वर्ष के कालखंड के विषय में राजा दाहिर सेन निरन्तर विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमणों के बारे में सुनते आ रहे थे। राजा दाहिर सेन इन आक्रमणों से परिचित होने के कारण इन विदेशी आक्रमणकारियों के अत्याचारों और निंदनीय कार्यों से भी भली प्रकार परिचित रहे होंगे । तब किसी विदेशी व्यक्ति को अपने यहाँ शरण देना 'सद्गुण विकृति' का ही शिकार होना था। जब हम 'चचनामा' की साक्षी को पूर्णतया सच मानकर इस घटना पर विचार करते हैं और इस घटना के परिणाम को देखते हैं तो फिर यही भाव निकल कर आता है कि राजा ने इस विदेशी शरणार्थी को शरण देकर भूल की।
यदि हमारे राजा मुसलमानों के बारे में पहले दिन से यह मानकर चलते कि ये जाति विश्वास करने योग्य नहीं है ,इसलिए इनके प्रति किसी भी प्रकार की मानवता दिखाना स्वयं मानवता का अपमान करना है तो हमारा इतिहास कुछ दूसरा होता। राजा दाहिर सेन ने जिस प्रकार की गलती की थी इसी प्रकार की गलती आगे भी हमारे राजा निरंतर करते रहें। इसका अभिप्राय यह हुआ कि हमने इतिहास से शिक्षा नहीं ली। फलस्वरूप राजा दाहिर सेन ने जिस गलती को उस समय किया था उसको आगे भी हम दोहराते रहे।
जो समझ नहीं पाए कभी भारत के अंतर्मन को।
जो ज्योति बुझाकर मगन रहे, रहे पूजते तम को।।
दुर्भाग्य रहा राजा ने उनको अतिथि रूप में जाना। जिनके हृदय में कालिख थी देव उन्हें भी माना ।।
नहीं बोध था अतिथि के महान भाव का जिनको….
अब घटना के दूसरे पक्ष पर भी विचार कर लेना चाहिए। दूसरा पक्ष या दृष्टिकोण यह है कि जब कोई शासक दूसरे राज्य पर हमला करता है तो उसके लिए कोई न कोई ऐसा कारण खोजता है जिससे वह इतिहास में अपयश की प्राप्ति से बच जाए अर्थात दूसरे राजा पर कोई न कोई दोषारोपण करता है। ऐसा करने से उस हमलावर राजा को यह लाभ हो जाता है कि इतिहास उसे हमलावर न कहकर आत्मरक्षा या आत्मसम्मान को बचाने के लिए काम करने वाले शासक के रूप में देखने लगता है। वास्तव में इतिहास को भ्रमित करने और इतिहासकारों की जमीर को खरीदने के लिए ही ऐसे हमलावर राजा इस प्रकार के नाटक करते देखे जाते हैं । मुस्लिम शासकों के विषय में तो यह बात पूर्णतया सच सिद्ध होती है कि उन्होंने अधिकतर लड़ाइयां दूसरे शासक को पहले किसी ना किसी दोष के लिए आरोपित करके कीं।
इसके अतिरिक्त अरब शासकों का एक ही उद्देश्य था कि वह संसार में सर्वत्र इस्लाम को फैला दें। दूसरे देशों को लूटें,मारें, काटें और उसे अपने अधीन कर लें।
भारत से अलग वह अब तक जहाँ भी सफल हो चुके थे, उनकी तथाकथित सफलता के उस इतिहास को भी इस घटना के साथ जोड़कर देखने की आवश्यकता है। यदि उस इतिहास को इस घटना के साथ जोड़कर हम देखेंगे तो पता चलेगा कि इन अरब आक्रमणकारियों को भारत पर आक्रमण करना ही था। उसके लिए कोई न कोई उन्हें ऐसा बहाना खोजना था , जिससे उनके इतिहास लेखक उन्हें एक न्यायपूर्ण शासक के रूप में स्थापित कर सकें।
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अबसे पूर्व में अरब आक्रमणकारियों ने जितने भर भी आक्रमण किए थे वह सब बिना किसी औचित्यपूर्ण कारण के किए गए थे।
हमारे राजा को दिखाया गया हठीला
हमने इतिहास को पढ़ा तो अवश्य है पर इतिहास की घटनाओं पर कभी गम्भीरता से चिन्तन नहीं किया है। तभी तो हमने कभी भी यह सोचने का प्रयास नहीं किया कि जब इस्लाम का उदय अरब में हो रहा था और वह अरब से बाहर निकलकर दूसरे देशों को लूटमार कर समाप्त करने या उनका इस्लामीकरण करने के लिए अपने लूटदल सर्वत्र भेज रहा था तो क्या उस समय सारे संसार में ही संस्कृति सभ्यता नहीं बची थी ? क्या काफिरों के पास उस समय या आज जीवन जीने की कोई शैली नहीं थी या नहीं है? यदि काफिरों के पास जीवन जीने की शैली उस समय थी या आज है तो उसे समाप्त करने का अधिकार इस्लाम के मानने वाले लोगों या शासकों को किसने दे दिया था ? यदि इस्लाम के मानने वाले लोगों ने यह अधिकार स्वयं पैदा किया तो इतिहासकारों को यह लिखना चाहिए था या लिखना चाहिए कि इस्लाम ने अपने इस अधिकार का दुरुपयोग करते हुए मानवता को कितनी क्षति पहुंचाई ? या लूटमार, हत्या, डकैती व बलात्कार के कीर्तिमान स्थापित कर संसार को नर्क की अग्नि में धकेल कर इस्लाम के मानने वालों ने कौन सी मानवता की सेवा की है ?
अपयश का भागी बना दिया राजा सेन को पापी ने। चचनामा में तस्वीर दिखाई जैसी किसी कामी ने ।।
किसी नीच अधर्मी की हरकत को कब पहचानोगे। भारत के दुश्मन गद्दारों की साजिश को कब जानोगे।। भारत हित में उचित सोचना रास ना आया जिनको…
'चचनामा' के लेखक ने इस घटना का उल्लेख करके हमारे राजा दाहिर सेन को एक हठीला और अपनी बात पर पूर्वाग्रह के साथ खड़े होने वाले शासक के रूप में स्थापित किया है। जबकि अपने शासकों को उसने बहुत ही न्यायपूर्ण ठहराने का प्रयास किया है। दुर्भाग्य यह है कि हमने स्वयं ने भी अपने राजा को उन्हीं के दृष्टिकोण और दृष्टि से देखने का प्रयास किया है । हमने यह सोचा ही नहीं कि हम अपने इतिहास नायक के साथ न्याय करते हुए उसे विदेशी लेखकों के शत्रु भरे दृष्टिकोण और दृष्टि से देखने का प्रयास ना करें । हमारे लिए उचित यही होता कि हमें राजा दाहिर सेन को न्यायशील, धर्मशील और देशभक्त राजा के रूप में स्थापित करना था।लेखन धर्म के प्रति पूर्ण ईमानदारी बरतते हुए अपने शासकों को दूसरों की भूमि पर अनैतिक अधिकार स्थापित न करने वाले शासक के रूप में बताना चाहिए था। क्योंकि भारत ने प्राचीन काल से ही न्याय के लिए संघर्ष करना सीखा है। अन्याय, अत्याचार, और दुराचार को मिटाना भारत के युद्धों का विशेष उद्देश्य रहा है।
शब्दों के खेल खेल में ही 'चचनामा' के लेखक ने अपना काम कर दिया। आज हममें से बहुत से ऐसे हैं जो इस लेखक के शब्द जाल में फंसकर अपने राजा दाहिर सेन के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। 'चचनामा' के लेखक ने हमारे न्यायशील, धर्मशील और देश प्रेमी राजा को जिस भाषा में पुकारा हमने उस भाषा को वैसे ही पढ़ लिया, जबकि हमें विदेशी शत्रु लेखकों के द्वारा लिखी गई ऐसी पुस्तकों को आंख खोलकर पढ़ने की आवश्यकता थी।
पाकिस्तान में मिल रहा है राजा दाहिर को सम्मान
यह बहुत ही प्रसन्नता की बात है कि अब पाकिस्तान में भी कुछ ऐसे लोग उभर कर सामने आ रहे हैं जो सिन्ध के राजा दाहिर सेन को अपना पूर्वज मानकर उनके सही इतिहास को लिखवाने की मांग कर रहे हैं।
कहने का अभिप्राय है कि जिस काम को हम भारत वालों को करना चाहिए था उसे पाकिस्तान में रहने वाले कुछ लोग करके दिखाने का काम कर रहे हैं। वह नहीं चाहते कि उनका इतिहास उनकी आंखों के सामने दम तोड़े। जबकि हमने अपने इतिहास का स्वयं ही गला घोंटने का काम किया है। हमें हमारी उदारता के साथ इस प्रकार बांध दिया गया है कि हम स्वयं ही यह कहने लग गए कि ‘बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले’ – जबकि राक्षस प्रवृत्ति के लोग बीते हुए कल को न तो बिसरा सके और ना ही बीते हुए कल में किए गए किसी अपराध को अनुचित कहते हैं।
कुछ समय पहले पाकिस्तान में महाराजा रणजीत सिंह की प्रतिमा स्थापित की गई थी। तब वहाँ पर सोशल मीडिया में पंजाब प्रांत को इस बात के लिए शुभकामनाएं दी गईं कि उसने अपने वास्तविक इतिहास नायक को सम्मान दिया है। इस पर क्वेटा के पत्रकार जावेद लांगाह ने फेसबुक पर लिखा कि आख़िरकार राजा रणजीत सिंह बादशाही मस्जिद के दक्षिण पूर्व स्थित अपनी समाधि से निकलकर शाही क़िले के सामने घोड़े पर सवार होकर अपनी पिछली सल्तनत और राजधानी में फिर से नमूदार (हाज़िर) हो गए हैं।
पूर्वजों के तप त्याग को करते जो प्रणाम।
कहलाते जीवंत वे करते ऊँचे काम।।
उन्होंने यह भी लिखा कि पंजाब दशकों तक अपने वास्तविक इतिहास को झुठलाता रहा है और एक ऐसा काल्पनिक इतिहास गढ़ने की कोशिश में जुटा रहा जिसमें वो राजा पोरस और रणजीत सिंह समेत वास्तविक राष्ट्रीय नायकों और सैकड़ों किरदारों की जगह ग़ौरी, ग़ज़नवी, सूरी और अब्दाली जैसे नए नायक बनाकर पेश करता रहा जो पंजाब समेत पूरे उपमहाद्वीप का सीना चाक करके यहाँ के संसाधन लूटते रहे।”
जो बात जावेद साहब ने पाकिस्तान जैसे मुस्लिम कट्टरपंथी देश में बैठकर बोल दी उसे यहाँ का कोई भी इतिहासकार नहीं बोल पाता। इससे पता चलता है कि जावेद साहब जैसे लोग अपने इतिहास के प्रति कितने जागरूक और सावधान हैं ? जबकि हम भारतीय लोग अपने इतिहास के प्रति कितने बेरुखे और हृदय हीन हो चुके हैं ? हमारी इसी बेरुखी और हृदयहीनता से उपजी संवेदनशून्यता के शिकार राजा दाहिर सेन हुए हैं । जिनके बारे में ‘चचनामा’ में जो कुछ लिख दिया गया वही आज तक पत्थर पर खींची गई लकीर के समान पढ़ा जा रहा है ।भारत में मुस्लिम लेखकों को इस बात से प्रेरणा लेनी चाहिए कि यदि पाकिस्तान के लोग अपने वास्तविक इतिहास नायकों के प्रति न्याय करने की मांग सरकारों से कर सकते हैं तो भारत में ऐसा क्यों हो रहा है कि सारा इतिहास ही विदेशी शासकों के नाम कर दिया गया है?
दरम ख़ान नाम के एक शख़्स ने फ़ेसबुक पर लिखा कि अब वक़्त आ गया है कि पाकिस्तान में बसने वाली तमाम क़ौमों के बच्चों को स्कूलों में सच बताया जाए और उन्हें अरब और मुग़ल इतिहास के बजाय अपना इतिहास पढ़ाया जाए। यहाँ पर ‘अपना इतिहास’ शब्द बहुत गहरा है। ‘अपना इतिहास’ जब पाकिस्तान पढ़ेगा तो पाकिस्तान न केवल राजा दाहिर सेन से जुड़ जाएगा बल्कि राजा दाहिर सेन के हिन्दू आर्य पूर्वजों की लंबी श्रंखला से भी जुड़ जाएगा । तब उसे समझ आएगा कि उसका हिन्दू वैदिक अतीत कितना महान है ? तब उसे अपने इस्लामी राष्ट्र होने के खोखलेपन का भी बोध होगा।
पत्रकार निसार खोखर पंजाब की जनता को संबोधित करते हुए लिखते है कि “रणजीत सिंह पंजाब पर शासन करने वाले पहले पंजाबी थे, अगर सिन्ध सरकार एक ऐसी ही प्रतिमा सिंधी शासक राजा दाहिर की लगा दे तो आपको ग़ुस्सा तो नहीं आएगा, कुफ़्र और ग़द्दारी के फ़तवे तो जारी नहीं होंगे?”
पत्रकार निसार खोखर की आवाज भी अपने आप में बहुत ही दमदार है। वास्तव में ही सिन्ध में राजा दाहिर सेन की प्रतिमा स्थापित होनी चाहिए। यद्यपि पाकिस्तान की सांप्रदायिक सरकार और सांप्रदायिक राजनीति से इस प्रकार की उदारता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इसके उपरांत भी हम यह कहेंगे कि आवाज तो आवाज है ,उसे सुना जाना चाहिए और यदि यह आवाज पाकिस्तान जैसे कट्टरपंथी इस्लामिक देश में उठाई जा रही है तो निश्चित रूप से इस आवाज के कुछ गहरे अर्थ हैं । जिन्हें समझना ही चाहिए। भारत सरकार को तो इस ओर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।
सिन्ध की कला और संस्कृति को सुरक्षित रखने वाले संस्थान सिंध्यालॉजी के निदेशक डॉक्टर इसहाक़ समीजू भी राजा दाहिर के सिंध का राष्ट्र नायक होने का समर्थन करते हैं , उनकी मांग है कि राजा दाहिर सेन को सिन्ध का ‘इतिहासनायक’, ‘राष्ट्र नायक’ या ‘नेशनल हीरो’ कहा जाए। उनका कहना है कि अपने आप को दुनिया की जिन्दा कौमों में शुमार कराने के लिए हर क़ौम को ये हक़ हासिल है कि जिन भी किरदारों ने अपने देश की रक्षा के लिए जान की बाज़ी लगाई, उनको श्रद्धांजलि दी जाए।
नायक मेरे देश के, राजा दाहिर सेन ।
पूजित हों इस भाव से नम जावें निज नैन।।
इस प्रकार राजा दाहिर सेन को ये लोग अपने देश के लिए जान की बाजी लगाने वाले नायक के रूप में देखते हैं। इनकी इस प्रकार की टिप्पणियों, मांगों और इतिहास नायकों के प्रति श्रद्धा भावना को देखकर पता चलता है कि इन्होंने मजहब चाहे परिवर्तित कर लिया हो, परन्तु अपने पूर्वजों को नहीं बदला है । जो लोग अपने पूर्वजों को नहीं बदलते हैं, सही अर्थों में इतिहास का वही सम्मान करने के अधिकारी होते हैं। भारत के मुसलमानों को इस बात से निश्चित रूप से शिक्षा लेनी चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत